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आपराधिक कानून
CrPC के तहत जाँच की प्रक्रिया
« »13-Dec-2023
परिचय:
- भारत में अपराधों की जाँच दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure- CrPC) में प्रदान की गई प्रक्रिया द्वारा की जाती है।
- इस संहिता की धारा 2(h) 'जाँच' शब्द को अपराध से जुड़े सबूत इकट्ठा करने के लिये पुलिस अधिकारी द्वारा की गई सभी प्रकार की कार्यवाही के रूप में परिभाषित करती है।
- किसी भी जाँच की शुरुआत में अपराधों की पहचान संज्ञेय और गैर-संज्ञेय अपराधों के रूप में की जाती है तथा फिर अपराध की प्रकृति के अनुसार जाँच आगे बढ़ती है।
- किसी अपराध की जाँच करने का पुलिस का अधिकार CrPC की धारा 156 में वर्णित है। आम तौर पर, जाँच में मुख्य रूप से निम्नलिखित चरण होते हैं:
- प्रथम सूचना रिपोर्ट (First Information Report- FIR) दाखिल करना।
- अपराध स्थल की जाँच करना।
- साक्ष्य एकत्रित कर संबंधित व्यक्तियों से पूछताछ करना।
- संदिग्ध का पता लगाना।
- चार्जशीट दाखिल करना।
- निर्दोष पाए जाने पर बरी करना।
- दोषी पाए जाने पर सज़ा देना।
संज्ञेय और गैर-संज्ञेय अपराध:
संज्ञेय अपराध:
- इसे CrPC की धारा 2(c) के तहत परिभाषित किया गया है। ये समाज के खिलाफ यानी बड़े पैमाने पर जनता के विरुद्ध की गई गलतियाँ हैं।
- ये गंभीर प्रकार के अपराध हैं जिनमें ज़ुर्माने के साथ या बिना ज़ुर्माने के 3 वर्ष से अधिक की सज़ा होती है। दहेज, हत्या, बलात्कार जैसे अपराध इसी श्रेणी में आते हैं।
- ये वे अपराध हैं जिनमें पुलिस किसी संदिग्ध को बिना गिरफ्तारी वारंट के भी गिरफ्तार कर सकती है।
गैर-संज्ञेय अपराध:
- इसे CrPC की धारा 2(i) में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार के अपराधों में गिरफ्तारी के लिये गिरफ्तारी वारंट की आवश्यकता होती है। मानहानि, प्रहार और मारपीट जैसे अपराध इस श्रेणी में आते हैं।
- गैर-संज्ञेय अपराध प्रकृति में कम गंभीर होते हैं जिनके लिये ज़ुर्माने के साथ या बिना ज़ुर्माने के 3 वर्ष से कम की सज़ा होती है।
जाँच करने का अधिकार:
- इस संहिता की धारा 156 पुलिस अधिकारी को संज्ञेय अपराध की जाँच करने की शक्ति प्रदान करती है।
- संज्ञेय अपराधों के मामलों में पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को लिखित रूप में FIR दर्ज करनी होती है और याचिकाकर्त्ता से उस पर हस्ताक्षर करवाना होता है, तभी जाँच शुरू हो सकती है।
- एक मजिस्ट्रेट CrPC की धारा 190 द्वारा दी गई शक्ति के तहत संज्ञेय अपराधों की जाँच का आदेश भी दे सकता है।
अपराध की जानकारी:
- यह जाँच की पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण कार्रवाई है।
- पुलिस पीड़िता द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार FIR दर्ज करेगी। साथ ही पीड़िता को FIR की एक प्रति भी मुफ्त दी जाएगी।
जाँच की प्रक्रिया:
- CrPC की धारा 157 प्रारंभिक जाँच पद्धति प्रदान करती है।
- इसके अनुसार, अपराध की सूचना मिलने के बाद पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को मामले की जाँच करने और उसकी रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजने का अधिकार है, जो फिर मामले का संज्ञान लेगा।
- पुलिस को सबूत इकट्ठा करने और ज़रूरत पड़ने पर संदिग्ध को गिरफ्तार करने के लिये अपराध स्थल पर जाने की ज़रूरत है।
- वे इस आधार पर भी जाँच से इनकार कर सकते हैं कि मामले में कुछ गैर-संज्ञेय अपराध शामिल हैं, जिनकी जाँच मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना नहीं की जा सकती है।
- यदि अन्वेषण अधिकारी को जाँच करने के लिये कोई उचित आधार नहीं मिलता है, तो वह जाँच करने के लिये बाध्य नहीं है तथा वह इसके कारणों की जानकारी मजिस्ट्रेट को दे सकता है।
मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट भेजना:
- CrPC की धारा 157 के तहत, 'पुलिस रिपोर्ट' को मजिस्ट्रेट को उन कारणों के बारे में सूचित करने के लिये भेजा जाना चाहिये जिनके आधार पर अपराध होने का संदेह स्थापित होता है। इस प्रकार, यह मजिस्ट्रेट को सूचित करता है कि पुलिस द्वारा विशेष मामले की जाँच की जा रही है।
- एक बार जाँच प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद मजिस्ट्रेट उसे रोक नहीं सकता, इसलिये पुलिस रिपोर्ट भेजना महज़ एक औपचारिकता है।
- इस रिपोर्ट के अलावा धारा 173 के तहत जाँच के अंत में उन्हें एक 'अंतिम रिपोर्ट' भी भेजी जाती है।
मजिस्ट्रेट द्वारा जाँच करने का आदेश:
- धारा 159, धारा 157 के तहत एक पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट प्राप्त करने वाला मजिस्ट्रेट जाँच का निर्देश दे सकता है, या यदि वह उचित समझता है, तो प्रारंभिक जाँच करने के लिये तुरंत किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को नियुक्त करने के लिये आगे बढ़ सकता है।
- धारा 159 का मुख्य उद्देश्य मजिस्ट्रेट को उन मामलों में जाँच का निर्देश देने की शक्ति प्रदान करना है जहाँ पुलिस धारा 157(1) के परंतुक (b) के तहत मामले की जाँच नहीं करने का निर्णय लेती है। वह किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा जाँच का आदेश भी दे सकता है, लेकिन वरिष्ठ पुलिस अधिकारी द्वारा नहीं।
साक्षियों की पहचान और उपस्थिति:
साक्षियों को पहचानने और संबोधित करने की शक्ति CrPC की धारा 160 के तहत निहित है।
- अपराध की जाँच करने और सभी आवश्यक सबूतों, संदिग्धों एवं साक्षियों को ढूँढने के बाद, पुलिस अधिकारी को किसी भी ऐसे व्यक्ति को पूछताछ हेतु उपस्थित होने के लिये बुलाने का अधिकार है जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होता है।
पुलिस द्वारा साक्षियों की जाँच:
- धारा 161 पुलिस द्वारा साक्षियों की मौखिक परीक्षा से संबंधित है। पूछताछ के दौरान उन्हें पुलिस द्वारा पूछे गए हर प्रश्न का उत्तर देना होगा।
- हालाँकि वे ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने के लिये बाध्य नहीं हैं जिनके उत्तर में उस पर आपराधिक आरोप, या ज़ुर्माना, या ज़ब्ती की प्रवृत्ति हो। ऐसे मामलों में व्यक्ति प्रश्न का उत्तर देने से इनकार कर सकता है।
मजिस्ट्रेट द्वारा बयान या संस्वीकृति का ध्वन्यंकन/रिकॉर्डिंग:
- धारा 164 मजिस्ट्रेट को पूरी जाँच प्रक्रिया के दौरान या जाँच या मुकदमा शुरू होने से पहले किसी भी व्यक्ति द्वारा दिये गए बयान या कबूलनामे को रिकॉर्ड करने का अधिकार देती है।
- अगर कोई कबूलनामा नहीं करना चाहता तो मजिस्ट्रेट उसे ऐसा करने के लिये मज़बूर नहीं कर सकता।
ऐसे मामले जहाँ जाँच 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं की जा सकती:
जब कोई जाँच 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं की जा सकती, तो धारा 167 मजिस्ट्रेट को प्रक्रिया के संबंध में कुछ शक्तियाँ प्रदान करती है। निम्नलिखित स्थितियों में धारा 167 लागू की जाती है, जब;
- किसी संदिग्ध को बिना वारंट के गिरफ्तार किया जाता है और पुलिस अधिकारी द्वारा हिरासत में ले लिया जाता है।
- जाँच में 24 घंटे से ज़्यादा का समय लगता है।
- अभियुक्त को पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी या सब-इंस्पेक्टर स्तर से नीचे के अन्वेषण अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है।
- जिस न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास अभियुक्त को स्थानांतरित किया जाता है, वह आदेश दे सकता है कि उसे 15 दिनों (लगभग 2 सप्ताह) से अधिक की अवधि के लिये हिरासत में रखा जा सकता है। यदि मजिस्ट्रेट के पास मामले की सुनवाई करने की अधिकारिता नहीं है और उसे लगता है कि लगातार हिरासत में रखना अनुचित है, तो अभियुक्त को उस मजिस्ट्रेट के पास भेज दिया जाएगा जिसके पास अधिकारिता है।
- यदि मजिस्ट्रेट के पास यह विश्वास करने का कारण व आधार है कि अभियुक्त को हिरासत में रखना आवश्यक है, तो वह ऐसा कर सकता है। हालाँकि किसी भी मामले में मजिस्ट्रेट इससे अधिक समय तक हिरासत में रखने का आदेश नहीं दे सकता:
- गंभीर अपराधों के लिये 10 वर्ष से अधिक कारावास या आजीवन कारावास या मौत की सज़ा का प्रावधान है, ऐसे मामलों में किसी व्यक्ति को 90 दिनों (लगभग 3 महीने) तक हिरासत में रखा जा सकता है।
- 10 वर्ष से कम कारावास की सज़ा वाले कम गंभीर अपराधों के लिये हिरासत 60 दिन (लगभग 2 महीने) से अधिक नहीं होनी चाहिये।
निर्णयज विधि:
- बालक राम बनाम उत्तरप्रदेश राज्य (1974):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि साक्षियों के साक्ष्य को केवल इसलिये खारिज़ नहीं किया जा सकता क्योंकि उनका बयान धारा 164 के तहत दर्ज किया गया था। उनके साक्ष्य को सावधानी से लिया जाना चाहिये।