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सिविल कानून

विधिशास्त्र में विधि के स्रोत

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 10-Sep-2025

परिचय 

विधि के स्रोत आधारभूत मूल हैं जिनसे विधिक मानदंड, सिद्धांत और बाध्यकारी नियम विधिशास्त्र संबंधी ढाँचे के भीतर अपनी वैधता और प्रवर्तनीयता प्राप्त करते हैं। ये प्रामाणिक स्रोत विधिक दायित्त्वों के औपचारिक आधार के रूप में कार्य करते हैं, न्यायिक निर्धारणों और विधायी अधिनियमों को वैधता प्रदान करते हैं। विधिक स्रोतों का व्यवस्थित वर्गीकरण और पदानुक्रमित व्यवस्था, विविध विधिक विवादों में सैद्धांतिक एकरूपता, विधिक निश्चितता और विधिशास्त्रीय सिद्धांतों के एकरूप अनुप्रयोग को सुनिश्चित करती है। विधिक स्रोतों का विकास एक व्यापक विधिक व्यवस्था की स्थापना में सांविधानिक सर्वोच्चता, विधायी संप्रभुता, न्यायिक पूर्व निर्णय और प्रथागत प्रथाओं के बीच गतिशील अंतर्संबंध को दर्शाता है। 

विधि के स्रोत 

विधिक विशेषज्ञ विधि के स्रोतों को तीन मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे किसी पुस्तकालय में पुस्तकों को व्यवस्थित किया जाता है - प्रत्येक श्रेणी का अलग उद्देश्य होता है और उसके अधिकार का स्तर भी अलग-अलग होता है। 

प्राथमिक स्रोत: विधि की आधारशिला 

प्राथमिक स्रोत किसी कहानी के मुख्य पात्रों की तरह होते हैं - वे सबसे महत्त्वपूर्ण होते हैं और अंतिम निर्णय उन्हीं का होता है। ये स्रोत बाध्यकारी विधि बनाते हैं जिनका पालन न्यायलयों और नागरिकों को करना होता है। 

  • संविधान: सर्वोच्च नियम पुस्तिका -एक संविधान किसी देश की सर्वोच्च निर्देश पुस्तिका की तरह होता है। यह देश की सर्वोच्च विधि है, जो यह निर्धारित करता है कि सरकार कैसे काम करती है, नागरिकों के क्या अधिकार हैं, और सरकार की विभिन्न शाखाओं के बीच शक्ति का वितरण कैसे होता है। इसे एक नियम पुस्तिका की तरह समझें जिसका पालन बाकी सभी नियमों को करना चाहियेयदि कोई भी विधि संविधान के विपरीत है, संविधान की प्रधानता मान्य होगी 
  • विधान: निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा बनाई गई विधि -जब संसद या विधानमंडल नई विधि बनाते हैं, तो वे संविधि या अधिनियम बन जाते हैं। ये वे विधियाँ हैं जो यातायात नियमों से लेकर आपराधिक अपराधों और कर नियमों तक, हर वस्तु की बात करते हैं। विधान, निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करते हैं और हमारे दैनिक जीवन को नियंत्रित करने वाले विधियों का एक बड़ा भाग बनते हैं।  
  • न्यायिक पूर्व निर्णय: पूर्ववर्ती निर्णयों से शिक्षण- जब न्यायाधीश किसी मामले का निर्णय सुनाते हैं, तो उनका तर्क विधिक पूर्व निर्णय का भाग बन जाता है। यह "stare decisis" के सिद्धांत का पालन करता है - जिसका अर्थ है "निर्णय को स्थिर रहने दो"। इसे पूर्वानुभवों से निर्मित एक मार्गदर्शिका के समान माना जा सकता है। यदि कोई उच्चतर न्यायालय किसी मामले का निर्णय किसी विशेष तरीके से करता है, तो निचली न्यायलयों को भी ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करते समय उसी निर्णय का पालन करना चाहिये। इससे पूरी न्याय व्यवस्था में एकरूपता सुनिश्चित होती है। 
  • रीति-रिवाज: विधिक बल से युक्त पारंपरिक प्रथाएँ-कुछ समुदाय इतने लंबे समय से कुछ प्रथाओं का पालन करते आए हैं कि वे परंपराएँ विधि रूप से मान्यता प्राप्त हो गई हैं। उदाहरण के लिये, कई संस्कृतियों में, पारंपरिक विवाह प्रथाएँ या उत्तराधिकार परंपराएँ विधिक रूप से मान्य हैं। यद्यपि, इन प्रथाओं को विधि के वैध स्रोत माने जाने के लिये कुछ विधिक मानकों को पूरा करना आवश्यक है। 

द्वितीयक स्रोत: मार्गदर्शक और व्याख्याकार 

द्वितीयक स्रोत स्वयं विधि का निर्माण नहीं करते, किंतु वे प्राथमिक स्रोतों की समझ एवं व्याख्या में सहायक होते हैं। इन्हें ऐसे अनुभवी मार्गदर्शक समझा जा सकता है, जो यह स्पष्ट करते हैं कि प्राथमिक स्रोतों का वास्तविक अर्थ क्या हैं। 

  • विधिक विद्वत्ता और टिप्पणियाँ -विधिक विद्वान एवं विशेषज्ञ जटिल विधिक अवधारणाओं की व्याख्या हेतु लेख, ग्रंथ एवं विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। यद्यपि इनकी कोई बाध्यकारी शक्ति नहीं होती, तथापि ये न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की विधिक सोच को प्रभावित करते हैं। इन्हें ऐसे अनुभवी शिक्षक की भाँति माना जा सकता है जो जटिल विषयों को सरल ढंग से समझाते हैं। 
  • आधिकारिक रिपोर्ट और अभिलेख - सरकारी अभिकरण एवं विधानमंडल ऐसे प्रतिवेदन प्रकाशित करते हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि विशेष विधि क्यों बनाई गई तथा उसकी व्याख्या किस प्रकार की जानी चाहिये। ये संदर्भ सामग्री के रूप में महत्त्वपूर्ण होते हैं, मानो किसी पुस्तक को समझने के लिये लेखक की टिप्पणी पढ़ी जा रही हो 
  • विधिक शब्दकोश और विश्वकोश- ये साधन विधिक शब्दों की परिभाषा प्रदान करते हैं तथा विधिक विषयों का संक्षिप्त अवलोकन प्रस्तुत करते हैं। ये ऐसे ज्ञानवान सहचर के समान होते हैं, जो कठिन विधिक शब्दों का सरल भाषा में अर्थ समझा देते है। 
  • तृतीयक स्रोत: अनुसंधान उपकरण -तृतीयक स्रोत किसी पुस्तक के अनुक्रमणिका (index) की भाँति होते हैं – ये वास्तविक सामग्री नहीं रखते, अपितु शोध-सहायक साधन होते हैं, जो प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोतों को ढूँढ़ने में सहायक होते हैं। इनमें अनुसंधान मार्गदर्शिकाएँ, डेटाबेस एवं विधिक उपकरण सम्मिलित हैं 

न्यायालय इन स्रोतों का उपयोग कैसे करते हैं? 

जब न्यायाधीश मामलों का निर्णय करते हैं, तो वे इन स्रोतों का मनमाने ढंग से प्रयोग नहीं करते, अपितु एक स्पष्ट विधिक पदानुक्रम का पालन करते है: 

  1. संविधान सर्वप्रथम है - यदि संविधान किसी विषय पर कुछ कहता है, तो वही अंतिम शब्द है।  
  2. विधान का पालन - संसद या विधानमंडल द्वारा निर्मित विधियों का अनुपालन करना होगा, बशर्ते वे संविधान के विपरीत न हों।  
  3. पूर्व निर्णय, निर्णयों का मार्गदर्शन करते हैंपूर्ववर्ती न्यायिक निर्णय निरंतरता सुनिश्चित करने हेतु अनिवार्य मार्गदर्शन प्रदान करते हैं।  
  4. प्रथा रिक्त स्थान पूर्ति करती है - जहाँ लिखित विधि स्पष्ट दिशा-निर्देश न देती हो, वहाँ स्थापित प्रथाएँ लागू होती हैं।  

ऐतिहासिक निर्णय 

भारत में कई ऐतिहासिक निर्णय दर्शाते हैं कि ये स्रोत किस प्रकार एक साथ काम करते हैं: 

  • केशवानंद भारती मामला (1973): उच्चतम न्यायालय ने सांविधानिक निर्वचन का उपयोग करते हुए यह निर्णय दिया कि संसद संविधान के मूल ढाँचे को नष्ट नहीं कर सकती। 
  • मेनका गाँधी मामला (1978): न्यायालय ने सांविधानिक सिद्धांतों और विधिक विद्वता का सहारा लेकर जीवन के अधिकार के अर्थ का विस्तार किया। 
  • विशाखा मामला (1997): जब कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न से निपटने के लिये कोई विधि विद्यमान नहीं थाथी तो न्यायालय ने सांविधानिक सिद्धांतों और अंतर्राष्ट्रीय अभिसमयों का उपयोग करते हुए दिशानिर्देश बनाए। 
  • नवतेज सिंह जौहर मामला (2018): न्यायालय ने निजता और समता के सांविधानिक अधिकारों के दृष्टिकोण से औपनिवेशिक काल की विधियों की पुनर्व्याख्या करके समलैंगिकता को अपराधमुक्त कर दिया। 

विभिन्न विधिक प्रणालियाँ, विभिन्न दृष्टिकोण 

  • सिविल विधि प्रणालियाँ (जैसे महाद्वीपीय यूरोप में) लिखित संहिताओं और संविधि पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं। न्यायाधीशों को विधि का निर्वचन करने की कम स्वतंत्रता होती है और वे मुख्यतः संहिताओं में लिखी बातों को ही लागू करते हैं। 
  • सामान्य विधि प्रणालियाँ (जैसे इंग्लैंड, भारत और अमेरिका में) न्यायिक पूर्व निर्णयों को अधिक महत्त्व देती हैं। न्यायाधीश अपने निर्णयों के माध्यम से विधि को आकार देने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। 
  • धार्मिक विधि प्रणालियाँअपने विधिक ढाँचे में धार्मिक सिद्धांतों को सम्मिलित करती हैं, तथा यह दर्शाती हैं कि किस प्रकार सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराएँ विधि का स्रोत बन सकती हैं। 

विधिक स्रोतों में आधुनिक परिवर्तन 

  • अंतर्राष्ट्रीय विधि: संधियाँ और अंतर्राष्ट्रीय करार घरेलू विधियों को तेजी से प्रभावित करती हैं, विशेष रूप से मानवाधिकार और पर्यावरण संरक्षण जैसे क्षेत्रों में। 
  • डिजिटल क्रांति: ऑनलाइन डेटाबेस द्वारा विधिक अनुसंधान को रूपांतरित कर दिया गया है, जिससे विधिक स्रोत अधिक सुलभ हो गए हैं, किंतु साथ ही विशाल मात्रा में सूचना के प्रबंधन में चुनौतियाँ भी उत्पन्न हो रही हैं। 
  • वैश्वीकरण: विधिक प्रणालियाँ एक-दूसरे से तेजी से सीख रही हैं, जिससे सीमाओं के पार विधियों में अधिक सामंजस्य हो रहा है। 

निष्कर्ष 

विधिक स्रोतों का विधिशास्त्र संबंधी विश्लेषण एक पदानुक्रमित वर्गीकरण स्थापित करता है जिसमें प्राथमिक स्रोत बाध्यकारी विधिक प्राधिकार का गठन करते हैं, जबकि द्वितीयक और तृतीयक स्रोत क्रमशः व्याख्यात्मक मार्गदर्शन और शोध सुविधा प्रदान करते हैं। सांविधानिक प्रावधानों, विधायी अधिनियमों, न्यायिक पूर्व निर्णयों और प्रथागत विधि के बीच गतिशील अंतर्संबंध सामाजिक परिवर्तनों के प्रति प्रतिक्रिया में विधिक प्रणालियों की विकासवादी प्रकृति को प्रदर्शित करता है। अंतर्राष्ट्रीय विधिक उपकरणों और डिजिटल विधिशास्त्र सहित समकालीन विकास, विधिक स्रोतों के पारंपरिक प्रतिमान का निरंतर विस्तार कर रहे हैं। विधिक स्रोतों की व्यवस्थित समझ विधिशास्त्रीय विद्वत्ता के लिये मौलिक बनी हुई है, जो आधुनिक लोकतांत्रिक समाजों में विधिक व्यवस्था, सैद्धांतिक सुसंगतता और विधि के शासन को बनाए रखना सुनिश्चित करती है।