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पारिवारिक कानून

पारिवारिक न्यायालयों की अवधारणा

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 15-Dec-2023

परिचय:

  • 1984 से पहले, सभी पारिवारिक मामलों की सुनवाई सामान्य सिविल कोर्ट के न्यायाधीशों द्वारा की जाती थी, जो पक्षों को न्याय देने में काफी समय लेते थे।
    • नियमित न्यायालयों पर नागरिक मामलों का इतना बोझ है कि परिवार संबंधी विवादों पर कोई ध्यान ही नहीं दिया जाता।
  • विधि आयोग ने अपनी 59वीं रिपोर्ट (1974) में इस बात पर भी ज़ोर दिया कि परिवार से संबंधित विवादों को साधारण नागरिक कार्यवाही से पृथक करने की आवश्यकता है और एक परिवार के बीच विवादों को निपटाने के लिये सुधार के प्रयास किये जाने चाहिये।
  • इसलिये, विवाह एवं परिवार से संबंधित विवादों को कम खर्च और औपचारिकताओं के साथ त्वरित निपटान प्रदान करने तथा उनके सुलह के लिये पक्षों के बीच समझौता कराने के लिये, भारत में पारिवारिक न्यायालय स्थापित करने के लिये 14 सितंबर, 1984 को संसद द्वारा पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 अधिनियमित किया गया था। इस अधिनियम में 6 अध्याय और 23 धाराएँ हैं।

पारिवारिक न्यायालय के उद्देश्य:

  • त्वरित न्याय दिलाना और पारिवारिक मामलों का जल्द-से-जल्द निपटारा करना।
  • विवाह से संबंधित विवादों में सुलह और मध्यस्थता को बढ़ावा देना।
  • पारिवारिक संबंधों को बनाए रखना
  • परिवार के मामले को कम समय में सुलझाना।

पारिवारिक न्यायालय की स्थापना:

  • पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 3 में प्रावधान है कि राज्य सरकार, उच्च न्यायालय के परामर्श के बाद, राज्य के प्रत्येक क्षेत्र में जहाँ जनसंख्या 1 मिलियन से अधिक है या उस क्षेत्र में जहाँ राज्य सरकार आवश्यक समझे, पारिवारिक न्यायालय स्थापित करेगी।

न्यायाधीशों की नियुक्ति (धारा 4):

  • पारिवारिक न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 4 में कहा गया है कि राज्य सरकार के पास उच्च न्यायालय के परामर्श के बाद एक या एक से अधिक व्यक्तियों को पारिवारिक न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करने की शक्ति है।

पारिवारिक न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति हेतु:

निम्नलिखित योग्यताएँ आवश्यक हैं-

  • उसे भारत में न्यायिक कार्यालय में या न्यायाधिकरण के सदस्य कार्यालय में या केंद्र या राज्य के तहत किसी पद पर कम-से-कम सात वर्ष तक कार्यरत होना चाहिये, जिसके लिये कानून का विशेष ज्ञान आवश्यक है; या
  • उसे कम-से-कम सात वर्ष की अवधि के लिये उच्च न्यायालय या उत्तराधिकार की दो या अधिक न्यायालयों के वकील के रूप में कार्यरत होना चाहिये; या
  • उसके पास ऐसी अर्हताएँ होनी चाहिये जो भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की गई हों; या
  • उनकी आयु 62 वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिये।

पारिवारिक न्यायालय का क्षेत्राधिकार (धारा 7):

  • इस अधिनियम की धारा 7 पारिवारिक न्यायालयों को उनके मुकदमों तथा कार्यवाहियों में ज़िला न्यायालय या अधीनस्थ सिविल न्यायालयों के समान ही शक्तियाँ और अधिकार क्षेत्र प्रदान करती है।
  • धारा 7(2) पारिवारिक न्यायालयों को दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अध्याय IX के तहत प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट के समान क्षेत्राधिकार के साथ-साथ कानून द्वारा प्रदान किये गए किसी भी अन्य क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने का अधिकार देती है।

पारिवारिक न्यायालयों में सुने जाने वाले मामलों के प्रकार:

  • विवाह-विच्छेद
  • बच्चे की अभिरक्षा
  • घरेलू हिंसा
  • भरण-पोषण
  • संपत्ति विवाद

विवाह-विच्छेद:

  • जब कोई अपने विवाह को खत्म करना चाहता है, तो वह पारिवारिक न्यायालय में मामला दायर कर सकता है और न्यायालय का आदेश प्राप्त कर सकता है। विवाह को समाप्त करने के लिये विवाह-विच्छेद और रद्दीकरण प्रक्रियाओं का उपयोग किया जा सकता है।
  • न्यायालय अलग होने का आदेश भी जारी कर सकता है जिसमें पक्ष कानूनी रूप से विवाहित रहेंगे लेकिन संपत्ति, गुजारा भत्ता और बच्चे की अभिरक्षा के आदेश प्राप्त करेंगे।

बच्चे की अभिरक्षा:

  • धारा 7(1) में स्पष्टीकरण (g) में प्रावधान है कि पारिवारिक न्यायालय के पास बच्चे की अभिरक्षा एक सही व्यक्ति को देने और उस सही व्यक्ति को नाबालिग का संरक्षक बनाने का अधिकार है।

संपत्ति विवाद:

  • पारिवारिक न्यायालय अधिनियम की धारा 7(1) के स्पष्टीकरण (c) के अनुसार, विवाह के पक्षकारों की संपत्ति से संबंधित विवादों पर पारिवारिक न्यायालय का अधिकार क्षेत्र है।

भरण-पोषण:

  • पारिवारिक न्यायालय अधिनियम की धारा 7(1) में स्पष्टीकरण (f) के तहत स्पष्ट रूप से प्रावधान है कि पारिवारिक न्यायालयों के पास भरण-पोषण के मुकदमों या कार्यवाही पर अधिकार क्षेत्र है।
  • इसके अलावा धारा 7(2) के तहत, पारिवारिक न्यायालयों को अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने की शक्ति है, जिसका प्रयोग दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) के अध्याय IX के तहत प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा किया जाता है, जो पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण से संबंधित है।
  • इसका अर्थ है कि पारिवारिक न्यायालय CrPC की धारा 125 के तहत भरण-पोषण भत्ता दे प्रदान कर सकते हैं।

घरेलू हिंसा संरक्षण आदेश:

  • घरेलू दुर्व्यवहार के पीड़ित अपने हमलावर को दूर रखने के लिये पारिवारिक न्यायालय से सुरक्षा आदेश प्राप्त कर सकते हैं।

पारिवारिक न्यायालयों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाएँ:

  • पारिवारिक न्यायालय को एक सिविल न्यायालय माना जाएगा और उसके पास ऐसे न्यायालय की शक्तियाँ होंगी।
  • धारा 10(1) पारिवारिक न्यायालय के मुकदमों या कार्यवाही में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के प्रावधानों को लागू करती है।
    • धारा 10(2) कहती है कि CPC, 1908 के प्रावधान संहिता के अध्याय IX के तहत पारिवारिक न्यायालय के मुकदमों और कार्यवाहियों पर लागू होते हैं।
    • धारा 10(3) पारिवारिक न्यायालय को मुकदमे या कार्यवाही की परिस्थितियों के अनुसार या एक पक्ष द्वारा किये गए और दूसरे पक्ष द्वारा अस्वीकार किये गए तथ्यों की सत्यता के आधार पर समझौता करने के इरादे से अपनी प्रक्रिया निर्धारित करने की शक्ति देती है।
  • अधिनियम की धारा 11 के अनुसार, यदि न्यायालय को ऐसा लगता है, या मुकदमे का कोई पक्ष ऐसा करना चाहता है, तो पारिवारिक न्यायालय की कार्यवाही न्यायधीश के एकांत कक्ष में आयोजित की जा सकती है।
    • पारिवारिक न्यायालय कम औपचारिकताओं के साथ कार्य करते हैं, वे गवाहों के लंबे साक्ष्य दर्ज नहीं करते हैं, केवल गवाह के वही साक्ष्य दर्ज किये जाते हैं जो विषय-वस्तु से संबंधित होते हैं।
  • अधिनियम की धारा 14 के अनुसार विषय-वस्तु से संबंधित कोई भी रिपोर्ट, बयान या दस्तावेज़ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) के तहत स्वीकार्य है।
  • साथ ही, अधिनियम की धारा 15 के अनुसार, पारिवारिक न्यायालय के लिये किसी गवाह के साक्ष्य को विस्तृत रूप से दर्ज करना आवश्यक नहीं है, केवल वह भाग ही पर्याप्त है जो मुकदमे या कार्यवाही से संबंधित है, और उस पर न्यायाधीश तथा गवाह द्वारा हस्ताक्षर किये जाने चाहिये।

पारिवारिक न्यायालय का कर्तव्य (धारा 9):

  • इस अधिनियम की धारा 9 पार्टियों के बीच सुलह कराने के उचित प्रयास करने के लिये पारिवारिक न्यायालय का कर्तव्य निर्धारित करती है।
    • यह पार्टियों के बीच सुलह को बढ़ावा देने के प्रयास करने के लिये पारिवारिक न्यायालय का कर्तव्य निर्धारित करती है।
  • धारा 9(1) के अनुसार, सबसे पहले, पारिवारिक न्यायालय, प्रत्येक मुकदमे या कार्यवाही में, पार्टियों को समझौते के साथ विवाद को निपटाने के लिये मनाने का प्रयास करेगा।
  • धारा 9(2) के अनुसार, यदि पारिवारिक न्यायालय को लगता है कि कार्यवाही के किसी भी चरण में पार्टियों के बीच समझौते की उचित संभावना है, तो न्यायालय के पास समझौता होने तक कार्यवाही स्थगित करने की शक्ति है।

 अनिवार्य व्यक्तिगत उपस्थिति:

पारिवारिक न्यायालय में व्यक्तिगत उपस्थिति अनिवार्य है। पार्टियों को वकील द्वारा प्रतिनिधित्व करने का अधिकार नहीं होना चाहिये। उन्हें स्वयं उपस्थित होकर अपना पक्ष रखना होगा।

मौखिक साक्ष्य और शपथ-पत्र के रिकॉर्ड:

  • न्यायालय गवाह द्वारा दी गई गवाही को रिकॉर्ड करेगा और ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये जाएँगे और यह रिकॉर्ड का एक हिस्सा बनेगा।
  • न्यायालय, किसी भी पक्ष के आवेदन पर, ऐसे किसी भी व्यक्ति को बुला सकता है और शपथ-पत्र में शामिल तथ्यों के बारे में जाँच कर सकता है।

निर्णय:

  • पारिवारिक न्यायालय के निर्णय में मामले का संक्षिप्त विवरण, निर्धारण का बिंदु, उस पर निर्णय और ऐसे निर्णय लेने के कारण शामिल होंगे।

अपील:

  • पारिवारिक न्यायालय द्वारा पारित निर्णय के विरुद्ध अपील निर्णय की तिथि से 30 दिनों के भीतर उच्च न्यायालय में दायर की जा सकती है।