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सिविल कानून

NTPC बनाम मेसर्स SPML इंफ्रा लिमिटेड (2023)

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 24-Sep-2024

परिचय:

यह एक ऐतिहासिक निर्णय है, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने प्री-रेफरल चरण में न्यायालय की अधिकारिता को निर्धारित किया। 

  • यह निर्णय मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा ने दिया।

तथ्य:

  • अपीलकर्त्ता (NTPC) और प्रतिवादी (SPML) ने स्टेशन पाइपिंग की स्थापना सेवाओं हेतु एक संविदा किया।
  • संविदा की शर्तों के अनुसार SPML ने निष्पादन बैंक गारंटी और अग्रिम बैंक गारंटी प्रदान की।
  • परियोजना के पूरा होने पर NTPC द्वारा प्रमाण-पत्र जारी किया गया।
  • NTPC ने SPML को सूचित किया कि SPML से नो-डिमांड सर्टिफिकेट प्राप्त होने पर अंतिम भुगतान जारी कर दिया जाएगा। ऐसा होने पर NTPC ने भी अंतिम भुगतान जारी कर दिया।
  • तथापि, बैंक गारंटियाँ रोक ली गईं और NTPC ने SPMLको सूचित किया कि इन्हें लंबित देनदारियों तथा अन्य परियोजनाओं से संबंधित पक्षकारों के बीच विवादों के कारण रोक दिया गया था।
  • SPML ने विरोध किया और तर्क दिया कि बैंक गारंटी को रोके रखना अनुचित था।
  • SPML ने NTPC से संविदा की शर्तों के तहत लंबित विवादों को सुलझाने के लिये एक न्यायनिर्णायक नियुक्त करने का आह्वान किया।
  • NTPC द्वारा कोई कार्रवाई नहीं किये जाने पर SPML ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक रिट याचिका दायर की।
  • रिट याचिका लंबित रहने के दौरान पक्षों के बीच बातचीत शुरू हुई और परिणामस्वरूप निपटान समझौता हुआ।
  • उपर्युक्त के बाद NTPC द्वारा बैंक गारंटी जारी कर दी गई और SPML ने रिट याचिका वापस ले ली।
  • SPML ने निपटान समझौते को अस्वीकार कर दिया एवं माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) की धारा 11 (6) के तहत वर्तमान आवेदन दायर किया।
  • इस याचिका में SPML ने निपटान समझौते के निष्पादन में प्रपीड़न और आर्थिक दबाव का आरोप लगाया।
  • SPML ने दावा किया कि बार-बार अनुरोध के बावजूद NTPC मध्यस्थ नियुक्त करने में विफल रही।
  • अपने उत्तर में NTPC ने दो प्रकार की आपत्तियाँ उठाईं:
    • SPML विवाद को पहले न्यायनिर्णायक के पास भेजने की अनिवार्य पूर्व-मध्यस्थता प्रक्रिया का पालन करने में विफल रहा।
    • पक्षकारों के बीच विवादों का निपटारा निपटान समझौते के तहत किया गया।
    • धोखाधड़ी और प्रपीड़न के आरोपों को झूठा बताकर खारिज कर दिया गया।
  • उच्च न्यायालय ने धारा 11(6) के तहत दायर आवेदन को स्वीकार कर लिया। इसलिये उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।

शामिल मुद्दा:

  • क्या A & C अधिनियम की धारा 11(6) के तहत आवेदन को अनुमति दी जानी चाहिये?

टिप्पणी:

  • इस मामले में न्यायालय ने प्री-रेफरल अधिकारिता के संबंध में कानून पर चर्चा की।
  • न्यायालय ने A & C अधिनियम के अनुच्छेद 11 (6A) का भी उल्लेख किया, जिसे वर्ष 2015 में संशोधन के माध्यम से शामिल किया गया है।
    • उच्चतम न्यायालय या, जैसा भी मामला हो, उच्च न्यायालय, उपधारा (4) या उपधारा (5) या उपधारा (6) के तहत किसी भी आवेदन पर विचार करते समय, किसी भी न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश के बावजूद, मध्यस्थता समझौते के अस्तित्व की जाँच तक ही सीमित रहेगा।
  • न्यायालय ने कहा कि वर्ष 2015 के संशोधन के मद्देनज़र अधिनियम की धारा 11 (6) के तहत न्यायालय की अधिकारिता यह जाँचने तक सीमित है कि क्या पक्षकारों के बीच कोई माध्यस्थम समझौता मौजूद है।
  • इसलिये अधिनियम की धारा 11 (6) के चरण में सीमित परीक्षण ‘प्रथम दृष्टया समीक्षा’ का है। इसलिये, इस चरण में न्यायालय को उलझनों में नहीं पड़ना चाहिये और लघु परीक्षण नहीं करना चाहिये।
  • आई ऑफ नीडल टेस्ट (Eye of needle test): 
    • विधि की स्थिति यह है कि धारा 11(6) के तहत न्यायालयों की प्री-रेफरल अधिकारिता बहुत संकीर्ण होती है और इसमें दो जाँच शामिल होतें हैं।
    • प्राथमिक जाँच माध्यस्थम समझौते के अस्तित्व और वैधता के बारे में होती है, जिसमें समझौते के पक्षकारों तथा आवेदक की उक्त समझौते से गोपनीयता के बारे में भी जाँच शामिल होती है। ये ऐसे मामले होते हैं जिनकी रेफरल न्यायालय द्वारा गहन जाँच की आवश्यकता होती है।
    • द्वितीयक जाँच जो रेफरल चरण में ही हो सकती है, वह विवाद की गैर-मध्यस्थता के संबंध में होती है।
  • इस प्रकार, तथ्यों की प्रथम दृष्टया जाँच की जानी चाहिये, जिससे यह स्पष्ट निष्कर्ष निकले कि इस बात में कोई संदेह नहीं है कि दावा गैर-मध्यस्थता योग्य है। यदि थोड़ा-सा भी संदेह है, तो नियम यह होता है कि विवाद को माध्यस्थम के लिये भेजा जाए।
  • इस प्रकार, अधिनियम की धारा 11(6) के तहत अधिकारिता का प्रयोग करते समय न्यायालय से यह अपेक्षा नहीं की जाती है कि वह आवेदक द्वारा उठाए गए कथित विवाद को चुने हुए मध्यस्थ के समक्ष प्रस्तुत करने के लिये मात्र यांत्रिक रूप से कार्य करेगा।
  • न्यायालय ने मामले के तथ्यों के आधार पर सिद्धांतों को लागू किया और माना कि प्रपीड़न तथा आर्थिक विबाध्यता के आरोप वास्तविक नहीं हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ये ऐसे मामले हैं, जिनमें न्यायालय को प्रथम दृष्टया परीक्षण के आधार पर ही पूर्व-दृष्टया आधारहीन और बेईमानी से किये गए मुकदमे को खारिज कर देना चाहिये था।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि ये ऐसे मामले हैं जिनमें उच्च न्यायालय को पक्षकारों को मध्यस्थता के लिये मजबूर होने से रोकने और उनकी रक्षा करने के लिये प्रतिबंधित एवं सीमित समीक्षा का प्रयोग करना चाहिये।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय ने अधिनियम की धारा 11(6) के तहत आवेदन स्वीकार करने में त्रुटि की है।

निष्कर्ष:

  • इस मामले में न्यायालय ने A & C अधिनियम की धारा 11 (6) के तहत न्यायालय की प्री-रेफरल अधिकारिता के बारे में चर्चा की। 
  • न्यायालय ने माना कि धारा 11 (6) के चरण में न्यायालय द्वारा जाँच बहुत सीमित है। वास्तव में जाँच केवल दो मुद्दों तक सीमित होते है: क्या पक्षकारों के बीच वैध मध्यस्थता मौजूद है और क्या विवाद मध्यस्थता योग्य है।