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नवीनतम निर्णय

मई 2024

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 20-Jun-2024

 राजेंद्र पुत्र रामदास कोल्हे बनाम महाराष्ट्र राज्य

Rajendra S/O Ramdas Kolhe v. State of Maharashtra

निर्णय की तिथि/आदेश– 15.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायाधीश उज्जवल भुयान एवं न्यायाधीश अभय एस. ओका

मामला संक्षेप में:

  • रेखा (पीड़िता) अंबाजोगाई में रहने वाली पुलिस कांस्टेबल थी। उसका पति राजेंद्र (अपीलकर्त्ता) सेना में था और घर आया हुआ था।
  • अभियोजन पक्ष का मामला यह है कि पीड़िता को अपीलकर्त्ता एवं उसके भाई और उसके अन्य ससुराल वालों द्वारा क्रूरता का सामना करना पड़ा।
  • उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन पीड़िता को उसके पति राजेंद्र एवं देवर सुरेश ने पीटा। उन्होंने उसके हाथ गमछे से और पैर तौलिये से बाँध दिये। फिर पति ने उसका मुँह बंद कर दिया। पति ने उसके शरीर पर मिट्टी का तेल डाला और माचिस जला दी। इस प्रक्रिया में वह पूरी तरह जल गई।
  • पड़ोसी उसे अस्पताल ले गए, जहाँ उसका मृत्युकालिक कथन लिया गया, जिसके आधार पर अंबजोगाई पुलिस स्टेशन ने भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 307, 498 A, 342, 323 एवं 504 के साथ धारा 34 के अधीन प्राथमिकी दर्ज की।
  • बाद में एक अन्य पीड़िता का बयान विशेष कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किया गया। उसकी मृत्यु के बाद FIR में धारा 302 जोड़ी गई।
  • मृतका के ससुर, सास एवं ननद के साथ अपीलकर्त्ता को भी आरोपी बनाया गया। देवर सुरेश अप्राप्तवय होने के कारण उसे किशोर न्याय बोर्ड भेज दिया गया।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता (पति) को IPC की धारा 302 के अधीन दोषसिद्धि दी गई।
  • उच्च न्यायालय में की गई अपील खारिज हो गई।
  • इसके बाद उच्चतम न्यायालय में अपील की गई।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने मृत्युकालिक कथन के साक्ष्य-मूल्य पर विधि का उल्लेख किया।
  • न्यायालय ने खुशाल राव बनाम बॉम्बे राज्य (1958) में निर्धारित मृत्युकालिक कथन से संबंधित सिद्धांतों का उल्लेख किया।
  • न्यायालय ने कहा कि न्यायालय को मृत्युकालिक कथन की सावधानीपूर्वक जाँच करनी होगी तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि यह बयान किसी के द्वारा दिये गए निर्देश, प्रेरणा या कल्पना का परिणाम नहीं है तथा मृतक बयान देने के लिये उपयुक्त स्थिति में था।
  • लेकिन एक बार जब न्यायालय को यह विश्वास हो जाता है कि मृत्युकालिक कथन सत्य एवं स्वैच्छिक है, तो वह बिना पुष्टि के इस आधार पर दोषसिद्धि का निर्णय दे सकती है।
  • न्यायालय ने कई मृत्युकालिक कथनों पर विधि का निर्वचन किया, जैसा कि पहले कई मामलों में निर्धारित किया गया था:
    • अमोल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2008) में यह माना गया कि जब एक मृत्युकालिक कथन एवं अन्य के मध्य विसंगतियाँ हों तो यह देखा जाना चाहिये कि विसंगतियाँ भौतिक हैं या नहीं।
    • लखन बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2010) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि जहाँ मृत्यु पूर्व दिये गए अनेक कथनों के मध्य विसंगतियाँ हों, वहाँ न्यायालय को तथ्यों की बहुत सावधानी से जाँच करनी होगी तथा उसके बाद निर्णय लेना होगा कि कौन-सा कथन विश्वसनीय है।
    • आशाबाई बनाम महाराष्ट्र राज्य (2013) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि जब मृत्यु पूर्व कथन कई होते हैं, तो प्रत्येक मृत्युकालिक कथन का अलग-अलग मूल्यांकन किया जाना चाहिये तथा प्रत्येक के साक्ष्य मूल्य के अनुसार स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन किया जाना चाहिये। किसी एक कथन को केवल दूसरे में कुछ भिन्नताओं के कारण अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि यद्यपि अभियोजन पक्ष के साक्षियों के बयान में विसंगतियाँ तथा सुधार हैं, फिर भी मृतका के मृत्युकालिक कथन में दिये गए कथन और डॉक्टर द्वारा दर्ज किये गए मेडिकल इतिहास के मूल में समानता है। साथ ही, उपस्थित चिकित्सक ने प्रामाणित किया है कि वह मृत्युकालिक कथन देने के लिये योग्य थी।
  • परिणामस्वरूप, उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302 के अधीन दिशा-निर्देश जारी किये।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 () की धारा 32(1)- मृत्युकालिक कथन-
    • ऐसे मामले जिनमें किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा प्रासंगिक तथ्य का कथन, जो मर चुका है या जिसे पाया नहीं जा सकता है, आदि प्रासंगिक है। किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा प्रासंगिक तथ्यों के लिखित या मौखिक कथन, जो मर चुका है, या जिसे पाया नहीं जा सकता है, या जो साक्ष्य देने में असमर्थ हो गया है, या जिसकी उपस्थिति बिना किसी विलंब या व्यय के प्राप्त नहीं की जा सकती है, जो मामले की परिस्थितियों के अनुसार न्यायालय को अनुचित प्रतीत होती है, निम्नलिखित मामलों में स्वयं प्रासंगिक तथ्य हैं:
      (1) जब वह मृत्यु के कारण से संबंधित हो। जब कथन किसी व्यक्ति द्वारा अपनी मृत्यु के कारण के बारे में या उस संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया जाता है जिसके परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हुई, ऐसे मामलों में जिनमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत होता है। ऐसे कथन सुसंगत हैं, चाहे उन्हें करने वाला व्यक्ति, उस समय जब वे किये गए थे, मृत्यु की प्रत्याशा में था या नहीं था, तथा कार्यवाही की प्रकृति चाहे जो भी हो जिसमें उसकी मृत्यु का कारण प्रश्नगत होता है।
  • भारतीय साक्षरता अधिनियम, 2023 () की धारा 26(a) इस प्रावधान को शामिल करती है।

[मूल निर्णय]


Pukhraj V. State Of Rajasthan

पुखराज बनाम राजस्थान राज्य

निर्णय/आदेश की तिथि– 14.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति मनोज मिश्र एवं न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला

मामला संक्षेप में:

  • शंभूगढ़ पुलिस स्टेशन में अपीलकर्त्ता तथा दो अन्य सह-आरोपियों पुखराज एवं राम बिश्नोई के विरुद्ध स्वापक औषधि एवं मन:प्रभावी पदार्थ अधिनियम, 1985 (NDPS) की धारा 8, 15, 25 एवं 29 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिये FIR दर्ज की गई।
  • दो सह-आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया, जबकि अपीकर्त्ता फरार हो गया।
    • अपीलकर्त्ता उस डम्पर का पंजीकृत स्वामी है, जिससे प्रतिबंधित सामान ज़ब्त किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप FIR दर्ज की गई।
    • प्रतिबंधित सामान के साथ डम्पर को भी ज़ब्त कर लिया गया।
    • अभियोजन के परिणामस्वरूप सह-आरोपी को दोषमुक्त कर दिया गया।
  • ट्रायल कोर्ट ने सह-आरोपी को दोषमुक्त करते हुए डम्पर को ज़ब्त करने एवं उसे नीलाम करने का आदेश दिया।
  • अपीलकर्त्ता का मामला यह है कि ट्रायल कोर्ट पंजीकृत स्वामी होने के नाते उसे विचारण का अवसर दिये बिना और NDPS अधिनियम की धारा 63 के प्रावधानों का पालन किये बिना डम्पर को ज़ब्त करने का आदेश नहीं दे सकता था।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि NDPS अधिनियम की धारा 63 को पढ़ने से यह स्पष्ट है कि न्यायालय ज़ब्ती की तिथि से एक माह की समाप्ति तक या उस पर किसी अधिकार का दावा करने वाले किसी व्यक्ति का विचारण किये बिना किसी वस्तु को ज़ब्त करने का आदेश नहीं दे सकता। NDPS अधिनियम की धारा 63 को ध्यान में रखते हुए न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया।

प्रासंगिक प्रावधान:

NDPS की धारा 63– ज़ब्त करने की प्रक्रिया-

(1) इस अधिनियम के अधीन अपराधों के विचारण में, चाहे अभियुक्त को दोषसिद्धि दी गई हो या दोषमुक्त किया गया हो या उन्मोचित किया गया हो, न्यायालय विनिश्चय करेगा कि इस अधिनियम के अधीन अभिगृहीत कोई वस्तु धारा 60 या धारा 61 या धारा 62 के अधीन अधिहरणीय है या नहीं तथा यदि वह विनिश्चय करता है कि वह वस्तु अधिहरणीय है तो वह तद्नुसार अधिहरण का आदेश दे सकेगा।

(2) जहाँ इस अधिनियम के अधीन अभिगृहीत कोई वस्तु या चीज़ धारा 60 या धारा 61 या धारा 62 के अधीन अधिहरणीय प्रतीत होती है, किंतु उससे संबंधित अपराध करने वाला व्यक्ति ज्ञात नहीं है या मिल नहीं सकता है, वहाँ न्यायालय ऐसे दायित्व की जाँच कर सकेगा और विनिश्चय कर सकेगा तथा तद्नुसार अधिहरण का आदेश दे सकेगा:

परंतु किसी वस्तु के अधिहरण का आदेश, अभिग्रहण की तिथि से एक मास की समाप्ति तक, या उस पर किसी अधिकार का दावा करने वाले किसी व्यक्ति का विचारण किये बिना और अपने दावे के संबंध में उसके द्वारा प्रस्तुत किये गए साक्ष्य को, यदि कोई हो, सुने बिना नहीं किया जाएगा:

परंतु यदि स्वापक औषधि, मन:प्रभावी पदार्थ [नियंत्रित पदार्थ], अफीम पोस्त, कोका पौधा या कैनबिस पौधे से भिन्न कोई ऐसी वस्तु या चीज शीघ्र एवं प्राकृतिक रूप से क्षय होने योग्य है, या यदि न्यायालय की यह राय है कि उसका विक्रय उसके स्वामी के लाभ के लिये होगा, तो वह किसी भी समय उसे विक्रय करने का निदेश दे सकेगा, तथा इस उपधारा के उपबंध, यथासंभव, विक्रय के शुद्ध आगमों पर लागू होंगे।

[मूल  निर्णय]


शेन्टो वर्गीस बनाम जुल्फिकार हुसैन एवं अन्य

Shento Varghese v. Julfikar Husen & Ors.

निर्णय/आदेश की तिथि– 13.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति अरविंद कुमार एवं न्यायमूर्ति पमिदिघनतम श्री नरसिम्हा

मामला संक्षेप में:

  • ऐसा कहा जाता है कि प्रतिवादी-आरोपी ने अपीलकर्त्ता-प्रथम सूचनाकर्त्ता, जो ‘PR गोल्ड’ नामक कंपनी में डिलीवरीमैन के रूप में काम करता था, से सैंतालीस केरल मॉडल सोने की चेन खरीदने का ऑर्डर दिया था।
  • सोने की चेन की आपूर्ति के बदले में, प्रतिवादी समान मूल्य के सोने की छड़ें प्रदान करने के लिये सहमत हुए थे।
  • शिकायत में लगाए गए आरोपों से पता चलता है कि यह लेन-देन 20.12.2022 को हुआ था। इसके तुरंत बाद, अपीलकर्त्ता को पता चला कि उसे सौंपी गई सोने की छड़ें नकली थीं।
  • इसके बाद प्राथमिकी दर्ज की गई तथा पुलिस द्वारा जाँच की गई।
  • यह पाया गया कि आरोपी संख्या-1 एवं 3 के बैंक खातों में 19,83,036 रुपए की राशि जमा की गई थी। 09 जनवरी 2023 को जाँच अधिकारी ने बैंक को पत्र लिखकर उनके बैंक खातों को फ्रीज़ करने का आदेश दिया।
  • इसके बाद प्रतिवादियों ने धारा 482 CrPC के अधीन एक मूल याचिका दायर करके उच्च न्यायालय में अपील किया तथा बैंक खातों को फ्रीज़ करने की मांग की।
  • उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी-आरोपी के बैंक खातों को पुनः फ्रीज़ करने के आवेदन को स्वीकार कर लिया तथा ज़ब्ती आदेश को इस आधार पर रद्द कर दिया कि ज़ब्ती आदेश की सूचना मजिस्ट्रेट को तत्काल नहीं दी गई थी।

निर्णय:

  • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित मुद्दे पर विचार किया, जिस पर उच्चतम न्यायालय द्वारा कोई आधिकारिक निर्णय नहीं दिया गया है:
  • "क्या ज़ब्ती की सूचना मजिस्ट्रेट को विलंब से देने से ज़ब्ती आदेश पूरी तरह से अमान्य हो जाता है?"
  • न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 102(3) जो ज़ब्ती के विषय में मजिस्ट्रेट को तुरंत सूचित करने का प्रावधान करती है, उसे वर्ष 1978 में संशोधन के माध्यम से जोड़ा गया है।
  • न्यायालय ने पाया कि धारा 102 (1) के अधीन शक्ति की वैधता धारा 102 (3) के अधीन निर्धारित कर्त्तव्य के अनुपालन पर निर्भर नहीं है। इस प्रकार, मजिस्ट्रेट को सूचित करने का दायित्व न तो धारा 102 (1) के अधीन शक्ति का प्रयोग करने के लिये एक क्षेत्राधिकार संबंधी पूर्वापेक्षा है तथा न ही धारा 102 (1) के अधीन शक्ति अनुपालन के अधीन है।
  • न्यायालय ने यहाँ CrPC की धारा 157 एवं मौजूदा प्रावधान के मध्य समानताएँ बताईं, क्योंकि इनमें से कोई भी प्रावधान दायित्व का पालन न करने की स्थिति में परिणाम का प्रावधान नहीं करता है।
  • CrPC की धारा 157 के संबंध में सादृश्य से आकर्षित होकर न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट को ज़ब्ती की सूचना देने में विलंब से अधिक-से-अधिक दावे की सत्यता पर असर पड़ सकता है।
  • यह लगातार माना जाता रहा है कि जाँच में अवैधता (ज़ब्ती एवं तलाशी में अवैधता सहित) भी जाँच को पूरी तरह से रद्द करने का कोई आधार नहीं है।
  • इस प्रकार, अंततः न्यायालय ने माना कि यदि विलंब को उचित रूप से समझाया जाता है तो न्यायालय मामले को यहीं छोड़ देगा।
    • हालाँकि, यदि इसका उचित स्पष्टीकरण नहीं दिया गया तो न्यायालय दोषी अधिकारी के विरुद्ध उचित विभागीय कार्यवाही का निर्देश दे सकता है।
  • अंत में, न्यायालय ने वर्तमान तथ्यों के आधार पर इस प्रश्न का उत्तर दिया कि क्या न्यायालय को बैंक खातों को नए सिरे से फ्रीज़ करने का निर्देश देना चाहिये।
  • न्यायालय ने कहा कि इसका उत्तर नकारात्मक होना चाहिये, क्योंकि निर्विवाद रूप से आरोपित आदेश के आधार पर प्रतिवादियों के बैंक खातों को फ्रीज़ कर दिया गया है तथा परिणामस्वरूप, प्रतिवादियों ने खातों का संचालन किया होगा और फ्रीज़ की गई 19,83,036/- रुपए की राशि निकाली गई होगी।
  • इस प्रकार, न्याय का उद्देश्य पूरा हो जाएगा तथा अभियोजन पक्ष का हित पूरा हो जाएगा यदि प्रतिवादियों को तत्काल एक बाॅण्ड पर हस्ताक्षर करने के लिये कहा जाए, ताकि वे उस राशि को (जो अब तक ज़ब्त बैंक खातों से निकाली जा चुकी है) क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय के समक्ष जमा कर दें, यदि न्यायालय आरोपी व्यक्तियों के विरुद्ध दोष का निष्कर्ष देती है।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • CrPC की धारा 102(3)- पुलिस अधिकारी के पास निर्दिष्ट संपत्ति ज़ब्त करने की शक्ति-
    • उप-धारा (1) के अधीन कार्य करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट को जब्ती की तत्काल रिपोर्ट देगा तथा जहाँ ज़ब्त की गई संपत्ति ऐसी है कि उसे न्यायालय में सुविधाजनक ढंग से नहीं पहुँचाया जा सकता है या जहाँ ऐसी संपत्ति की अभिरक्षा के लिये उचित स्थान प्राप्त करने में कठिनाई है, या जहाँ जाँच के प्रयोजन के लिये पुलिस अभिरक्षा में संपत्ति का निरंतर रखा जाना आवश्यक नहीं माना जा सकता है, वह किसी भी व्यक्ति को उसकी अभिरक्षा दे सकता है, बशर्ते वह एक बंधपत्र निष्पादित करे, जिसमें यह वचनबद्धता हो कि जब कभी आवश्यक हो वह संपत्ति को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करेगा और उसके निपटान के संबंध में न्यायालय के आगे के आदेशों को प्रभावी करेगा।
    • उपरोक्त प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 106 (3) के अधीन प्रदान किया गया है।

[मूल  निर्णय]


विधिक प्रतिनिधि के द्वारा भीकचंद पुत्र ढोंडीराम मुथा (मृत) बनाम विधिक प्रतिनिधि के द्वारा शामबाई धनराज गूगाले (मृत)

Bhikchand S/O Dhondiram Mutha (Deceased) Through Lrs. v. Shamabai Dhanraj Gugale (Deceased) Through Lrs.

आदेश/निर्णय की तिथि– 14.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय एवं न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा

मामला संक्षेप में:

  • मूल वादी- शमाबाई धनराज गुगाले के पति धनराज ने वर्ष 1969 में मूल प्रतिवादी- अपीलकर्त्ता/न्यायिक देनदार को 8,000 रुपए का ऋण दिया था।
  • ऋण चुकाने में विफल रहने पर, मूल वादी ने 10,880 रुपए (मूल राशि के रूप में 8,000 रुपए + अर्जित ब्याज के रूप में 2880 रुपये) की वसूली के लिये सिविल वाद दायर किया, साथ ही 12% प्रतिवर्ष की दर से लंबित तथा डिक्री के बाद ब्याज और अन्य सहायक राहत एवं लागतों के लिये भी।
  • 02.1982 को, 4वें संयुक्त सिविल न्यायाधीश, सीनियर डिवीज़न, पुणे ने मूल राशि, वाद से पहले अर्जित ब्याज, वाद्कालीन (पेंडेंट लाइट) और मूल राशि एवं लागतों की वसूली तक 12% प्रतिवर्ष की दर से आगे ब्याज देकर वाद को आंशिक रूप से डिक्री किया।
  • मूल वादी-डिक्री धारक ने दावे के हिस्से की अस्वीकृति के विरुद्ध अपील को प्राथमिकता दी, जहाँ निर्णय ऋणी द्वारा क्रॉस आपत्तियाँ प्रस्तुत की गईं।
  • उपरोक्त अपील के लंबित रहने के दौरान, वादी-डिक्री धारक ने निष्पादन आवेदन भी प्रस्तुत किया, जिसे सिविल न्यायाधीश, सीनियर डिवीज़न, अहमदनगर के न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया क्योंकि निर्णय ऋणी की संपत्ति, जिसके विरुद्ध आंशिक डिक्री में निर्दिष्ट राशि वसूल की जानी थी, अहमदनगर न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आती थी।
  • उपर्युक्त अपील खारिज कर दी गई तथा प्रतिवादी की आपत्तियों को ब्याज एवं लागत की सीमा तक स्वीकार कर लिया गया।
  • अपील के परिणामस्वरूप कुल आंशिक डिक्री में निर्दिष्ट राशि 27694/- रुपए से घटकर 17120/- रुपए हो गई।
  • डिक्री धारक ने डिक्री निष्पादित की तथा प्रतिवादी/निर्णय ऋणी की संपत्तियाँ, जैसा कि उल्लेख किया गया है (ऊपर) नीलामी में रखी गईं तथा उन्हें मूल वादी/डिक्री धारकों द्वारा स्वयं 09.08.1985 की नीलामी में 34000/- रुपए में खरीदा गया, जिसकी पुष्टि न्यायालय द्वारा की गई।
  • 01.1990 को, वर्तमान अपीलकर्त्ता/निर्णय ऋणी ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1808 (CPC) की धारा के अंतर्गत प्रतिपूर्ति के लिये एक आवेदन प्रस्तुत किया, इस आधार पर कि मूल डिक्री में काफी परिवर्तन किया गया है, इसलिये निष्पादन बिक्री को प्रतिपूर्ति के माध्यम से रद्द एवं उलट दिया जाना चाहिये।
  • निर्णय ऋणी ने अंततः अपील न्यायालय द्वारा आदेशित संपूर्ण राशि न्यायालय में जमा कर दी है।
  • निम्न न्यायालयों ने अपीलार्थी/निर्णय ऋणी के प्रतिपूर्ति के आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया है कि जब वाद मूल रूप से आदेशित किया गया था तथा आदेश को निष्पादित किया गया था, तब उसने न्यायालय में कोई राशि जमा नहीं की थी और अपील न्यायालय द्वारा अंतिम रूप से आदेशित राशि का एक भाग भी जमा नहीं किया गया था, इसलिये प्रतिपूर्ति का सिद्धांत लागू नहीं होता है।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब डिक्री धारक स्वयं नीलामी क्रेता हो तो यदि डिक्री को बाद में रद्द कर दिया जाता है तो बिक्री नहीं हो सकती।
  • उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि यदि कोई तीसरा पक्ष डिक्री के विरुद्ध लंबित अपील के ज्ञान के साथ न्यायालय की नीलामी में संपत्ति क्रय करता है तो वह प्रतिपूर्ति का विरोध नहीं कर सकता।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने माना कि न्यायालय ने यह पता लगाने का अपना कर्त्तव्य नहीं निभाया कि संपत्ति का कौन-सा भाग निष्पादन के उद्देश्य हेतु कुर्क करने के लिये पर्याप्त है।
  • न्यायालय ने माना कि सभी संपत्तियों को कुर्क करके निर्णय ऋणी के साथ घोर अन्याय किया गया है। वादी के पक्ष में राशि की वसूली के लिये एक डिक्री को निर्णय ऋणी की पूरी संपत्ति बेचकर उसका शोषण नहीं माना जाना चाहिये।
  • उच्चतम न्यायालय ने अंततः उच्च न्यायालय के दिनांक 05.06.2017 के आदेश एवं CPC की धारा 144 के अंतर्गत अपीलकर्त्ता के आवेदन को खारिज कर दिया।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • CPC की धारा 144- प्रतिपूर्ति (लौटाना) के लिये आवेदन:
    • जहाँ तक ​​कोई डिक्री [या आदेश] [किसी अपील, पुनरीक्षण या अन्य कार्यवाही में परिवर्तित या उलट दी जाती है या उस प्रयोजन के लिये संस्थित किसी वाद में अपास्त या संशोधित कर दी जाती है, वहाँ वह न्यायालय जिसने डिक्री या आदेश पारित किया है], प्रतिपूर्ति या अन्यथा किसी लाभ के अधिकारी किसी पक्षकार के आवेदन पर, ऐसी प्रतिपूर्ति का आदेश देगा जो, जहाँ तक ​​हो सके, पक्षकारों को उस स्थिति में रखेगी जो उन्होंने ऐसी डिक्री [या आदेश] या [उसका ऐसा भाग जिसे परिवर्तित, उलट दिया गया, अपास्त या संशोधित किया गया है] के अभाव में ग्रहण की होती और इस प्रयोजन के लिये न्यायालय कोई आदेश दे सकता है, जिसके अंतर्गत लागतों की वापसी एवं ब्याज, हनी, प्रतिकर व अंतःकालीन लाभ के संदाय के लिये आदेश भी हैं, जो उचित रूप से [डिक्री या आदेश के ऐसे परिवर्तन, उलटने, अपास्त करने या संशोधन के परिणामस्वरूप] हों।
      [स्पष्टीकरण– उपधारा (1) के प्रयोजनों के लिये, "डिक्री या आदेश पारित करने वाला न्यायालय" पद के अंतर्गत निम्नलिखित समझा जाएगा
      (a) जहाँ अपील या पुनरीक्षण अधिकारिता के प्रयोग में डिक्री या आदेश में परिवर्तन किया गया है या उसे उलट दिया गया है, वहाँ प्रथम दृष्टया न्यायालय।

[मूल निर्णय]


एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ एवं अन्य

M.C. Mehta v. Union Of India And Ors.

निर्णय की तिथि– 13.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या- 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना – न्यायमूर्ति उज्जवल भुयान एवं न्यायमूर्ति अभय एस. ओका

मामला संक्षेप में:

  • यह एक स्वीकार्य स्थिति है कि दिल्ली नगर निगम (MCD) की सीमा के अंदर प्रतिदिन 3800 टन ठोस अपशिष्ट एकत्रित होता है, जिसका उपचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि मौजूदा संयंत्रों में इसके उपचार की क्षमता नहीं है।
  • यह देखा गया कि जून 2027 तक उपलब्ध सुविधाओं के साथ, अब से 3 वर्ष से अधिक की अवधि के लिये, दिल्ली में प्रतिदिन किसी-न-किसी स्थान पर कम-से-कम 3800 टन अनुपचारित ठोस अपशिष्ट एकत्रित होगा।
  • दिल्ली एवं उसके आस-पास हो रहे विकास को देखते हुए, कचरे में प्रतिदिन वृद्धि होने की संभावना है।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इतनी बड़ी मात्रा में अपशिष्ट एकत्रित होने से पर्यावरण नष्ट होता है तथा संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत नागरिकों के मूल अधिकार प्रत्यक्षतः प्रभावित होते हैं।
  • यह सुनिश्चित करने के लिये तत्काल उपाय किये जाने की आवश्यकता है कि जब तक उचित सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हो जातीं, अनुपचारित ठोस अपशिष्ट का उत्पादन न बढ़े।
  • उच्चतम न्यायालय ने भारत सरकार के आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय के सचिव को निर्देश दिया कि वे सभी संबंधित अधिकारियों की बैठक बुलाकर समाधान निकालें और उसे न्यायालय के समक्ष रखें।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि अधिकारी उपरोक्त कार्य करने में विफल रहते हैं तो न्यायालय राजधानी दिल्ली एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों में पर्यावरण की देखभाल के लिये कठोर आदेश पारित करने पर विचार करेगा।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21- जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार–
    • किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।

[मूल निर्णय]


अध्यक्ष जसबीर सिंह मलिक के माध्यम से बार ऑफ इंडियन लॉयर्स बनाम डी. के. गांधी पीएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ कम्यूनिकेबल डिजीजेज एवं अन्य

Bar of Indian Lawyers Through Its President Jasbir Singh Malik v. D. K. Gandhi PS National Institute Of Communicable Diseases And Anr.

आदेश/निर्णय की तिथि– 14.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति पंकज मित्तल, न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी

मामला संक्षेप में:

  • प्रतिवादी श्री डी. के. गांधी ने परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अंतर्गत न्यायालय में शिकायत दर्ज करने के लिये अपीलकर्त्ता की सेवाएँ अधिवक्ता के रूप में ली थीं।
  • कार्यवाही के दौरान आरोपी ने राशि का भुगतान करने पर सहमति जताई। शिकायतकर्त्ता का मामला यह है कि अधिवक्ता ने राशि प्राप्त कर ली थी, लेकिन उसने शिकायतकर्त्ता को वह राशि नहीं दी। इसके बजाय उसने अपनी फीस की वसूली के लिये वाद दायर किया।
  • इसलिये शिकायकर्त्तात ने ज़िला उपभोक्ता विवाद निवारण फोरम, दिल्ली के समक्ष शिकायत दर्ज कराई तथा मामले का निर्णय शिकायतकर्त्ता के पक्ष में हुआ।
  • आदेश से व्यथित होकर राज्य आयोग के समक्ष अपील दायर की गई, जिसने माना कि अधिवक्ता की सेवाएँ उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 (CPA) की परिधि में नहीं आती हैं।
  • यह मामला अंततः उच्चतम न्यायालय के समक्ष आया।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में उठे तीन मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की:
    • क्या विधानमंडल ने कभी भी वर्ष 2019 में पुनः अधिनियमित सी. पी. अधिनियम 1986 की परिधि में पेशेवरों द्वारा प्रदान किये जाने वाले व्यवसायों या सेवाओं को शामिल करने का आशय किया था?
    • क्या विधिक व्यवसाय एक अद्वितीय व्यवसाय है?
    • क्या किसी अधिवक्ता द्वारा किराये पर ली गई या ली गई सेवा को “व्यक्तिगत सेवा की संविदा” के अंतर्गत सेवा कहा जा सकता है ताकि इसे सी. पी. अधिनियम 2019 की धारा 2 (42) में निहित “सेवा” की परिभाषा से बाहर रखा जा सके?
  • पहले मामले के संबंध में, न्यायालय ने माना कि विधानमंडल का कभी भी 1986 या 2019 के सी. पी. अधिनियम की परिधि में पेशेवरों को लाने का आशय नहीं था। साथ ही, न्यायालय ने माना कि इंडियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम वी. पी. शांता (1995) के 3 न्यायाधीशों के निर्णय पर पुनः और एक बड़ी पीठ द्वारा विचार किया जाना चाहिये।
  • दूसरे मामले के संबंध में न्यायालय ने कहा कि पेशेवरों के रूप में अधिवक्ताओं की भूमिका, स्थिति एवं कर्त्तव्यों को ध्यान में रखते हुए, हमारा विचार है कि विधिक व्यवसाय अद्वितीय व्यवसाय है, अर्थात इसकी प्रकृति अद्वितीय है तथा इसकी तुलना किसी अन्य व्यवसाय से नहीं की जा सकती।
  • तीसरे मामले के संबंध में न्यायालय ने माना कि किसी अधिवक्ता द्वारा किराए पर ली गई या ली गई सेवाएँ ‘व्यक्तिगत सेवा’ की संविदा होंगी तथा इसलिये उन्हें सी. पी. अधिनियम, 2019 की धारा 2(42) में निहित “सेवा” की परिभाषा से बाहर रखा जाएगा।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने कार्यवाही समाप्त कर दी तथा अंत में माना कि विधिक व्यवसाय करने वाले अधिवक्ताओं के विरुद्ध “सेवा में कमी” का आरोप लगाने वाली शिकायत सी. पी. अधिनियम, 2019 के अंतर्गत यथावत् नहीं होगी।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • सी पी अधिनियम की धारा 2(42)- सेवा-
    • "सेवा" से तात्पर्य किसी भी प्रकार की सेवा से है जो संभावित उपभोक्ताओं को उपलब्ध कराई जाती है तथा इसमें बैंकिंग, वित्तपोषण, बीमा, परिवहन, प्रसंस्करण, विद्युत या अन्य ऊर्जा की आपूर्ति, दूरसंचार, बोर्डिंग या लॉजिंग या दोनों, आवास निर्माण, मनोरंजन, आमोद-प्रमोद या समाचार या अन्य जानकारी के प्रसार से संबंधित सुविधाओं का प्रावधान शामिल है, लेकिन यह इन्हीं तक सीमित नहीं है, लेकिन इसमें निःशुल्क या व्यक्तिगत सेवा की संविदा के अंतर्गत कोई सेवा प्रदान करना शामिल नहीं है;

[मूल निर्णय]


प्रीति अग्रवाल एवं अन्य बनाम जीएनसीटी दिल्ली राज्य एवं अन्य

Priti Agarwalla And Others v. The State of GNCT of Delhi and Others

आदेश/निर्णय की तिथि – 17.05.2024

पीठ के सदस्यों की संख्या– 2 न्यायाधीश

पीठ की संरचना– न्यायमूर्ति एस. वी. एन. भट्टी एवं न्यायमूर्ति एम. एम. सुंदरेश

मामला संक्षेप में:

  • यहाँ शिकायत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 (SC&ST अधिनियम) के अधीन अपीलकर्त्ताओं के विरुद्ध दर्ज की गई है।
  • प्रतिवादी की शिकायत यह है कि 29.04.2018 को दर्ज की गई सूचना पर थाना फतेहपुर बेर के SHO द्वारा कोई कार्यवाही, पूछताछ या विवेचना नहीं की गई।
  • इसलिये, 09 मई 2018 को प्रतिवादी संख्या 2 ने दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156 (3) के अधीन CrPC की धारा 200 के साथ एल डी चीफ मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट, दक्षिण साकेत कोर्ट के समक्ष एक आवेदन प्रस्तुत किया।
  • 07.2018 को सहायक पुलिस आयुक्त, उप-मंडल, महरौली, नई दिल्ली ने एक कार्यवाही हेतु रिपोर्ट दायर की।
  • परंतु अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश-02, दक्षिण ज़िला, साकेत कोर्ट, नई दिल्ली ने दिनांक 02.08.2018 के आदेश द्वारा कार्यवाही रिपोर्ट को स्वीकार किया तथा कहा कि "यह न्यायालय इसे धारा 200 CrPC के अधीन शिकायत का मामला मानकर कार्यवाही जारी नहीं रख सकती। तद्नुसार, धारा 156(3) CrPC के साथ धारा 200 CrPC के अधीन वर्तमान आवेदन खारिज किया जाता है।"
  • परिणामस्वरूप, दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई, जहाँ न्यायालय ने प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने का निर्देश दिया।
  • अंत में, उच्चतम न्यायालय में आपराधिक अपील दायर की गई।

निर्णय:

  • उच्चतम न्यायालय ने सबसे पहले CrPC की धारा 156 (3) में प्रावधानित विधि पर चर्चा की।
    • जब CrPC की धारा 156(3) के अधीन आवेदन में संज्ञेय अपराध का प्रकटन होता है, तो संबंधित मजिस्ट्रेट का यह कर्त्तव्य है कि वह FIR दर्ज करने का निर्देश दे, जिसकी विवेचना विधि के अनुसार जाँच एजेंसी द्वारा की जाती है।
    • हालाँकि जब प्राप्त सूचना प्रथम दृष्टया किसी संज्ञेय अपराध के होने का प्रकटन नहीं करती है, लेकिन जाँच की आवश्यकता को इंगित करती है, उस स्थिति में, यह पता लगाने के लिये प्रारंभिक जाँच की जा सकती है कि शिकायत किया गया अपराध संज्ञेय है या नहीं।
    • प्रारंभिकन जाँच का उद्देश्य प्राप्त सूचना की सत्यता या अन्यथा को सत्यापित करना नहीं है, बल्कि केवल यह पता लगाना है कि प्राप्त सूचना से संज्ञेय अपराध का पता चलता है या नहीं।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने पुलिस स्टेशन से प्रारंभिक जाँच या कार्यवाही रिपोर्ट मांगकर कोई अविधिक या अनैतिक कृत्य नहीं किया है।
  • न्यायालय ने अगला प्रश्न यह जाँचना था कि क्या शिकायत संज्ञेय अपराध बनाती है। न्यायालय ने माना कि यहाँ जिन आरोपों के विषय में उल्लेख किया गया है, वे SC एवं ST अधिनियम की धारा 3 (1) (r) व धारा 3 (1) (s) के अधीन तथ्य को शामिल नहीं करते हैं।
  • उच्चतम न्यायालय ने अंततः माना कि दर्ज कारणों से FIR दर्ज करने का निर्देश देने वाली दिल्ली उच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ असमर्थनीय हैं तथा अपील में हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है।

प्रासंगिक प्रावधान:

  • CrPC की धारा 156 (3) - पुलिस अधिकारी की जाँच करने की शक्ति -
    • धारा 190 के अधीन सशक्त कोई भी मजिस्ट्रेट ऊपर वर्णित जाँच का आदेश दे सकता है।
  • उपर्युक्त प्रावधान भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 175 (3) में निहित है।
    • धारा 210 के अधीन सशक्त कोई मजिस्ट्रेट, धारा 173 की उपधारा (4) के अधीन दिये गए शपथ-पत्र द्वारा समर्थित आवेदन पर विचार करने के पश्चात् तथा ऐसी जाँच करने के पश्चात्, जैसी वह आवश्यक समझे तथा पुलिस अधिकारी द्वारा इस संबंध में किये गए निवेदन को ध्यान में रखते हुए, ऊपर वर्णित जाँच का आदेश दे सकेगा।

[मूल निर्णय]