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आपराधिक कानून

भारतीय विधि में बल और आपराधिक बल

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 04-Sep-2025

परिचय 

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) के स्थान पर 2023 की भारतीय न्याय संहिता (BNS) लागू होने के साथ भारत के विधिक ढाँचे में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है। यद्यपि यह परिवर्तन भारतीय आपराधिक विधि में एक बड़े परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करता है, किंतु "बल" और "आपराधिक बल" की परिभाषाएँ उल्लेखनीय रूप से सुसंगत बनी हुई हैं, जो इन मौलिक विधिक अवधारणाओं की स्थायी प्रासंगिकता को प्रदर्शित करती हैं। 

विधि के अधीन "बल" क्या है? 

पुरानी भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 349 तथा नयी भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 128, "बल" की परिभाषा को ऐसे व्यापक अर्थ में निरूपित करती हैं जो सामान्य जनजीवन में प्रयुक्त केवल शारीरिक हिंसा की अवधारणा से कहीं आगे जाती है। विधि के अनुसार, कोई व्यक्ति तब "बल" का प्रयोग करता है जब वह किसी अन्य व्यक्ति में गति उत्पन्न करता है, गति में परिवर्तन करता है अथवा गति की निरंतरता को समाप्त करता है। यह परिभाषा जानबूझकर व्यापक बनाई गई है जिससे विभिन्न परिदृश्यों को सम्मिलित किया जा सके जहाँ एक व्यक्ति के कार्य दूसरे की शारीरिक स्थिति को प्रभावित करते हैं। 

विधिक परिभाषा प्रत्यक्ष शारीरिक संपर्क से आगे तक फैली हुई है। बल में किसी भी पदार्थ को गति प्रदान करना सम्मिलित है जो बाद में किसी अन्य व्यक्ति के शरीर, कपड़ों या उनके द्वारा धारण की जा रही किसी भी वस्तु के संपर्क में आता है। यहाँ तक कि अप्रत्यक्ष संपर्क जो किसी की संवेदना को प्रभावित करता है, इस परिभाषा के अधीन बल कहलाता है। उदाहरण के लिये, यदि कोई व्यक्ति पानी फेंकता है जो किसी अन्य व्यक्ति पर छींटे मारता है, या किसी दरवाज़े को धक्का देता है जो दूसरी ओर किसी व्यक्ति को लग जाता है, तो ये क्रियाएँ विधि के अधीन बल कहलाती हैं। 

बल प्रयोग के तीन तरीके 

विधि में बल के प्रयोग की तीन पृथक् विधियों को मान्यता दी गई है: 

  • प्रत्यक्ष शारीरिक शक्ति: यह बल प्रयोग की सर्वाधिक सरल एवं प्रत्यक्ष विधि है - जहाँ व्यक्ति अपने स्वयं के शारीरिक सामर्थ्य का उपयोग कर किसी अन्य में गति उत्पन्न करता है या उसमें परिवर्तन करता है। धक्का देना, खींचना, प्रहार करना अथवा किसी को रोकना, इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं।   
  • पदार्थों के माध्यम से अप्रत्यक्ष बल: इसमें वस्तुओं को इस प्रकार संयोजित या व्यवस्थित किया जाता है कि वे बिना किसी अतिरिक्त हस्तक्षेप के गति उत्पन्न करें या परिवर्तन लाएँ। उदाहरणस्वरूप - ठोकर लगाने हेतु तार (Tripwire) लगाना, भूमि पर फिसलनकारी पदार्थ फैलाना, अथवा किसी वस्तु को इस प्रकार व्यवस्थित करना कि वह गिरकर दूसरे को प्रभावित करे – ये सभी क्रियाएँ इस विधि के अंतर्गत आती हैं।  
  • जानवरों के माध्यम से बल: जानवरों का उपयोग कर गति उत्पन्न करना, गति में परिवर्तन करना अथवा गति को समाप्त करना भी “बल” की श्रेणी में आता है। उदाहरणस्वरूप - किसी कुत्ते को किसी पर हमला करने के लिये उकसाना, अथवा घोड़े का प्रयोग कर किसी को गिराना। 

कब “बल” (Force) “आपराधिक बल” (Criminal Force) बन जाता है 

बल का हर प्रयोग आपराधिक नहीं होता। वैध बल से आपराधिक बल में परिवर्तन तीन प्रमुख कारकों पर निर्भर करता है: आशय, सम्मति और उद्देश्य।  

  • आशय और ज्ञान: बल प्रयोग करने वाले व्यक्ति को ऐसा आशयपूर्वक करना चाहिये। आकस्मिक संपर्क या अनपेक्षित परिणाम सामान्यत: आपराधिक बल नहीं माने जाते। इसके अतिरिक्त, यदि व्यक्ति जानता है कि उसके कार्यों से क्षति, भय या झुंझलाहट उत्पन्न होने की संभावना है, तो यह ज्ञान, बिना किसी विशेष क्षति करीत करने के आशय के भी, बल प्रयोग को आपराधिक बना सकता है। 
  • सम्मति का अभाव: आपराधिक बल के लिये यह आवश्यक है कि बल का प्रयोग दूसरे व्यक्ति की सहमति के बिना किया जाए। यही कारण है कि संपर्क-आधारित खेलकूद, चिकित्सकीय प्रक्रियाएँ, अथवा परस्पर सहमति पर आधारित शारीरिक क्रियाएँ, यद्यपि उनमें बल का प्रयोग होता है, सामान्यत: आपराधिक बल नहीं मानी जातीं। 
  • विधिविरुद्ध उद्देश्य: बल का प्रयोग या तो अपराध करने के लिये या क्षति कारित करने के लिये, भय या खीझ उत्पन्न करने के आशय से किया जाना चाहिये। आत्मरक्षा, अधिकारियों द्वारा वैध संयम, या अपराध रोकने के लिये प्रयुक्त बल, सम्मति के अभाव में भी आपराधिक बल नहीं माना जा सकता। 

व्यवहारिक निहितार्थ 

  • किसी का ध्यान आकर्षित करने के लिये उसकी बांह पकड़ना, किसी का रास्ता रोकना, या यहाँ तक ​​कि बिना अनुमति के किसी को छूना जैसी साधारण गतिविधियाँ भी, यदि गलत आशय से की गई हों, तो आपराधिक बल का मामला बन सकती हैं। 
  • विधि का व्यापक दायरा यह सुनिश्चित करता है कि अवांछित शारीरिक हस्तक्षेप के विभिन्न रूपों को आवृत किया जाए, तथा व्यक्तिगत स्वायत्तता और शारीरिक अखंडता की रक्षा की जाए। 
  • यद्यपि, न्यायालय सामान्यत: यह निर्धारित करते समय संदर्भ, गंभीरता और आशय पर विचार करते हैं कि क्या कार्रवाई आपराधिक बल का गठन करती है। 
  • भीड़-भाड़ वाले स्थानों या आपातकालीन स्थितियों में मामूली, सामाजिक रूप से स्वीकार्य संपर्क पर सामान्यत: अभियोजन नहीं चलाया जाता है, यद्यपि यह तकनीकी रूप से विधिक परिभाषा में फिट बैठ सकता है। 
  • भारतीय दण्ड संहिता से भारतीय न्याय संहिता तक निरंतरता 

भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 349-350 और भारतीय न्याय संहिता की धाराओं 128-129 के बीच समानता इन अवधारणाओं की मौलिक प्रकृति को दर्शाती है। भारतीय न्याय संहिता ने बल की परिभाषा के लिये उसी व्यापक दृष्टिकोण को बनाए रखा है, यह सुनिश्चित करते हुए कि स्थापित विधिक पूर्व निर्णय और निर्वचन सुसंगत बने रहें। यह निरंतरता भारत के नए दण्ड संहिता में परिवर्तन के दौरान स्थिरता प्रदान करती है, साथ ही उन सुविचारित विधिक सिद्धांतों को भी संरक्षित करती है जिन्होंने डेढ़ सदी से भी अधिक समय से भारतीय विधिशास्त्र का मार्गदर्शन किया है।