ज्यूडिशियरी फाउंडेशन कोर्स (नई दिल्ली)   |   ज्यूडिशियरी फाउंडेशन कोर्स (प्रयागराज)










होम / करेंट अफेयर्स

सिविल कानून

CPC के अंतर्गत वाद हेतुक

    «
 12-May-2025

गुरमीत सिंह सचदेवा बनाम स्काईवेज एयर सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड

"वाक्यांश "वाद हेतुक प्रकट नहीं करता" को बहुत संकीर्ण रूप से समझा जाना चाहिये। दहलीज पर शिकायत को खारिज करने से बहुत गंभीर परिणाम सामने आते हैं।"

न्यायमूर्ति रविन्द्र दुदेजा

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति रविंदर डुडेजा की पीठ ने कहा कि इस आधार पर शिकायत को खारिज नहीं किया जाना चाहिये कि तथ्य सिद्ध करने के लिये दावे पर्याप्त नहीं हैं। न्यायालय को शिकायत को तभी खारिज करने का अधिकार है जब शिकायत में वाद हेतुक प्रकट करने में विफलता हो। 

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने गुरमीत सिंह सचदेवा बनाम स्काईवेज एयर सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

गुरमीत सिंह सचदेवा बनाम स्काईवेज एयर सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • स्काईवेज एयर सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड (वादी/प्रतिवादी) ने गुरमीत सिंह सचदेवा (प्रतिवादी/याचिकाकर्त्ता) के विरुद्ध 21,28,478 रुपये (18,03,795 रुपये मूलधन और 3,24,683 रुपये ब्याज) की वसूली के लिये वाद दायर किया। 
  • वादी ने आरोप लगाया कि प्रतिवादी ने हवाई मार्ग से विदेशी गंतव्यों पर माल भेजने के लिये उनकी लॉजिस्टिक सेवाओं का प्रयोग किया, लेकिन इन सेवाओं के लिये भुगतान करने में विफल रहे। 
  • प्रतिवादी ने दावे का विरोध करते हुए एक लिखित अभिकथन दायर किया तथा प्रारंभिक विधिक आपत्तियाँ उठाईं, जिसमें यह भी शामिल था कि वाद अस्पष्ट, संदिग्ध था, उसमें भौतिक विवरणों का अभाव था और कार्यवाही का कोई वैध कारण नहीं बताया गया था। 
  • 12 अक्टूबर 2023 को, प्रतिवादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत एक आवेदन दायर किया, जिसमें वाद हेतुक का वैध कारण का प्रकट न करने के लिये वाद को खारिज करने की मांग की गई।
  • ट्रायल कोर्ट (जिला न्यायाधीश, वाणिज्यिक न्यायालय-03, तीस हजारी कोर्ट, दिल्ली) ने 12 अक्टूबर 2023 को 5,000/- रुपये के जुर्माने के साथ इस आवेदन को खारिज कर दिया।
  • इस आदेश से व्यथित होकर प्रतिवादी ने आदेश के विरुद्ध भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत याचिका दायर की। 
  • प्रतिवादी ने तर्क दिया कि वाद में माल, बुकिंग तिथियों, प्रयोग की गई एयरलाइनों, माल ढुलाई शुल्क, करों एवं सेवा शुल्क के विषय में विशिष्ट विवरणों का अभाव था। 
  • वादी ने जवाब दिया कि उन्होंने वाद में तथ्यों का सारांश दिया था तथा सभी प्रासंगिक दस्तावेज (लगभग 200 पृष्ठ) दाखिल किये थे जिनमें खाता बही, उप-एजेंसी संग्रह रिपोर्ट, एयरवे बिल के साथ बिल, ग्राहक निर्देश और बिलिंग रिपोर्ट शामिल हैं। 
  • वादी ने कहा कि इन दस्तावेजों में, जिन्हें प्रतिवादी ने कथित तौर पर साशय रिकॉर्ड से हटा दिया था, संव्यवहार का पूरा विवरण था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने सबसे पहले यह पाया कि CPC के आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत वादपत्र को खारिज करने का प्रावधान है। 
  • न्यायालय ने माना कि वादपत्र को खारिज करने के आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय को केवल वादपत्र में किये गए कथनों पर ही विचार करना होता है तथा लिखित अभिकथन में प्रतिवादी द्वारा की गई दलीलें इस स्तर पर प्रासंगिक नहीं हैं। 
  • न्यायालय ने माना कि लिवरपूल एंड लंदन एस.पी. एंड आई एसोसिएशन लिमिटेड बनाम एम.वी. सी सक्सेस एंड अन्य (2004) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि यदि वादपत्र में किये गए कथन या जिन दस्तावेजों पर विश्वास किया गया है, वे वाद हेतुक प्रकट करते हैं, तो वादपत्र को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जाना चाहिये कि अभिकथन उसमें दिये गए तथ्यों को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
    • इसने माना कि नियम 11 (a) के अंतर्गत आवेदन के निपटान के लिये, नियम 14 के अंतर्गत दायर दस्तावेजों पर विचार किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि आदेश VII नियम 11, वाद हेतुक प्रकट  करने में विफलता के लिये वाद को अस्वीकार करने को अधिकृत करते हुए, इससे तात्पर्य यह नहीं है कि यदि वाद में ऐसे कथन हैं जो वाद हेतुक प्रकट करते हैं, लेकिन दावा किये गए अनुतोष के लिये आवश्यक तथ्यों को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त नहीं हो सकते हैं, तो उसे अस्वीकार कर दिया जाना चाहिये। 
  • न्यायालय ने स्थापित किया कि वाद को वाद में विश्वास किये गए दस्तावेजों का अलग करके नहीं परीक्षण किया जाना चाहिये। 
  • न्यायालय ने नोट किया कि चूँकि प्रतिवादी ने बुक किये गए माल, गंतव्य, करों एवं चालान की तिथियों के विषय में विवरण वाले सभी प्रासंगिक दस्तावेज रिकॉर्ड पर रखे थे, इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि वाद में वाद हेतुक प्रकट नहीं किया गया है। 
  • न्यायालय ने बल दिया कि "वाद हेतुक प्रकट नहीं करता" वाक्यांश को बहुत संकीर्ण रूप से समझा जाना चाहिये। 
  • न्यायालय ने पाया कि वाद को सीमा पर खारिज करने के गंभीर परिणाम होते हैं, तथा इस शक्ति का प्रयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने कहा कि इस शक्ति का प्रयोग केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्यायालय को पूर्ण विश्वास हो कि वादी के पास कोई तर्क योग्य मामला नहीं है। 
  • न्यायालय ने बताया कि याचिकाकर्त्ता का तर्क यह नहीं था कि दस्तावेजों के साथ शिकायत को संयुक्त रूप से पढ़ने से वाद हेतुक पता नहीं चलता। 
  • न्यायालय ने याचिका में कोई योग्यता नहीं पाई और तदनुसार इसे खारिज कर दिया। 
  • न्यायालय ने मामले से संबंधित सभी लंबित आवेदनों का भी निपटान कर दिया।

वाद हेतुक क्या है?

"वाद हेतुक" शब्दावली को कई निर्णयज विधियों में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है:

  • ओम प्रकाश श्रीवास्तव बनाम भारत संघ एवं अन्य (2006)
    • उच्चतम न्यायालय ने वाद हेतुक को इस प्रकार परिभाषित किया है, "प्रत्येक तथ्य, जिसे यदि परीक्षण किया जाए, तो वादी को न्यायालय के निर्णय के अपने अधिकार का समर्थन करने के लिये सिद्ध करना आवश्यक होगा"।
    • दूसरे शब्दों में, यह वादी के लिये अपने वाद में सफल होने के लिये आवश्यक तथ्यों का समूह है।
  • ब्लूम डेकोर लिमिटेड बनाम सुभाष हिम्मतलाल देसाई (1994)
    • इस मामले ने यह स्थापित किया कि वाद हेतुक उन तथ्यों के संग्रह को संदर्भित करता है जिन्हें वादी को अनुकूल निर्णय प्राप्त करने के लिये सिद्ध करना होता है।
  • सदानंदन भद्रन बनाम माधवन सुनील कुमार (1998)
    • न्यायालय ने कहा कि व्यापक अर्थ में (जैसा कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 20 में प्रयुक्त है), वाद हेतुक से तात्पर्य प्रत्येक तथ्य से है, जो निर्णय प्राप्त करने के अधिकार का समर्थन करने के लिये स्थापित करना आवश्यक है।
  • साउथ ईस्ट एशिया शिपिंग कंपनी लिमिटेड बनाम नव भारत एंटरप्राइजेज (प्राइवेट) लिमिटेड (1996)
    • इस मामले ने स्पष्ट किया कि वाद हेतुक ऐसे तथ्य होते हैं जो निवारण के लिये विधिक जाँच को लागू करने का कारण देते हैं। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इसमें प्रतिवादी द्वारा किया गया कोई कार्य शामिल होना चाहिये, क्योंकि ऐसे कार्य के बिना, वाद हेतुक उत्पन्न नहीं होगा।
  • राजस्थान उच्च न्यायालय अधिवक्ता संघ बनाम भारत संघ (2001)
    • न्यायालय ने वाद हेतुक के सीमित एवं व्यापक अर्थ के बीच अंतर स्पष्ट किया:
      • सीमित अर्थ में: अधिकार के अतिलंघन को प्रकट करने वाली परिस्थितियाँ।
      • व्यापक अर्थ में: वाद लाने के लिये आवश्यक शर्तें, जिसमें अतिलंघन एवं अधिकार दोनों निहित हैं।
    • निर्णय में सिद्ध किये जाने हेतु आवश्यक तथ्यों (जो वाद हेतुक बनते हैं) तथा उन तथ्यों को सिद्ध करने के लिये आवश्यक साक्ष्यों (जो वाद हेतुक का हिस्सा नहीं हैं) के बीच भी अंतर किया गया।
  • गुरदित सिंह बनाम मुंशा सिंह (1977)
    • इस मामले में वाद हेतुक के दो निर्वचनों पर बल दिया गया:
      • सीमित दृष्टिकोण: किसी अधिकार के अतिलंघन या आधार को दर्शाने वाले तथ्य।
      • व्यापक दृष्टिकोण: तथ्यों का वह पूरा समूह जिसे वादी को सफल होने के लिये सिद्ध करना होगा।