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आपराधिक कानून

सुंदर उर्फ़ सुंदरराजन बनाम राज्य पुलिस निरीक्षक द्वारा (2023)

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 04-Sep-2025

परिचय 

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 364क और 302 के अधीन मृत्युदण्ड के मामलों में परिस्थितियों को कम करने के उचित विचार पर चर्चा की। 

  • यह निर्णय तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनाया गया जिसमें पूर्व मुख्य न्यायाधीश (डॉ.) धनंजय वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पमिदिघंतम एस. नरसिम्हा सम्मिलित थे। 

तथ्य 

  • याचिकाकर्त्ता, सुंदर उर्फ ​​सुंदरराजन, तमिलनाडु के कम्मापुरम मेंसात वर्षीय बच्चे के व्यपहरण और हत्या में सम्मिलित था। 
  • 27 जुलाई 2009 को याचिकाकर्त्ता ने बच्चे का व्यपहरण कर लिया और पीड़िता की माता को दो बार फोन करके 5 लाख रुपए की फिरौती (मुक्तिधन) मांगी। 
  • 30 जुलाई 2009 को पुलिस ने याचिकाकर्त्ता के घर पर छापा मारा और उसे एक सह-अभियुक्त के साथ गिरफ्तार कर लिया। 
  • याचिकाकर्त्ता नेबच्चे का गला घोंटकर हत्या करनेऔर शव को टैंक में फेंकने की बात स्वीकृत की। 
  • संस्वीकृति के आधार पर पुलिस ने पीड़िता का शव टैंक से बरामद किया। 
  • कुड्डालोर के विचारण न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 364 (मुक्तिधन के लिये व्यपहरण) और 302 (हत्या) के अधीन दोषी पाया। 
  • याचिकाकर्त्ता को मृत्युदण्ड का दण्ड दिया गया, जबकि सह-अभियुक्त को सभी आरोपों से दोषमुक्त कर दिया गया। 
  • मद्रास उच्च न्यायालयने याचिकाकर्त्ता की अपील खारिज कर दीतथा दोषसिद्धि एवं मृत्युदण्ड दोनों को बरकरार रखा। 
  • उच्चतम न्यायालय की एक खंडपीठ ने भी अपील को खारिज कर दिया तथा मृत्युदण्ड की पुष्टि की। 
  • मोहम्मद आरिफ उर्फ ​​अशफाक बनाम  रजिस्ट्रार, भारत के उच्चतम न्यायालय (2014) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के पश्चात्, याचिकाकर्त्ता ने न्यायिक त्रुटियों और परिस्थितियों पर विचार करने में विफलता का तर्क देते हुए खुले न्यायालय में पुनर्विलोकन की मांग की।  

सम्मिलित विवाद्यक  

  • क्या याचिकाकर्त्ता को को दिया गया मृत्युदण्ड न्यायोचित था, और क्या न्यायालयों ने मृत्युदण्ड देने से पहले उचित परिस्थितियों पर विचार किया था? 

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

  • न्यायालय नेदोषसिद्धि को बरकरार रखा तथापाया कि अभिलेख में कोई त्रुटि नहीं है। 
  • अभियोजन पक्ष का मामला मजबूत साक्षियों के परिसाक्षियों और दस्तावेज़ी साक्ष्यों पर आधारित था, और याचिकाकर्त्ता उचित संदेह उठाने में असफल रहा। 
  • यद्यपि, न्यायालय नेदण्ड दिये जाने की प्रक्रिया मेंगंभीर प्रक्रियागत खामियाँ पाईं: 
  • विचारण न्यायालय ने मृत्युदण्ड देने से पहले याचिकाकर्त्ता को दण्ड पर सार्थक सुनवाई का अवसर नहीं दिया था। 
  • न तो विचारण न्यायालय और न ही अपीलीय न्यायालयों ने सुधार या पुनर्वास की संभावना का सुझाव देने वाली परिस्थितियों पर विचार करने के लिये वास्तविक प्रयास किये 
  • दण्ड केवल अपराध की वीभत्स प्रकृति के आधार पर अधिरोपित किया गया था, तथा इसमें अपराध को कम करने वाले कारकों की उचित जांच नहीं की गई। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह मृत्युदण्ड देने से पहले परिस्थितियों की जांच करे तथा सुधार की संभावना को खारिज करे, भले ही अभियुक्त चुप रहे। 
  • न्यायालय ने कहा कि परिवार की वंशावली को आगे बढ़ाने वाले "एकमात्र पुत्र" को लक्षित करने के बारे में खंडपीठ का तर्क एक पितृसत्तात्मक मूल्य निर्णय था, जिससे बचना चाहिये 
  • न्यायालय ने बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) केमामले में "दुर्लभतम मामलों" के सिद्धांत को लागू कियाऔर पाया कि मामला इस सीमा को पूरा नहीं करता। 
  • विचार किये गए कम करने वाले कारकोंमें सम्मिलित हैं: 
  • अपराध के समय याचिकाकर्त्ता की आयु केवल 23 वर्ष थी। 
  • कोई पूर्व आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं। 
  • 2009 से जेल में संतोषजनक आचरण (2013 में एक बार भागने के प्रयत्न के सिवाय) । 
  • जेल में रहते हुए उन्होंने फूड कैटरिंग में डिप्लोमा हासिल किया था। 
  • प्रणालीगत उच्च रक्तचाप से पीड़ित था। 
  • न्यायालय ने दण्ड को बिना किसी छूट के कम से कम बीस वर्ष के आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया, तथा यह टिप्पणी की कि अपराध की गंभीरता को देखते हुए आजीवन कारावास के लिये सामान्य 14 वर्ष का प्रभावी दण्ड अपर्याप्त था 

निष्कर्ष 

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है जो भारतीय दण्ड संहिता के अधीन मृत्युदण्ड के मामलों में आवश्यक प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को सुदृढ़ करता है। 

न्यायालय ने यह स्थापित किया कि मृत्युदण्ड देने से पहले अपराध को कम करने वाली परिस्थितियों पर उचित विचार करना अनिवार्य है, और ऐसा न करना न्यायिक त्रुटि है जिसके लिये हस्तक्षेप आवश्यक है। निर्णय में इस बात पर बल दिया गया है कि मृत्युदण्ड केवल "दुर्लभतम मामलों" में ही दिया जाना चाहिये, जिसमें अपराध को बढ़ाने वाले और कम करने वाले दोनों कारकों की गहन जांच की जानी चाहिये