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सांविधानिक विधि

शंकरी प्रसाद सिंह देव बनाम भारत संघ एवं बिहार राज्य (1951)

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 17-Jul-2025

परिचय 

यह ऐतिहासिक उच्चतम न्यायालय का निर्णय, जो न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री द्वारा दिया गया, संविधान में संसोधन की संसद की शक्ति तथा संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 की वैधता से संबंधित एक मूलभूत प्रश्न का समाधान करता है। न्यायालय ने प्रथम संशोधन की सांविधानिक वैधता को स्वीकार करते हुए, अनुच्छेद 368 के अधीन संसोधन शक्ति की व्याख्या, अनुच्छेद 379 के अंतर्गत अस्थायी संसद की अधिकारिता, तथा अनुच्छेद 13(2) के अधीन मौलिक अधिकारों और संविधान संशोधनों के परस्पर संबंध के संबंध में महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किये। इस निर्णय ने भारतीय सांविधानिक व्यवस्था में संसद की संशोधन शक्ति और उसकी सीमाओं को समझने के लिये एक आधारशिला प्रदान की 

मामले के तथ्य 

  • सत्ताधारी राजनीतिक दल ने बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन अधिनियमों के माध्यम से कृषि सुधारों को लागू किया, तथा राज्य विधानसभाओं और संसद में बहुमत प्राप्त किया। 
  • ज़मींदारों ने इन अधिनियमों की वैधता को न्यायालयों में चुनौती दी और दावा किया कि ये संविधान के भाग 3 के अधीन मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हैं। 
  • पटना उच्च न्यायालय ने बिहार अधिनियम को असांविधानिक घोषित किया, जबकि इलाहाबाद और नागपुर उच्च न्यायालयों ने क्रमशः उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में इसी प्रकार की विधि को बरकरार रखा। 
  • जब संशोधन अधिनियम पारित किया गया था, तब इन उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें उच्चतम न्यायालय में लंबित थीं। 
  • संघ सरकार ने संविधान के क्रियान्वयन में उत्पन्न हुई कठिनाइयों का समाधान करने और उसमें विद्यमान समझे गए दोषों को दूर करने के उद्देश्य से एक विधेयक प्रस्तुत किया, जिससे संबंधित न्यायिक विवादों का निवारण हो सके।  
  • संसद में पारित होने के दौरान इस विधेयक में कई संशोधन हुए और इसे संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 के रूप में अपेक्षित बहुमत से पारित किया गया। 
  • संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में अनुच्छेद 31क और 31ख को सम्मिलित किया गया, साथ ही नौवीं अनुसूची में निर्दिष्ट अधिनियम और विनियम भी सम्मिलित किये गए। 
  • ज़मींदारों ने अनुच्छेद 32 के अधीन याचिका दायर कर संशोधन अधिनियम को असांविधानिक और शून्य करार दिया। 
  • इस विषय में विभिन्न याचिकाएँ (संख्या 166, 287, 317-319, 371-372, 374-389, 392-395, 418, 481-485 वर्ष 1951) दाखिल की गईं, जिन्हें एक साथ सुनवाई हेतु समेकित किया गया 
  • संविधान (कठिनाइयों का निवारण) आदेश संख्या 2, 26 जनवरी 1950 को राष्ट्रपति द्वारा जारी किया गया था, जिसमें अनुच्छेद 368 को अस्थायी संसद के लिये अनुकूलित किया गया था। 
  • उक्त मामलों में वाद-परिस्थितियों पर 12, 14, 17, 18 एवं 19 सितम्बर 1951 को बहस की गई। 

सम्मिलित विवाद्यक  

  • क्या अनुच्छेद 368 के अंतर्गत शक्ति संसद को या विशेष रूप से संसद के दोनों सदनों को निर्दिष्ट निकाय के रूप में प्रदान की गई थी, और क्या अस्थायी संसद इस शक्ति का प्रयोग कर सकती थी? 
  • क्या अनुच्छेद 379 के तहत अस्थायी संसद को उन शक्तियों का प्रयोग करने का अधिकार था जो संसद के दोनों सदनों की सम्मिलित सहमति से ही प्रयोग की जा सकती थीं, विशेष रूप से संविधान संशोधन से संबंधित शक्तियाँ 
  • क्या अनुच्छेद 368 को अनुकूलित करने वाला संविधान (कठिनाइयों का निवारण) आदेश संख्या 2, अनुच्छेद 392 के अंतर्गत राष्ट्रपति की शक्तियों के अंतर्गत आता था? 
  • क्या अनुच्छेद 368 एक पूर्ण संहिता है जो संसद से पारित होने के दौरान संविधान संशोधन विधेयकों में संशोधन को प्रतिबंधित करती है? 
  • क्या संशोधन अधिनियम ने संविधान के भाग 3 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को छीनकर या कम करके अनुच्छेद 13(2) का उल्लंघन किया है? 
  • क्या अनुच्छेद 31क और 31ख को अनुच्छेद 368 के उपबंध के अधीन अनुसमर्थन की आवश्यकता है, क्योंकि वे कथित रूप से अनुच्छेद 132, 136 और 226 के अधीन न्यायिक शक्तियों को प्रभावित करते हैं? 
  • क्या संसद को सातवीं अनुसूची की सूची II में शामिल भूमि मामलों से संबंधित अनुच्छेद 31क और 31ख को अधिनियमित करने की शक्ति थी? 

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

विश्लेषण और निर्णय: 

  • अनुच्छेद 368 के अधीन संसदीय शक्ति पर: 
    • यह स्थापित किया गया कि संविधान में तीन प्रकार के संशोधनों का उपबंध है: (1) वे जिनके लिये केवल बहुमत की आवश्यकता होती है (अनुच्छेद 4, 169, 240), (2) वे जिनके लिये अनुच्छेद 368 के अधीन विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, और (3) वे जिनके लिये अनुच्छेद 368 के उपबंध के अधीन अतिरिक्त राज्य अनुसमर्थन की आवश्यकता होती है। 
    • यह माना गया कि अनुच्छेद 368 संशोधन की शक्ति संसद को प्रदान करता है, किसी पृथक् निकाय को नहीं, जैसा कि "संसद के किसी भी सदन" से संबंधित प्रक्रिया, "प्रत्येक सदन में" पारित होना, तथा "राष्ट्रपति" के समक्ष प्रस्तुतीकरण - संसद की विधायी प्रक्रिया के सभी घटकों से स्पष्ट होता है। 
    • अमेरिकी सांविधानिक सादृश्य पर आधारित तर्कों को खारिज कर दिया गया, तथा इस बात पर बल दिया गया कि भारतीय संविधान की संशोधन पद्धति को अन्य सांविधानिक मॉडलों की ओर झुकाव के बिना, इसके अपने प्रावधानों से ही निर्धारित किया जाना चाहिये 
    • ध्यान देने योग्य बात यह है कि अनुच्छेद 2, 3, 4, 169 और 240 स्पष्ट रूप से अपने संशोधनों को अनुच्छेद 368 के क्रियान्वयन से बाहर रखते हैं, जो अनावश्यक होगा यदि अनुच्छेद 368 की शक्ति संसद के अतिरिक्त किसी अन्य निकाय के पास हो। 
  • अस्थायी संसद की अधिकारिता: 
    • निर्णय दिया गया कि "इस संविधान द्वारा संसद को प्रदत्त सभी शक्तियों" का प्रयोग करने के लिये अस्थायी संसद के अधिकार में आवश्यक रूप से सांविधानिक संशोधन शक्तियां सम्मिलित हैं, क्योंकि इसे प्रतिबंधित करने से अनुच्छेद 379 का उद्देश्य समाप्त हो जाएगा। 
    • इस बात पर बल दिया गया कि अनुच्छेद 379 की व्याख्या संविधान की व्यापक संरचना के संदर्भ में की जानी चाहिये, न कि पृथक् रूप से। यह अनुच्छेद संविधान के कार्यान्वयन की अंतरिम व्यवस्था हेतु बनाया गया था, जिससे नियमित संसद के गठन से पूर्व भी सांविधानिक शासन संभव हो सके 
    • न्यायालय ने यह भी स्वीकार किया कि यदि अस्थायी संसद को संविधान संशोधन की शक्ति न दी जाती, तो संक्रमणकालीन अवधि में जब तक नियमित संसद गठित नहीं होती, संविधान का व्यवहारिक अनुपालन असंभव हो जाता 
  • राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 392 के अंतर्गत अनुकूलन 
    • यह माना गया कि अनुच्छेद 392 "किसी भी कठिनाई" को दूर करने के लिये व्यापक शक्ति प्रदान करता है, जिसमें संक्रमण कठिनाइयों का विशिष्ट उल्लेख दृष्टांतदर्शक है, प्रतिबंधात्मक नहीं। 
    • न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति को अनुकूलन करने हेतु किसी कठिनाई के वास्तविक रूप से उत्पन्न होने की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जब किसी दो-सदनीय व्यवस्था को एक-सदनीय अस्थायी संसद पर लागू करना हो, तो कठिनाई अंतर्निहित रूप से उपस्थित होती है 
    • संविधान (कठिनाइयों का निवारण) आदेश संख्या 2 को वैध घोषित किया गया, तथा यह भी कहा गया कि इसमें अस्थायी संसद के लिये प्रक्रियात्मक भाषा को अनुकूलित करते हुए विशेष बहुमत की आवश्यकता को संरक्षित रखा गया है। 
  • संशोधन प्रक्रिया और विधेयक संशोधन पर: 
    • इस तर्क को खारिज कर दिया गया कि अनुच्छेद 368 एक "पूर्ण संहिता" है, तथा प्रक्रिया में कुछ कमियों को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 118 के अधीन सामान्य संसदीय प्रक्रियाओं द्वारा पूरा किया जाना चाहिये 
    • यह माना गया कि संविधान संशोधन विधेयक को पारित होने के दौरान संशोधित किया जा सकता है, क्योंकि अनुच्छेद 368 इस पर रोक नहीं लगाता है, और संसद को अनुच्छेद 368 की आवश्यकताओं के अनुरूप अपनी सामान्य प्रक्रिया का पालन करना चाहिये 
    • यह स्पष्ट किया गया कि यद्यपि संविधान संशोधन सामान्य विधायन नहीं है, तथापि जब संसद संविधान निर्माण की शक्ति का प्रयोग करती है, तो वह अनुच्छेद 368 की विशिष्ट आवश्यकताओं के अधीन रहते हुए सामान्य विधायी प्रक्रिया को ही अपनाती है 
  • अनुच्छेद 13(2) और मौलिक अधिकारों पर: 
    • न्यायालय ने यह मूलभूत अंतर स्थापित किया कि सामान्य विधायी शक्ति (अर्थात् विधि बनाना) और संविधान निर्माण संबंधी शक्ति (अर्थात् संविधान में संशोधन करना) भिन्न हैं, तथा यह निर्णय दिया कि अनुच्छेद 13(2) केवल सामान्य विधायी कृत्यों पर लागू होता है, संविधान संशोधनों पर नहीं 
    • अनुच्छेद 13(2) और अनुच्छेद 368 के बीच सामंजस्यपूर्ण व्याख्या के सिद्धांत को अपनाते हुए न्यायालय ने यह कहा कि अनुच्छेद 13(2) में प्रयुक्त “विधि” शब्द का अभिप्राय केवल सामान्य विधायी अधिनियमों से है, न कि संविधान संशोधन अधिनियमों से 
    • यह उल्लेख किया गया कि यदि मौलिक अधिकारों को संशोधन से मुक्त रखा गया तो अनुच्छेद 368 की सामान्य भाषा, जो संसद को बिना किसी अपवाद के संविधान में संशोधन करने का अधिकार देती है, निरर्थक होगी 
    • यह निष्कर्ष निकाला गया कि संविधान निर्माताओं का उद्देश्य मौलिक अधिकारों को सामान्य विधायी हस्तक्षेप से बचाना था, न कि अनुच्छेद 368 के अधीन विशेष प्रक्रिया के माध्यम से किये गए सांविधानिक संशोधनों से। 
  • अनुच्छेद 31क और 31ख की वैधता: 
    • यह माना गया कि अनुच्छेद 31क और 31ख के लिये राज्य के अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे अनुच्छेद 132, 136 या 226 के अधीन न्यायालयों की शक्तियों में परिवर्तन नहीं करते हैं, अपितु केवल कुछ मामलों को भाग 3 के दायरे से अपवर्जित करते हैं। 
    • यह स्पष्ट किया गया कि न्यायालयों की शक्तियाँ यथावत् बनी हुई हैं — अनुच्छेद 226, 132 एवं 136 के अंतर्गत, केवल न्यायिक पुनर्विलोकन के अंतर्गत आने वाले विषयों की परिधि को सीमित किया गया है, क्योंकि कुछ श्रेणियों को भाग 3 से बाहर कर दिया गया।  
    • यह निर्णय दिया गया कि सांविधानिक संशोधन के रूप में अनुच्छेद 31क और 31, सूची II में विषय वस्तु के समावेश की परवाह किये बिना, अनुच्छेद 368 के अधीन संसद की विशेष शक्ति के अंतर्गत आते हैं। 
    • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह स्थापित किया कि यदि कोई विधि जो पूर्व में सांविधानिक रूप से अमान्य थी, उसे संविधान संशोधन के माध्यम से वैध ठहराया जाता है, तो यह कार्यवाही संसद की संविधान निर्माण संबंधी शक्ति के अंतर्गत की गई मानी जाएगी और यह सामान्य विधायी वैधता से भिन्न है।  

स्थापित विधिक सिद्धांत 

  • संसद को अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्राप्त है, जिसमें मौलिक अधिकारों में संशोधन का अधिकार भी सम्मिलित है 
  • अनुच्छेद 379 के अधीन अस्थायी संसद संविधान संशोधन शक्तियों सहित संसद की सभी शक्तियों का प्रयोग कर सकती है 
  • संविधान संशोधन विधेयकों को संसद में पारित होने के दौरान अनुच्छेद 368 की प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के अधीन संशोधित किया जा सकता है 
  • अनुच्छेद 13(2) अनुच्छेद 368 के अधीन किये गए सांविधानिक संशोधनों पर लागू नहीं होता है 
  • मौलिक अधिकार अनुच्छेद 368 के अधीन विशेष प्रक्रिया के माध्यम से सांविधानिक संशोधन से मुक्त नहीं हैं 
  • साधारण विधायी शक्ति और संविधान शक्ति के बीच का अंतर अनुच्छेद 13(2) की प्रयोज्यता निर्धारित करता है 
  • अनुच्छेद 392 के अधीन कठिनाइयों को दूर करने की राष्ट्रपति की शक्ति व्यापक है और इसमें सांविधानिक कार्यप्रणाली के लिये सक्रिय अनुकूलन सम्मिलित हैं 
  • संक्रमणकालीन अवधि के दौरान राष्ट्रपति द्वारा किये गए अनुकूलन तब वैध होते हैं जब वे मूलभूत आवश्यकताओं में परिवर्तन किये बिना सांविधानिक संचालन को सुगम बनाते हैं।  
  • न्यायालय सांविधानिक संशोधनों को इस आधार पर अमान्य नहीं कर सकते कि वे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं।  
  • संविधान में संशोधन करने की संसदीय क्षमता सभी सांविधानिक प्रावधानों तक विस्तारित है, जो केवल अनुच्छेद 368 की प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के अधीन है।  

महत्त्व और प्रभाव 

  • सांविधानिक संशोधन के माध्यम से ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियमों को मान्य किया, जिससे कृषि सुधारों को संभव बनाया गया।   
  • प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 की सांविधानिक वैधता स्थापित की गई।   
  • भूमि सुधारों और मौलिक अधिकारों से संबंधित तात्कालिक संकट का समाधान किया गया 
  • अनुच्छेद 368 के अधीन संसद की व्यापक संशोधन शक्ति के लिये पूर्ण निर्णय  स्थापित किये गए 
  • सांविधानिक संशोधनों और मौलिक अधिकारों के बीच संबंध को समझने के लिये स्थापित ढाँचा 
  • मूल संरचना सिद्धांत के बाद के विकास के लिये आधार तैयार किया 
  • भारत में सांविधानिक संशोधन न्यायशास्त्र के लिये आधारभूत मामला बन गया 
  • संसदीय शक्ति और सांविधानिक व्याख्या पर बाद के निर्णयों को प्रभावित किया 
  • परस्पर विरोधी सांविधानिक प्रावधानों के बीच सामंजस्यपूर्ण निर्माण के स्थापित सिद्धांत 
  • बाद के सांविधानिक विकास के लिये आधार तैयार किया और भारतीय सांविधानिक विधि की आधारशिला बना हुआ है 
  • अनुच्छेद 368 के अधीन विशेष प्रक्रिया को बनाए रखते हुए सांविधानिक परिवर्तन के माध्यम से लोकतांत्रिक शासन को सक्षम बनाया गया 

निष्कर्ष 

इस ऐतिहासिक निर्णय ने भारत में सांविधानिक संशोधनों को नियंत्रित करने वाले मूलभूत सिद्धांतों को स्थापित किया। उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 को मान्यता प्रदान करने और अनुच्छेद 368 के निर्वचन ने एक ऐसा ढाँचा तैयार किया जिसने प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की स्थापना करते हुए, मौलिक अधिकारों सहित संविधान में संशोधन करने की संसद की व्यापक शक्ति को मान्यता दी। इस निर्णय ने अस्थायी संसद के अधिकार को स्पष्ट किया, सांविधानिक कार्यप्रणाली के लिये राष्ट्रपति के अनुकूलन को मान्य किया, और साधारण विधायी शक्ति और सांविधानिक शक्ति के बीच अंतर किया। यह मानते हुए कि अनुच्छेद 13(2) सांविधानिक संशोधनों पर लागू नहीं होता, न्यायालय ने अनुच्छेद 368 के अधीन विशेष प्रक्रिया को बनाए रखते हुए सांविधानिक परिवर्तन के माध्यम से लोकतांत्रिक शासन को सक्षम बनाया। इस निर्णय ने बाद के सांविधानिक विकास की नींव रखी और यह भारतीय सांविधानिक विधि की आधारशिला बना हुआ है, यद्यपि बाद के केशवानंद भारती जैसे निर्णयों ने संशोधन शक्ति पर एक सीमा के रूप में मूल संरचना की अवधारणा को प्रस्तुत किया।