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आपराधिक कानून

सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय जाँच ब्यूरो, 10 SCC 51 (2022)

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 20-Jun-2024

परिचय:

यह मामला अधिकारियों द्वारा जाँच के दौरान गिरफ्तारी की वैधता एवं आपराधिक विधि के अंतर्गत ज़मानत प्रावधानों की व्याख्या से संबंधित है।

तथ्य:

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) द्वारा जाँच की गई थी, जिसके लिये CBI द्वारा न्यायालय में आरोप-पत्र दायर किया गया था।
    • जाँच के दौरान और आरोपियों के विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल करने के बाद कोई गिरफ्तारी नहीं की गई।
  • न्यायालय ने आरोप-पत्र को संज्ञान में लिया तथा याचिकाकर्त्ता को न्यायालय में उपस्थित होने के लिये सम्मन जारी किया।
  • हालाँकि, याचिकाकर्त्ता ने अग्रिम ज़मानत की अर्जी दायर की और न्यायालय में पेश नहीं हुआ।
    • न्यायालय ने आवेदन को अवीकर कर दिया तथा याचिकाकर्त्ता के अनुपस्थित रहने पर उसके विरुद्ध गैर-ज़मानती वारंट जारी किया।
    • न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता से गिरफ्तारी के डर एवं उसकी अनुपस्थिति के कारण के विषय में भी पूछा, जिसके लिये उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश राज्य में यह एक सामान्य प्रवृत्ति है कि आरोप-पत्र दाखिल होने के उपरांत व्यक्ति को उसकी उपस्थिति के दिन ही गिरफ्तार कर लिया जाता है, भले ही उसे जाँच के दौरान गिरफ्तार न किया गया हो।
  • न्यायालय ने यह तर्क सुनने के उपरांत दिशा-निर्देश स्पष्ट किये तथा उन अपराधों को वर्गीकृत किया जिनमें गिरफ्तारी की जानी है, साथ ही उन मामलों को भी वर्गीकृत किया जिनमें जाँच के दौरान गिरफ्तारी नहीं की जा सकती।

शामिल मुद्दे:

  • क्या जाँच के दौरान तथा आरोप-पत्र दाखिल करने से पूर्व या उपरांत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी वैध है अथवा नहीं?

टिप्पणियाँ:

  • न्यायालय ने कहा कि प्राधिकारियों द्वारा गिरफ्तारी से संबंधित आपराधिक विधि के विभिन्न प्रावधानों की, कभी जाँच के दौरान तथा कभी-कभी आरोप-पत्र दाखिल करने के उपरांत गलत व्याख्या की गई है।
  • इस प्रकार के चलनों के कारण किसी व्यक्ति को सज़ा सुनाए बिना ही अभिरक्षा में ले लिया जाता है, जो भारत के संविधान के अंतर्गत प्रदत्त स्वतंत्रता के अधिकार के विरुद्ध है तथा इसके परिणामस्वरूप कुछ मामलों में निर्दोष लोगों की गिरफ्तारी भी होती है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि न्यायालयों, प्राधिकारियों एवं पुलिस अधिकारियों से कुछ उत्तरदायित्वों की अपेक्षा की जाती है, ताकि वे निर्दोषता की अवधारणा का पालन करें, जिसका तात्पर्य यह है कि दोषी सिद्ध होने तक किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता है।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि मनमाने ढंग से की जाने वाली गिरफ्तारी से व्यक्तियों की सुरक्षा एवं स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की सुरक्षा के लिये प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का अनुप्रयोग और संवैधानिक प्रावधानों की उचित व्याख्या आवश्यक है।
  • न्यायालय ने विभिन्न मामलों और ऐतिहासिक निर्णयों का उदाहरण देते हुए ज़मानत से संबंधित विभिन्न शब्दों जैसे ट्रायल तथा ज़मानत तथा संहिता की धारा 41, धारा 41A, धारा 167, धारा 170 आदि की व्यापक व्याख्या की।
  • न्यायालय ने विभिन्न अपराधों को भी वर्गीकृत किया जिनमें गिरफ्तारी नहीं की जा सकती।
  • न्यायालय ने धारा 41 और धारा 41A की व्याख्या के आधार पर दिशा-निर्देश जारी करके तथा ज़मानत से संबंधित मामलों में केंद्र और राज्य सरकारों के कर्त्तव्यों पर प्रकाश डालते हुए मामले का समापन किया।
  • प्राधिकारियों एवं न्यायालयों द्वारा इन सभी दिशा-निर्देशों का अनुपालन अनिवार्य है।
  • न्यायालयों एवं प्राधिकारियों को किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी करते समय, उसे अभिरक्षा में लेने से संबंधित निर्णय देते समय तथा ज़मानत आवेदन अस्वीकार करते समय इन दिशा-निर्देशों पर विचार करना चाहिये।

निष्कर्ष:

  • न्यायालय ने विशेष अनुमति याचिका स्वीकार कर ली और “जेल एक अपवाद है एवं ज़मानत एक अधिकार है” की अवधारणा को लागू करने का प्रयास किया।