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नवीनतम निर्णय
सितंबर 2024
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छबि कर्माकर एवं अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य
Chabi Karmakar & Ors. v. State of West Bengal
निर्णय की तिथि/आदेश– 29.08.2024 पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति सुधांशु धुलिया एवं जे.बी. पारदीवाला |
मामला संक्षेप में:
- सोनाली कर्माकर एवं समीर कर्माकर (अपीलकर्त्ता संख्या 2) का विवाह मार्च 2003 में हुआ था तथा 4 सितंबर, 2004 को वे एक बेटे के माता पिता बने।
- 2 मई, 2006 को सोनाली ने अपने ससुराल में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
- 7 मई, 2006 को सोनाली के भाई ने दहेज की मांग को लेकर उसके ससुराल वालों पर उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए एक प्राथमिकी दर्ज कराई थी।
- ट्रायल कोर्ट ने भाभी (अपीलकर्त्ता संख्या 1), पति (अपीलकर्त्ता संख्या 2) एवं सास को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 498A, 304B एवं 306 के साथ धारा 34 के अधीन दोषी ठहराया।
- उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ताओं की दोषसिद्धि एवं सजा दोनों को यथावत रखा।
- अपील के लंबित रहने के दौरान, सास (अपीलकर्त्ता संख्या 3) का निधन हो गया, तथा उसके विरुद्ध मामला समाप्त हो गया।
निर्णय:
- उच्चतम न्यायालय ने दहेज के लिये कारित क्रूरता एवं उत्पीड़न को गठित करने वाले अपर्याप्त साक्ष्य के कारण सभी अपीलकर्त्ताओं के लिये धारा 304 बी (दहेज हत्या) के तहत दोषसिद्धि को रद्द कर दिया।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता संख्या 1 (भाभी) को सभी आरोपों से दोषमुक्त कर दिया, क्योंकि अपराध में उसकी संलिप्तता का कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं मिला।
- न्यायालय ने IPC की धारा 306 (आत्महत्या का दुष्प्रेरण) एवं 498 A (क्रूरता) के अंतर्गत अपीलकर्त्ता संख्या 2 (पति) की दोषसिद्धि को यथावत रखा।
- न्यायालय ने माना कि विवाह के सात वर्ष के अंदर मृतक की अप्राकृतिक मृत्यु, वैवाहिक घर में घटित होना, IPC की धारा 304B एवं 498A के अधीन दोषसिद्धि सुनिश्चित करने के लिये अपर्याप्त है।
- अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करना होगा कि मृतक को उसकी मृत्यु से कुछ समय पहले दहेज की मांग से संबंधित क्रूरता का सामना करना पड़ा था।
- न्यायालय ने कहा कि ट्रायल कोर्ट एवं उच्च न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1982 की धारा 113B के अधीन दहेज हत्या की धारणा के निर्वचन में एक त्रुटि की।
- अपीलकर्त्ता संख्या 2 को प्रत्येक मामले में तीन वर्ष के कठोर कारावास एवं 25,000 रुपये का अर्थदण्ड की सजा दी, जिसमे सभी सजाएँ एक साथ चलेंगी।
प्रासंगिक प्रावधान:
भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 304 B दहेज हत्या से संबंधित है।
(1) जहाँ किसी महिला की मृत्यु किसी जलने या शारीरिक चोट के कारण होती है या उसके विवाह के सात वर्ष के अंदर सामान्य परिस्थितियों से भिन्न होती है तथा यह परिलक्षित होता है कि उसकी मृत्यु से ठीक पहले उसके पति या उसके पति के किसी रिश्तेदार द्वारा दहेज की मांग के लिये या उसके संबंध में उसके साथ क्रूरता या उत्पीड़न किया गया था, ऐसी मृत्यु को "दहेज मृत्यु" कहा जाएगा तथा ऐसे पति या रिश्तेदार को उसकी मृत्यु का कारण माना जाएगा।
(2) जो कोई दहेज मृत्यु का अपराध कारित करेगा, उसे कम से कम सात वर्ष के कारावास से दण्डित किया जाएगा, किन्तु जो आजीवन कारावास तक हो सकेगा।
मणिलाल बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य
Manilal v. State of Rajasthan & Ors
निर्णय की तिथि/आदेश– 10.09.2024 पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना–न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं के.वी. विश्वनाथन |
मामला संक्षेप में:
- 11 सितंबर 2017 को राजस्थान सरकार ने अनुसूचित क्षेत्र (TSP) में शिक्षक ग्रेड III लेवल II के पद के लिये विज्ञापन जारी किया।
- अधिसूचना में न्यूनतम 45% अंकों के साथ स्नातक एवं एक वर्षीय शिक्षा स्नातक (बी.एड) की योग्यता निर्धारित की गई थी।
- जिन अभ्यर्थियों ने 31 अगस्त, 2009 के बाद बी.एड कोर्स में प्रवेश लिया था, उन्हें स्नातक स्तर पर न्यूनतम 50 प्रतिशत अंक प्राप्त करना आवश्यक था।
- अपीलकर्त्ता, जिसने 23 अक्टूबर, 2009 को बी.एड. में प्रवेश लिया था, को स्नातक में 50% अंक की अर्हता पूरी न करने के कारण नियुक्ति देने से मना कर दिया गया।
- अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि उसी बैच के अन्य अभ्यर्थियों को, जिन्हें कट-ऑफ तिथि से पहले बी.एड. में प्रवेश दिया गया था, 50% की अर्हता के बिना नियुक्ति दी गई।
- अपीलकर्त्ता की रिट याचिका एवं उसके बाद की अपील को उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।
निर्णय:
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि एक ही शैक्षणिक सत्र में एक ही पाठ्यक्रम में प्रवेश की तिथि के आधार पर अभ्यर्थियों के एक समरूप वर्ग के बीच भेदभाव नहीं किया जा सकता।
- न्यायालय ने कहा कि शैक्षणिक सत्र 2009-10 के लिये प्रवेश पाने वाले छात्रों के एक समरूप समूह के बीच आपस में भेदभाव करना अनुचित होगा।
- न्यायालय ने राजस्थान राज्य बनाम अंकुल सिंघल, 2021 में राजस्थान उच्च न्यायालय के निर्णय पर विश्वास किया, जिसे उच्चतम न्यायालय ने स्वीकृति दी थी।
- न्यायालय ने 13 नवंबर, 2019 की NCTE अधिसूचना पर ध्यान दिया, जिसमें कहा गया था कि स्नातक में अंकों का न्यूनतम प्रतिशत उन लोगों पर लागू नहीं होगा, जिन्होंने 29 जुलाई, 2011 से पहले बी.एड में प्रवेश लिया था।
- न्यायालय ने उच्च न्यायालय के विवादित निर्णय को खारिज कर दिया तथा अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे अपीलकर्त्ता की नियुक्ति को नियमित मानें।
- न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को परिणामी लाभों के साथ बहाल करने का आदेश दिया, जिसमें कार्य न किये गए समय के लिये पिछला वेतन शामिल नहीं होगा, लेकिन वेतन निर्धारण शामिल होगा।
प्रासंगिक प्रावधान:
- भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समानता से संबंधित है।
- राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
मुबारक अली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य
Mubarak Ali v. State of Uttar Pradesh
निर्णय की तिथि/आदेश– 05.09.2024 पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना–न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय एवं न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया |
मामला संक्षेप में:
- आरोपी के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 304B के अधीन मामला दर्ज किया गया था।
- 1 दिसंबर 2017 को गिरफ्तार होने के बाद से वह अभिरक्षा में था।
- इस प्रकार, वह 7 वर्ष से लगातार अभिरक्षा में था।
- इस मामले में आरोपी ने जमानत के लिये आवेदन किया।
निर्णय
- न्यायालय ने माना कि सात वर्षों की लम्बी अवधि तक लगातार अभिरक्षा में रखने से भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत शीघ्र सुनवाई के अधिकार का हनन होगा।
- न्यायालय ने कहा कि चूंकि राज्य अभियोजन के वाद का शीघ्र निष्कर्ष सुनिश्चित करने में विफल रहा है, इसलिये याचिकाकर्त्ता द्वारा जमानत दिये जाने का मामला बनता है, जो अपनी पत्नी की मृत्यु के सिलसिले में जेल में बंद है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने आरोपी को जमानत पर रिहा कर दिया।
प्रासंगिक प्रावधान:
- भारतीय संविधान, 1950 – अनुच्छेद 21 – किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
सी.एन. शांता कुमार बनाम एम.एस. श्रीनिवास
CN Shantha Kumar v. MS Srinivas
निर्णय की तिथि– 05.09.2024 पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय एवं न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भाटी |
मामला संक्षेप में:
- इस मामले में परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NIA) की धारा 138 के अंतर्गत कार्यवाही की गई तथा ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराया।
- अपील में ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलट दिया गया एवं आरोपी को दोषमुक्त कर दिया गया।
- उच्च न्यायालय के समक्ष पुनरीक्षण के लिये एक याचिका दायर की गई थी जिसमें उच्च न्यायालय ने अपीलीय न्यायालय के दोषमुक्त करने के निर्णय को पलट दिया तथा अपीलकर्त्ता को दोषी ठहराने का आदेश दिया।
- यह उपरोक्त निष्कर्ष है जिसे इस मामले में उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई है।
निर्णय:
- न्यायालय ने कहा कि धारा 401(3) में स्पष्ट रूप से यह प्रावधानित किया गया है कि उच्च न्यायालय के पास पुनरीक्षण की शक्ति का प्रयोग करते हुए दोषमुक्ति के निष्कर्ष को दोषसिद्धि में बदलने का अधिकार नहीं है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय का निर्णय टिकने योग्य नहीं है।
- यदि उच्च न्यायालय को दोषपूर्ण तरीके से दोषमुक्ति के विषय में विश्वास था, तो पुनरीक्षण में उच्च न्यायालय दोषसिद्धि का आदेश नहीं दे सकता था।
प्रासंगिक प्रावधान:
- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973- धारा 401 (3): इस धारा का कोई प्रावधान उच्च न्यायालय को दोषमुक्ति के निर्णय को दोषसिद्धि में परिवर्तित करने के लिये प्राधिकृत करने वाली नहीं माना जाएगा।
विधिक प्रतिनिधि के द्वारा ईश्वर (मृत) एवं अन्य बनाम भीम सिंह एवं अन्य
Ishwar (Since Deceased) Thr. Lrs and Ors. v. Bhim Singh and Anr.
निर्णय की तिथि/आदेश– 03.09.2024 पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
मामला संक्षेप में:
- 18 मई 2005 को दोनों पक्षों ने एक विक्रय करार किया।
- विवादित संपत्ति के लिये कुल प्रतिफल 18 लाख रुपये निर्धारित किया गया।
- प्रतिवादियों (क्रेता) ने अपीलकर्त्ताओं (विक्रेताओं) को 9.77 लाख रुपये का अग्रिम भुगतान किया।
- बिक्री विलेख के पालन हेतु प्रेषित नोटिस प्राप्त करने के बावजूद, अपीलकर्त्ता इसका पालन करने में विफल रहे।
- प्रतिवादियों ने बिक्री हेतु किये गए करार को लागू करने हेतु अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध विनिर्दिष्ट पालन के लिये वाद संस्थित किया।
- प्रारंभिक न्यायालय के निर्णय के बाद, प्रतिवादियों ने करार के विनिर्दिष्ट पालन की मांग करते हुए अपील दायर की।
- अपीलीय न्यायालय के निर्णय के बाद, प्रतिवादियों ने 20 मार्च 2012 को एक पालन हेतु आवेदन संस्थित किया, जिसमें बिक्री विलेख के पालन एवं पंजीकरण की मांग की गई।
- जब पालन आवेदन लंबित था, तब अपीलकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय के समक्ष द्वितीय अपील दायर करके अपीलीय न्यायालय के निर्णय को चुनौती दी।
- द्वितीय अपील खारिज होने के बाद, प्रतिवादियों ने 24 मार्च 2014 को पालन न्यायालय के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिसमें शेष राशि जमा करने की अनुमति मांगी गई।
- इस आवेदन का विरोध करते हुए अपीलकर्त्ताओं ने विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 28 के अंतर्गत एक आवेदन प्रस्तुत किया, जिसमें इस आधार पर संविदा को रद्द करने की मांग की गई कि डिक्री धारक निर्धारित दो महीने की अवधि के अंदर जमा करने में विफल रहे।
- न्यायालय के समक्ष दो मुद्दे हैं:
- क्या न्यायालय को आवेदन पर विचार करने का अधिकार था?
(a) संविदा का निरसन और
(b) शेष बिक्री राशि जमा करने के लिये समय विस्तार? - यदि पालन हेतु आवेदन का विचारण न्यायालय के पास क्षेत्राधिकार होता तो क्या उन आवेदनों पर वाद (अर्थात मूल पक्ष) में एक के रूप में निर्णय लिया जाना चाहिये था?
- यदि हाँ, तो क्या मामले के तथ्यों के आधार पर, केवल उसी आधार पर, आरोपित आदेश भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत अधिकारिता के प्रयोग में हस्तक्षेप का आधार बनता है।
- क्या न्यायालय को आवेदन पर विचार करने का अधिकार था?
निर्णय:
- उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 की धारा 28 के अंतर्गत संविदा के निरसन या समय विस्तार की मांग करने वाले आवेदन पर उस मूल वाद में निर्णय लिया जाना चाहिये, जहाँ डिक्री पारित की गई थी, न कि पालन हेतु कार्यवाही में।
- न्यायालय ने कहा कि अधिनियम 1963 की धारा 28 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति "उसी वाद में लागू हो सकती है जिसमें डिक्री दी गई है" को प्रथम दृष्टया न्यायालय को शामिल करने के लिये व्यापक निर्वचन किया जाना चाहिये, भले ही पालन के अंतर्गत डिक्री अपीलीय न्यायालय द्वारा पारित की गई हो।
- न्यायालय ने कहा कि अधिनियम 1963 की धारा 28 के अंतर्गत एक पालन हेतु आवेदन न्यायालय द्वारा विचार किया जा सकता है तथा उस पर निर्णय दिया जा सकता है, हालाँकि यह वह न्यायालय हो जिसने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 37 के अनुसार डिक्री पारित की हो।
- न्यायालय ने दोहराया कि 1963 अधिनियम की धारा 28 के अंतर्गत संविदा को निरसित करने की शक्ति विवेकाधीन प्रकृति की है तथा इसका प्रयोग पक्षों के साथ पूर्ण न्याय करने के लिये किया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने कहा कि पालन हेतु आवेदन न्यायालय के पास समय परिवर्द्धित करने की शक्ति समाप्त नहीं होती है, भले ही डिक्री में एक निश्चित तिथि तक शेष मूल्य का भुगतान करने का निर्देश दिया गया हो।
- न्यायालय ने कहा कि धारा 28 के अंतर्गत विवेक का प्रयोग करते समय न्यायालय को यह विचार करना चाहिये कि क्या चूक जानबूझकर की गई थी या विलंब के लिये कोई वास्तविक कारण था।
- न्यायालय ने कहा कि यदि ऐसा प्रतीत होता है कि डिक्री धारक की ओर से कोई चूक नहीं है, तो न्यायालय संविदा को रद्द करने से मना कर सकता है तथा क्षति के कारण हुई राशि जमा करने के लिये समय परिवर्द्धित कर सकता है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत उसका अधिकारिता विवेकाधीन है तथा इसका प्रयोग न्याय के लिये किया जाना चाहिये, न कि केवल इसलिये कि ऐसा करना वैध है।
- न्यायालय ने कहा कि पूर्ण न्याय करने के उद्देश्य से, वह किसी आदेश में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, भले ही उसमें कोई विधिक त्रुटि हो।
- न्यायालय ने कहा कि इस मामले में पक्षकारों के साथ पर्याप्त न्याय किया जा चुका है तथा तकनीकी आधार पर आदेश में हस्तक्षेप करने से डिक्री धारकों के साथ घोर अन्याय होगा।
प्रासंगिक प्रावधान:
विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम (SRA):
धारा 28: अचल संपत्ति की बिक्री या पट्टे के लिये संविदाों का कुछ परिस्थितियों में निरसन, जिसके विनिर्दिष्ट पालन का आदेश दिया गया है-(1) जहाँ किसी वाद में स्थावर संपत्ति के विक्रय या पट्टे के लिये संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये डिक्री की गई है तथा क्रेता या पट्टेदार डिक्री द्वारा अनुज्ञात अवधि के अंदर या न्यायालय द्वारा अनुज्ञात अतिरिक्त अवधि के अंदर क्रय धन या अन्य राशि, जिसका भुगतान करने का आदेश न्यायालय ने उसे दिया है, नहीं देता है, वहाँ विक्रेता या पट्टाकर्त्ता उसी वाद में, जिसमें डिक्री की गई है, संविदा को विखंडित करने के लिये आवेदन कर सकेगा तथा ऐसे आवेदन पर न्यायालय आदेश द्वारा संविदा को या तो जहाँ तक व्यतिक्रम करने वाले पक्षकार का संबंध है या पूरी तरह से विखंडित कर सकेगा, जैसा मामले के न्याय की अपेक्षा हो।
(2) जहाँ कोई संविदा उपधारा (1) के अधीन विखंडित कर दी जाती है, वहाँ न्यायालय-
(a) क्रेता या पट्टेदार को, यदि उसने संविदा के अंतर्गत संपत्ति का कब्जा प्राप्त कर लिया है, तो विक्रेता या पट्टाकर्त्ता को ऐसा कब्जा वापस करने का निर्देश देगा, और
(b) क्रेता या पट्टेदार द्वारा कब्जा प्राप्त किये जाने की तिथि से लेकर विक्रेता या पट्टाकर्त्ता को कब्जा वापस किये जाने तक संपत्ति के संबंध में अर्जित सभी किराए एवं लाभों का विक्रेता या पट्टाकर्त्ता को भुगतान करने का निर्देश दे सकता है, तथा यदि मामले का न्याय अपेक्षित हो तो संविदा के संबंध में क्रेता या पट्टेदार द्वारा बयाना राशि या जमा के रूप में दी गई किसी राशि को वापस करने का निर्देश दे सकता है।
(3) यदि क्रेता या पट्टेदार क्रय धन या अन्य राशि, जिसका भुगतान करने का उसे डिक्री के अधीन आदेश दिया गया है, उपधारा (1) में निर्दिष्ट अवधि के अंदर दे देता है, तो न्यायालय उसी वाद में किये गए आवेदन पर क्रेता या पट्टेदार को ऐसा अतिरिक्त अनुतोष प्रदान कर सकता है, जिसका वह अधिकारी हो, जिसके अंतर्गत समुचित मामलों में निम्नलिखित सभी या कोई अनुतोष सम्मिलित हैं, अर्थात:
(a) विक्रेता या पट्टाकर्त्ता द्वारा उचित अंतरण या पट्टे का पालन;
(b) ऐसे अंतरण या पट्टे के पालन पर संपत्ति का कब्जा, या विभाजन एवं पृथक कब्जा दिया जाना।
(4) इस धारा के अधीन दावा किये जा सकने वाले किसी भी अनुतोष के संबंध में कोई भी पृथक वाद विक्रेता, क्रेता, पट्टाकर्त्ता या पट्टेदार, जैसी भी स्थिति हो, के कहने पर नहीं लाया जाएगा।
(5) इस धारा के अधीन किसी भी कार्यवाही की लागत न्यायालय के विवेक पर होगी।
सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC)
धारा 37: डिक्री पारित करने वाले न्यायालय की परिभाषा-
"न्यायालय जिसने डिक्री पारित की" या उस प्रभाव के शब्दों में, डिक्री के पालन के संबंध में, जब तक कि विषय या संदर्भ में कोई प्रतिकूल तथ्य न हो, निम्नलिखित शामिल माने जाएंगे, -
(a) जहाँ पालन की जाने वाली डिक्री अपीलीय अधिकारिता के प्रयोग में पारित की गई है, वहाँ प्रथम दृष्टया न्यायालय, और
(b) जहाँ प्रथम न्यायालय अस्तित्व में नहीं रह गया है या उसे डिक्री पालन करने की अधिकारिता नहीं रही है, वहाँ वह न्यायालय, जिसे, यदि वह वाद, जिसमें डिक्री पारित की गई थी, डिक्री के पालन के लिये आवेदन करने के समय संस्थित किया गया था, ऐसे वाद का विचारण करने की अधिकारिता होगी।
स्पष्टीकरण--प्रथम न्यायालय को डिक्री पालन करने की अधिकारिता केवल इस आधार पर समाप्त नहीं हो जाती कि उस वाद के संस्थित करने के पश्चात् जिसमें डिक्री पारित की गई थी या डिक्री पारित करने के पश्चात् कोई क्षेत्र उस न्यायालय की अधिकारिता से किसी अन्य न्यायालय की अधिकारिता में अंतरित हो गया है; किन्तु प्रत्येक ऐसे मामले में ऐसे अन्य न्यायालय को डिक्री पालन करने की भी अधिकारिता होगी, यदि डिक्री के पालन के लिये आवेदन करते समय उसे उक्त वाद का विचारण करने की अधिकारिता होती।
नित्या नंद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य
Nitya Nand v. State of U.P. & Anr
निर्णय की तिथि/आदेश – 04.09.2024 पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना–न्यायमूर्ति अभय एस. ओका एवं न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ |
मामला संक्षेप में:
- सूचक सरवन कुमार ने थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराई थी, जिसमें उसने उल्लेख किया था कि 8 सितंबर 1992 को जब वह, उसके पिता (सत्य नारायण) एवं चाचा अपनी दैनिक दिनचर्या के अनुसार स्नान के लिये गंगा घाट पर आए तो यह घटना घटी।
- श्रीदेव तथा उसके चार बेटे मुन्ना लाल, राजू, नित्या नंद एवं उच्चव उर्फ पप्पू कंटा, चाकू तथा देशी पिस्तौल से लैस होकर सत्य नारायण से भिड़ गए।
- आरोपियों ने सत्य नारायण को पकड़ लिया तथा उसके साथ मारपीट करने लगे।
- उसके पिता की चीख पुकार सुनकर सूचक सरवन कुमार व अन्य लोग उसे बचाने आए।
- तभी नित्या नंद ने देशी पिस्तौल से गोली चला दी, जिसके बाद सभी आरोपी भाग निकले।
- जब सूचना प्रदाता मौके पर पहुँचे तो सत्य नारायण (सूचक के पिता) की मृत्यु हो चुकी थी।
- विवेचना पूरी होने पर आरोपियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 147 एवं धारा 302 के साथ शमनीय धारा 149 के अधीन आरोप तय किये गए।
- ट्रायल कोर्ट ने आरोपी श्री देव, मुन्ना लाल, राजू एवं उच्चव उर्फ पप्पू को IPC की धारा 148 एवं धारा 302 के साथ शमनीय धारा 149 के अधीन दोषसिद्धि दी।
- उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई। उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि को यथावत रखते हुए अपील खारिज कर दी।
- परिणामस्वरूप, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की दोषसिद्धि के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
निर्णय:
- न्यायालय के समक्ष विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या अभियोजन पक्ष सत्य नारायण की हत्या में अपीलकर्ता की दोषसिद्धि को उचित संदेह से परे सिद्ध कर सकता है।
- अपीलकर्ता पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 148 एवं धारा 149 के अधीन आरोप लगाया गया था।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 में प्रावधान है कि विधि विरुद्ध जमाव का प्रत्येक सदस्य समान उद्देश्य की पूर्ति के लिये किये गए अपराध का दोषी होगा।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 149 में यह प्रावधान है कि यदि किसी विधिविरुद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा उस जमाव के सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिये कोई अपराध किया जाता है, या ऐसा अपराध किया जाता है, जिसके विषय में उस जमाव के सदस्यों को पता था कि उस उद्देश्य की पूर्ति के लिये ऐसा अपराध किया जाना सम्भाव्य है, तो प्रत्येक व्यक्ति, जो उस अपराध के किये जाने के समय उक्त जमाव का सदस्य है, उस अपराध का दोषी होगा।
- इस प्रकार, यदि यह हत्या का मामला है तो विधिविरुद्ध जमाव का प्रत्येक सदस्य IPC की धारा 302 के अधीन अपराध करने का दोषी होगा।
- इस प्रकार, जिस प्रश्न का उत्तर दिया जाना आवश्यक है वह यह है कि क्या अभियुक्त विधिविरुद्ध जमाव का सदस्य था, न कि यह कि उसने वास्तव में अपराध में भाग लिया था या नहीं।
- न्यायालय ने माना कि जैसा कि यूनिस उर्फ करिया बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2002) में माना गया था, जब आरोप IPC की धारा 149 के अधीन हो तो किसी व्यक्ति विशेष पर कोई प्रत्यक्ष कार्य आरोपित करने की आवश्यकता नहीं है।
- अभियुक्त की विधिविरुद्ध जमाव में उपस्थिति ही दोषसिद्धि के लिये पर्याप्त है।
- इसलिये, उच्चतम न्यायायल ने माना कि ट्रायल कोर्ट द्वारा IPC की धारा 149 के साथ धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि की पुष्टि करना न्यायोचित था।
प्रासंगिक प्रावधान:
धारा 189: भारतीय न्याय संहिता, 2023 (BNS) के अधीन विधिविरुद्ध जमाव
(1) पाँच या उससे अधिक व्यक्तियों का जमाव “विधि-विरुद्ध जमाव” कहलाता है, यदि उस जमावड़े में शामिल व्यक्तियों का सामान्य उद्देश्य यह हो कि-
(a) केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार या संसद या किसी राज्य के विधानमंडल या किसी लोक सेवक को, जो ऐसे लोक सेवक की विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा हो, आपराधिक बल या आपराधिक बल के प्रदर्शन से भयभीत करना; या
(b) कोई विधान या किसी विधिक आदेश के क्रियान्वयन का विरोध करना; या
(c) कोई शरारत या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध कारित करना; या
(d) किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल या आपराधिक बल के प्रदर्शन के माध्यम से किसी संपत्ति पर कब्जा करना या प्राप्त करना, या किसी व्यक्ति को रास्ते के अधिकार या पानी के उपयोग या अन्य अमूर्त अधिकार के आनंद से वंचित करना, जिसका वह कब्जे या सुखाधिकार में है, या किसी अधिकार या कथित अधिकार को लागू करना; या
(e) आपराधिक बल या आपराधिक बल के प्रदर्शन के माध्यम से किसी व्यक्ति को ऐसा करने के लिये विवश करना जिसे करने के लिये वह विधिक रूप से बाध्य नहीं है, या ऐसा करने से चूकना जिसे करने का वह विधिक रूप से अधिकारी है।
स्पष्टीकरण- कोई जमाव जो एकत्रित होने के समय विधिविरुद्ध नहीं थी, बाद में विधिविरुद्ध जमाव बन सकती है।
(2) जो कोई ऐसे तथ्यों से अवगत होते हुए, जो किसी जमाव को विधिविरुद्ध जमाव बनाते हैं, साशय उस जमाव में सम्मिलित होगा या उसमें बना रहेगा, वह विधिविरुद्ध जमाव का सदस्य कहा जाएगा तथा ऐसा सदस्य दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि छह मास तक की हो सकेगी, या अर्थदण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
(3) जो कोई किसी विधिविरुद्ध जमाव में सम्मिलित होता है या उसमें बना रहता है, यह जानते हुए कि ऐसे विधिविरुद्ध जमाव को विधि द्वारा विहित रीति से तितर-बितर होने का आदेश दिया गया है, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या अर्थदण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा। टकसाल में नियोजित व्यक्ति द्वारा विधि द्वारा निर्धारित भार या संरचना से भिन्न भार या संरचना का सिक्का बनाना। टकसाल से सिक्का बनाने के उपकरण को विधिविरुद्ध रूप से लेना। विधिविरुद्ध जमाव।
(4) जो कोई किसी घातक हथियार से या किसी ऐसी चीज से, जिसका प्रयोग अपराध के हथियार के रूप में करने से मृत्यु हो जाना सम्भव है, सज्जित होते हुए विधिविरुद्ध जमाव का सदस्य होगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या अर्थदण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
(5) जो कोई पाँच या उससे अधिक व्यक्तियों के किसी ऐसे जमावड़े में जानबूझकर शामिल होगा या शामिल रहेगा, जिससे लोक शांति में विघ्न पड़ने की संभावना है, उसके पश्चात् जब ऐसे जमावड़े को तितर-बितर हो जाने का वैध आदेश दे दिया गया है, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से, जिसे छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है, या अर्थदण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
स्पष्टीकरण.- यदि वह जमावड़ा उपधारा (1) के अर्थ में विधिविरुद्ध जमावड़ा है, तो अपराधी उपधारा (3) के अधीन दण्डनीय होगा।
(6) जो कोई किसी व्यक्ति को किसी विधिविरुद्ध जमाव में सम्मिलित होने या उसका सदस्य बनने के लिये भाड़े पर लेता है, नियुक्त करता है या नियोजित करता है, या नियुक्त करने, नियुक्त करने या नियोजन में बढ़ावा देता है या उसकी संलिप्तता है, वह ऐसे विधिविरुद्ध जमाव के सदस्य के रूप में, तथा ऐसे किसी अपराध के लिये, जो ऐसे विधिविरुद्ध जमाव के सदस्य के रूप में ऐसे व्यक्ति द्वारा ऐसे भाड़े पर लेने, नियुक्त करने या नियोजन के अनुसरण में किया जा सकता है, उसी प्रकार दण्डनीय होगा, मानो वह ऐसे विधिविरुद्ध जमाव का सदस्य रहा हो, या उसने स्वयं ऐसा अपराध किया हो।
(7) जो कोई अपने अधिभोग या प्रभार में, या अपने नियंत्रण के अधीन किसी घर या परिसर में किसी व्यक्ति को यह जानते हुए आश्रय देगा, प्राप्त करेगा या एकत्र करेगा कि ऐसे व्यक्ति किसी विधिविरुद्ध जमावड़े में शामिल होने या उसका सदस्य बनने के लिये भाड़े पर लिये गए हैं, नियुक्त किये गए हैं या नियुक्त किये जाने वाले हैं, तो उसे किसी एक अवधि के लिये कारावास से, जिसे छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है, या अर्थदण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
(8) जो कोई उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट किसी कार्य को करने या करने में सहायता करने के लिये नियोजित किया जाता है, या भाड़े पर लिया जाता है, या भाड़े पर लिये जाने या भाड़े पर लिये जाने की प्रस्ताव देता है या प्रयास करता है, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि छह मास तक की हो सकेगी, या अर्थदण्ड से, या दोनों से,दण्डित किया जाएगा।
(9) जो कोई उपधारा (8) में निर्दिष्ट रूप में नियोजित या किराये पर लिया हुआ है, किसी घातक हथियार के साथ या किसी ऐसी चीज के साथ, जिसका उपयोग अपराध के हथियार के रूप में करने से मृत्यु होने की संभावना है, सशस्त्र होकर जाएगा या सशस्त्र होकर जाने की प्रस्थापना करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, या अर्थदण्ड से, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।