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आपराधिक कानून
अग्रिम जमानत और जांच सहयोग
« »27-Aug-2025
"अंतरिम अग्रिम जमानत संरक्षण को पूर्ण बना दिया गया, यह देखते हुए कि केवल इसलिये कि कोई भी दोषपूर्ण सामग्री नहीं पाई जा सकी, इसका अर्थ यह नहीं होगा कि अभियुक्त की ओर से असहयोग किया जा रहा है।" न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और उज्ज्वल भुइयां |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
जुगराज सिंह बनाम पंजाब राज्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने अंतरिम अग्रिम जमानत संरक्षण को पूर्ण बनाते हुए एक आपराधिक अपील का निपटारा किया।
- न्यायालय ने यह टिप्पणी करते हुए एक महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित किया कि केवल अपराध सिद्ध करने वाली सामग्री का न मिलना, अभियुक्त की ओर से असहयोग का सूचक नहीं है, साथ ही न्यायालय ने अन्वेषण में सहयोग और साक्षियों के संरक्षण के लिये विनिर्दिष्ट शर्तें भी निर्धारित कीं।
जुगराज सिंह बनाम पंजाब राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह अपील पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय, चंडीगढ़ द्वारा 3 अप्रैल 2025 को पारित आदेश से उत्पन्न हुई, जिसमें अपीलकर्त्ता की अग्रिम जमानत याचिका को खारिज कर दिया गया था।
- यह मामला पुलिस स्टेशन सदर पट्टी, जिला तरनतारन में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 06/2025 से जुड़ा हुआ था।
- अपीलकर्त्ता का मामला यह था कि उसके पास से कोई भी आपत्तिजनक वस्तु बरामद नहीं हुई थी तथा उसे केवल सह-अभियुक्त रशपाल सिंह, जिसके पास से बरामदगी हुई थी, द्वारा दिये गए प्रकटीकरण कथन के आधार पर मिथ्या फंसाया गया था।
- अपीलकर्त्ता को पहले भी एक सह-अभियुक्त के प्रकटीकरण कथन के आधार पर इसी तरह फंसाया गया था, जिसमें उसे अग्रिम जमानत संरक्षण प्रदान किया गया था।
- उच्चतम न्यायालय ने 23 जून 2025 को अंतरिम संरक्षण प्रदान किया था, जिसके अधीन अन्वेषण अधिकारी द्वारा बुलाए जाने पर अन्वेषण में शामिल होने पर गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई थी।
- राज्य ने एक प्रति-शपथपत्र दायर किया जिसमें स्वीकार किया गया कि अपीलकर्त्ता का आरोप सह-अभियुक्त रशपाल सिंह द्वारा दिये गए संस्वीकृत कथन पर आधारित था।
- राज्य ने अन्वेषण में असहयोग का आरोप लगाया क्योंकि अपीलकर्त्ता ने पूछताछ के दौरान बताया कि उसने अपना मोबाइल फोन नदी में फेंक दिया था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि अपीलकर्त्ता को जब बुलाया गया तो वह अन्वेषण में सम्मिलित हुआ।
- पीठ ने एक महत्त्वपूर्ण न्यायिक टिप्पणी करते हुए कहा कि "केवल इसलिये कि कोई भी आपत्तिजनक सामग्री नहीं पाई जा सकी, इसका अर्थ यह नहीं है कि अभियुक्त की ओर से असहयोग किया जा रहा है।"
- यह अवलोकन आपराधिक अन्वेषण में असहयोग के निर्वचन के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण पूर्व निर्णय स्थापित करता है ।
- राज्य ने पूछताछ के दौरान असहयोग का आरोप लगाया था जब अपीलकर्त्ता ने बताया था कि उसने अपना मोबाइल फोन नदी में फेंक दिया था ।
- तथापि, न्यायालय ने पाया कि प्रति-शपथपत्र में यह नहीं कहा गया कि अपीलकर्त्ता के मोबाइल नंबर का पता लगाने और कॉल विवरण रिकॉर्ड एकत्र करने के लिये कोई प्रयास किया गया था।
- न्यायालय ने इसी प्रकार के आरोपों के पैटर्न पर विचार किया तथा यह भी कहा कि इससे पहले भी अपीलकर्त्ता को सह-अभियुक्तों के कथनों के आधार पर इसी प्रकार अभियुक्त बनाया गया था तथा उसे भी इसी प्रकार का संरक्षण प्रदान किया गया था।
- न्यायालय ने अपील का प्रभावी ढंग से निपटारा करते हुए, विनिर्दिष्ट शर्तों के साथ अंतरिम आदेश को पूर्ण बनाना उचित समझा।
न्यायालय के निदेश:
न्यायालय ने अंतरिम अग्रिम जमानत आदेश को दो विनिर्दिष्ट शर्तों के अधीन पूर्ण बनाते हुए अपील का निपटारा किया :
- शर्त 1: अपीलकर्त्ता अन्वेषण में सहयोग करेगा और अन्वेषण एजेंसी द्वारा अपेक्षित होने पर पूछताछ के लिये उपलब्ध रहेगा।
- शर्त 2: वह संबंधित विचारण न्यायालय की संतुष्टि के लिये जमानत बंधपत्र प्रस्तुत करेगा और साथ ही यह वचन भी देगा कि वह साक्षियों को धमकी नहीं देगा या साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा।
अग्रिम जमानत क्या है?
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 482 में अग्रिम जमानत का उपबंध है, जिसके अधीन किसी व्यक्ति को अजमानतीय अपराध के लिये गिरफ्तारी की आशंका होने पर वह गिरफ्तारी-पूर्व जमानत के लिये उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय में आवेदन कर सकता है।
- 1 जुलाई, 2024 को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के प्रभावी होने पर यह उपबंध दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 438 के स्थान पर प्रतिस्थापित होगा।
- धारा 482(2) के अधीन न्यायालय पुलिस पूछताछ के लिये अनिवार्य उपलब्धता, साक्षियों को प्रभावित करने पर प्रतिबंध और न्यायालय की अनुमति के बिना भारत छोड़ने पर प्रतिबंध सहित शर्तें अधिरोपित कर सकता हैं।
- अग्रिम जमानत की अवधारणा 41वें विधि आयोग की प्रतिवेदन रिपोर्ट से विकसित हुई, जिसमें यह आवश्यकता प्रतिपादित की गई थी कि व्यक्तियों को मिथ्या आरोप एवं निराधार निरुद्ध से होने वाली अपमानजनक स्थिति से संरक्षण प्रदान किया जाए।
- जबकि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 अग्रिम जमानत के लिये आवश्यक ढाँचे को बरकरार रखती है, यह उन कारकों को छोड़ देती है जिन पर न्यायालयों को पहले दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के अधीन विचार करना आवश्यक था।
- पूर्व धारा 438 के खण्ड (1क) और (1ख), जिनमें लैंगिक अपराधों के संबंध में विशेष उपबंध थे, को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की रूपरेखा में हटा दिया गया है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता के मूल उपबंध से खण्ड (2), (3) और (4) को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 में उसी रूप में बनाए रखा गया है।
- धारा 482(3) के अधीन, यदि अग्रिम जमानत प्राप्त व्यक्ति को बिना वारण्ट के गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे जमानत पर रिहा कर दिया जाएगा; और यदि मजिस्ट्रेट वारण्ट जारी करने का निर्णय लेता है, तो यह न्यायालय के निदेश के अनुरूप जमानतीय वारण्ट होना चाहिये।