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सांविधानिक विधि

उच्च न्यायालय के निर्णय में दीर्घकालिक विलंब

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 26-Aug-2025

रवींद्र प्रताप शाही बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 

प्रत्येक उच्च न्यायालय के महा-रजिस्ट्रार को मासिक आधार पर विलंबित निर्णयों की सूचना मुख्य न्यायाधीश को प्रेषित करनी होगी। यदि किसी वाद का निर्णय तीन माह के भीतर नहीं सुनाया जाता है, तो मुख्य न्यायाधीश यह सुनिश्चित करेंगे कि उक्त निर्णय दो सप्ताह के भीतर सुनाया जाए या उसे किसी अन्य पीठ को सौंप दिया जाए ।”   

न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

: हाल ही में, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा नेउच्च न्यायालयों द्वारा निर्णय देने में होने वाले दीर्घकालिक विलंब पर आश्चर्य व्यक्त किया तथा यह अभिमत व्यक्त किया कि न्यायालयों को पूर्ववर्ती नियमों का अनुपालन करना चाहिये, जैसा कि अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) मामले में निर्धारित किया गया था, जिसके अंतर्गत यह प्रावधान है कि यदि किसी वाद में छह माह के भीतर निर्णय नहीं सुनाया जाता है तो पक्षकार इस विषय में परिवाद प्रस्तुत कर सकते हैं 

  • उच्चतम न्यायालय ने रविन्द्र प्रताप शाही बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

रवींद्र प्रताप शाही बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • यह मामला एक आपराधिक अपील (आपराधिक अपील संख्या 939/2008) से उत्पन्न हुआ है जो 2008 से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित है। 
  • अपीलकर्त्ता रवींद्र प्रताप शाही ने मामले के निपटारे में दीर्घकालिक विलंब का हवाला देते हुए 28 अगस्त 2024 और 9 जनवरी 2023 के अंतरिम आदेशों को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।  
  • अपीलकर्त्ता द्वारा शीघ्र सूचीबद्धता और सुनवाई के लिये नौ अलग-अलग प्रयत्नों के बावजूद, उच्च न्यायालय सत्रह वर्षों तक कोई अंतिम निर्णय देने में असफल रहा। 
  • मामले ने उस समय गंभीर मोड़ ले लिया जब खंडपीठ ने व्यापक दलीलें सुनीं और 24 दिसंबर 2021 को आदेश के लिये मामले को सुरक्षित रख लिया। यद्यपि, वादा किया गया निर्णय कभी नहीं सुनाया गया, जिससे न्यायिक गतिरोध उत्पन्न हो गया। 
  • प्रशासनिक प्रोटोकॉल का पालन करते हुए, जब मूल पीठ छह माह के भीतर निर्णय देने में असफल रही, तो मामले को पुनः नियमित पीठ को सौंप दिया गया। 
  • इसके बाद मामले को 9 जनवरी 2023 को सूचीबद्ध किया गया, किंतु जब अपीलकर्त्ता की ओर से कोई भी उपस्थित नहीं हुआ, तो इसे 6 फरवरी 2023 तक के लिये स्थगित कर दिया गया। इसके बाद, कई सुनवाई की तारीखें असफल रहीं, जिससे अपील निरंतर अधर में लटकी रही। 

  • उच्चतम न्यायालय ने 15 अप्रैल 2025 को प्रशासनिक निदेश जारी करते हुए उच्च न्यायालय से तीन माह के भीतर अपील पर निर्णय लेने का अनुरोध किया। जब यह निदेश अप्रभावी साबित हुआ, तो उच्चतम न्यायालय ने महा-रजिस्ट्रार को एक विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निदेश दिया। 
  • 29 जनवरी 2025 की रिपोर्ट ने सभी आरोपों की पुष्टि की, यह सत्यापित करते हुए कि अपील 24 दिसंबर 2021 को सुरक्षित रखी गई थी, किंतु कोई निर्णय नहीं दिया गया, जो न्यायिक प्रशासन और अपीलकर्त्ता के समय पर न्याय पाने के सांविधानिक अधिकार के पूर्ण रूप से टूटने का प्रतिनिधित्व करता है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने समय पर निर्णय देने में उच्च न्यायालयों की व्यवस्थागत विफलता पर गहरा आश्चर्य व्यक्त किया और स्थिति को "बेहद चौंकाने वाला और आश्चर्यजनक" बताया। न्यायालय ने कहा कि निर्णय देने में विलंब एक आवर्ती समस्या बन गई है, जहाँ विभिन्न उच्च न्यायालयों में सुनवाई पूरी होने के बाद भी कार्यवाही महीनों या वर्षों तक लंबित रहती है। 
  • न्यायालय ने चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि अधिकांश उच्च न्यायालयों में प्रभावी तंत्रों का अभाव है जिससे वादी निर्णय में विलंब के संबंध में संबंधित पीठों या मुख्य न्यायाधीशों से संपर्क कर सकें। यह संस्थागत अंतर नागरिकों को असहाय बना देता है, जिससे उनका न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास उठ जाता है और न्याय के मूलभूत उद्देश्य असफल हो जाते हैं। 
  • सामाजिक निहितार्थों पर बल देते हुए न्यायालय ने चेतावनी दी कि ऐसे देश में जहाँ नागरिक न्यायाधीशों को भगवान के बाद दूसरे स्थान पर मानते हैं, वहाँ निरंतर विलंब न्यायिक दक्षता के बारे में जनता की चिंता का वैध आधार प्रदान करती है, और यदि इसे अनियंत्रित छोड़ दिया जाए तो इससे संपूर्ण न्यायिक प्रणाली में विश्वास हिल सकता है। 
  • न्यायालय ने अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) में स्थापित दिशा-निर्देशों को दोहराया, जिसमें आरक्षित निर्णयों की मासिक रिपोर्टिंग, दो महीने के बाद मुख्य न्यायाधीश का स्वतः हस्तक्षेप, तथा यदि निर्णय छह महीने से अधिक समय तक लंबित रहता है तो पक्षकारों को मामले को स्थानांतरित करने का अधिकार दिया गया है। 
  • न्यायालय ने विशेष रूप से बिना तर्कपूर्ण निर्णय के अंतिम आदेश सुनाने की प्रथा की निंदा की, जिसके बाद उसे अनिश्चित काल के लिये विलंबित कर दिया जाता है, जिससे पीड़ित पक्षकारों को आगे न्यायिक निवारण प्राप्त करने के अवसर से वंचित होना पड़ता है और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन होता है। 
  • प्रवर्तन को सुदृढ़ करने के लिये, न्यायालय ने अनुपूरक निदेश जारी किये, जिनमें महा-रजिस्ट्रार को तीन महीने तक मुख्य न्यायाधीशों को अप्राप्त निर्णयों की मासिक सूची प्रस्तुत करने का निदेश दिया गया। यदि निर्णय तीन माह से अधिक समय तक अप्राप्त रहते हैं, तो मुख्य न्यायाधीशों को संबंधित पीठों को दो सप्ताह के भीतर आदेश सुनाने का निदेश देना होगा, अन्यथा मामलों को अन्य पीठों को पुनः सौंपना होगा।   
  • न्यायालय ने इन निदेशों को अनिवार्य अनुपालन आवश्यकताओं के रूप में रेखांकित किया और सभी उच्च न्यायालयों के महा-रजिस्ट्रार को देश भर में एक समान कार्यान्वयन मानक स्थापित करने हेतु इन्हें प्रसारित करने का आदेश दिया। 

अनिल राय बनाम बिहार राज्य (2001) के दिशानिर्देश क्या थे? 

  • अभिलेखन (रिकॉर्डिंग) एवं प्रतिवेदन (रिपोर्टिंग) संबंधी दायित्त्व  
    • उच्च न्यायालयों को अपने निर्णयों के प्रथम पृष्ठ पर आरक्षण और घोषणा की तिथियाँ दर्ज करनी होंगी। न्यायालय अधिकारियों को उन मामलों की मासिक सूची मुख्य न्यायाधीशों को प्रशासनिक निगरानी के लिये प्रस्तुत करनी होगी जिनमें आरक्षित निर्णय अभी तक नहीं सुनाए गए हैं। 
  • प्रगतिशील समयरेखा हस्तक्षेप 
    • दो महीने की विलंब के बाद, मुख्य न्यायाधीशों को संबंधित पीठों को लंबित मामलों के बारे में सूचित करना होगा। तीन महीने के भीतर, पक्षकार शीघ्र निर्णय के लिये आवेदन दायर कर सकते हैं, जिन्हें संबंधित पीठ के समक्ष दो दिनों के भीतर सूचीबद्ध किया जाना चाहिये 
  • छह महीने का स्थानांतरण प्रावधान 
    • यदि निर्णय सुरक्षित किये जाने की तिथि से छह महीने के भीतर निर्णय नहीं सुनाया जाता है, तो पक्षकार मुख्य न्यायाधीश से मामले को वापस लेने और नए सिरे से बहस के लिये इसे किसी अन्य पीठ को सौंपने की मांग कर सकते हैं, मुख्य न्यायाधीश के पास ऐसी प्रार्थनाओं को स्वीकार करने का विवेकाधिकार होगा। 
  • न्यायिक जवाबदेही सिद्धांत 
    • न्यायालय ने यह स्थापित किया कि निर्णय देना न्याय व्यवस्था का अभिन्न अंग है और इसे बिना किसी विलंब के किया जाना चाहिये, क्योंकि लंबे समय तक विलंब से न्यायिक दक्षता में जनता का विश्वास डगमगाता है और न्याय के मूलभूत उद्देश्य असफल हो जाते हैं। 

विलंबित निर्णय वितरण से संबंधित मामले 

  • पिला पाहन @ पीला पाहन और अन्य बनाम झारखंड राज्य और अन्य (2025) 
    • अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग समुदायों से संबंधित चार दोषियों ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और आरोप लगाया कि उनकी आपराधिक अपील यद्यपि, झारखंड उच्च न्यायालय द्वारा 2022 में सुरक्षित रखी गई थी, 2-3 वर्षों से अनिर्णीत रही। 
    • हत्या और बलात्कार के आरोपों में आजीवन कारावास का दण्ड पाए दोषियों ने तर्क दिया कि इस विलंब से अनुच्छेद 21 के अधीन उनके प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है, जिसमें त्वरित विचारण का अधिकार भी सम्मिलित है। एक दोषी 16 वर्ष से अधिक समय से जेल में था, जबकि अन्य 11-14 वर्ष जेल में रहे, फिर भी निर्णय सुरक्षित रहने के कारण वे परिहार के लिये आवेदन नहीं कर सके। 
    • उच्चतम न्यायालय ने इस तरह के विलंब को "बहुत परेशान करने वाला" बताते हुए सभी उच्च न्यायालय के महा-रजिस्ट्रार को निदेश दिया कि वे उन मामलों पर रिपोर्ट प्रस्तुत करें जिनमें 31 जनवरी 2025 को या उससे पहले निर्णय सुरक्षित रखे गए थे, किंतु अभी तक निर्णय नहीं सुनाए गए हैं, तथा उन्हें बेंच विनिर्देशों के साथ आपराधिक और सिविल मामलों में वर्गीकृत किया गया है। 
  • बालाजी बलिराम मुपाडे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2020) 
    • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालयों द्वारा बिना तर्कपूर्ण निर्णय दिये आदेशों के क्रियान्वयनात्मक अंश सुनाने की समस्याग्रस्त प्रथा पर विचार किया, जिसके कारण निर्णय में दीर्घकाल तक विलंब हो जाता था 
    • इस मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय की औरंगाबाद पीठ ने 21 जनवरी, 2020 को ऑपरेटिव आदेश सुनाया, लेकिन विस्तृत कारण 9 अक्टूबर, 2020 को ही प्रकाशित किये, जिससे नौ महीने का अंतराल हो गया। 
    • न्यायालय ने कहा कि न्यायिक अनुशासन के लिये निर्णय देने में तत्परता की आवश्यकता होती है, और जब परिणाम ज्ञात हो, किंतु कारण छिपाए जाएं, तो विलंब और बढ़ जाता है, जिससे पीड़ित पक्ष आगे न्यायिक निवारण प्राप्त करने के अवसरों से वंचित हो जाते हैं। 
    • न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की पीठ ने इस बात पर बल दिया कि इस तरह की प्रथाएँ संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करती हैं और उन्होंने इस तरह के विलंब के विरुद्ध चेतावनी के तौर पर अपने आदेश को सभी उच्च न्यायालयों को प्रसारित करने का निदेश दिया। 
  • उमेश राय @ गोरा राय बनाम भारत संघ (2023) 
    • यह मामला एक ऐसे अपराधी से संबंधित था जो 16 वर्ष, 9 महीने और 18 दिनों से अभिरक्षा में था, तथा इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 2014 में दायर उसकी आपराधिक अपील पर अगस्त 2022 में सुरक्षित रखा गया निर्णय सुनाने में असफल रहने के बाद जमानत की मांग कर रहा था। 
    • जब उच्चतम न्यायालय ने स्थिति रिपोर्ट मांगी, तो सहायक रजिस्ट्रार ने बताया कि मामले को उसी पीठ के समक्ष पुनः सूचीबद्ध कर दिया गया है, जिसने मूलतः इसे सुरक्षित रखा था, जो कि स्थापित न्यायिक प्रोटोकॉल के विपरीत है। 
    • उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह ने मामले को पुनः उसी पीठ को सौंपे जाने पर कड़ी असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि यह "पूरी तरह से असंतोषजनक" है। 
    • अनिल राय के पूर्व निर्णय के अनुसार, जिसमें छह महीने तक सुनवाई न होने पर मामले को विभिन्न पीठों को स्थानांतरित करने का आदेश दिया गया था, न्यायालय ने मुख्य न्यायाधीश को मामले को किसी अन्य पीठ को सौंपने का निदेश दिया और अपीलकर्त्ता को अंतरिम जमानत प्रदान की, यह देखते हुए कि लंबी अभिरक्षा अवधि को देखते हुए उनके पास "बहुत कम विकल्प" थे।