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आपराधिक कानून
साक्षी कठघरे में उपस्थित होने में असफलता
«27-Aug-2025
"सिविल कार्यवाहियों में, विशेष रूप से जहाँ तथ्य केवल पक्षकार के व्यक्तिगत ज्ञान में ही निहित हों, साक्षी के कठघरे में आने से इंकार करने के गंभीर साक्ष्य संबंधी परिणाम हो सकते हैं।" न्यायमूर्ति संजय करोल और प्रशांत कुमार मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति संजय करोल और प्रशांत कुमार मिश्रा ने यह प्रतिपादित किया कि सिविल मामलों में यदि कोई पक्षकार अपने व्यक्तिगत ज्ञान से संबंधित तथ्यों पर साक्ष्य देने से इंकार करता है, तो इससे गंभीर साक्ष्यगत परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। यह अवलोकन संपत्ति विवाद की सुनवाई के दौरान किया गया, जिसमें दावे पूर्ववर्ती विवाह की वैधता पर आधारित थे।
- उच्चतम न्यायालय ने चौडम्मा (मृत) बाय एल.आर. एवं अन्य बनाम वेंकटप्पा (मृत) बाय एल.आर. एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
चौडम्मा (मृत) विधिक प्रतिनिधि और अन्य बनाम वेंकटप्पा (मृत) विधिक प्रतिनिधि और अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- यह विवाद पैतृक संपत्ति के दो दावेदारों के बीच उत्पन्न हुआ था। वादी दो व्यक्ति थे जो अपनी दिवंगत माँ, भीमक्का (जिन्हें सत्यक्का भी कहा जाता है) के माध्यम से उत्तराधिकार का दावा कर रहे थे। प्रतिवादी चौडम्मा (प्रतिवादी संख्या 1) और उसका पुत्र (प्रतिवादी संख्या 2) थे, जिन्होंने वादी के दावों का विरोध किया।
- विवादित संपत्तियों में विशिष्ट सर्वेक्षण संख्या (39/1B, 149, 41/lP, 37/1, 37/lA, and 29/9) वाली कृषि भूमि और होसदुर्गा तालुका के देवीगेरे और कल्लाहल्ली गाँवों में स्थित एक आवासीय मकान (संख्या 38) शामिल था। ये संपत्तियाँ पैतृक प्रकृति की थीं, जो थिम्माबोवी वेल्लप्पा नामक व्यक्ति के वंशज थे।
- मूल विवाद मृतक दासबोवी (जिसे दासप्पा के नाम से भी जाना जाता है) की प्रथम विवाह की वैधता स्थापित करने पर केंद्रित था।
- वादीगण ने तर्क दिया कि उनकी माँ, भीमक्का, दासबोवी की विधिपूर्वक विवाहित पहली पत्नी थीं, जिससे उन्हें पैतृक संपत्ति में उत्तराधिकार का अधिकार प्राप्त हुआ। इसके विपरीत, प्रतिवादी संख्या 1 (चौदम्मा) ने दावा किया कि वह मृतक दासबोवी की एकमात्र वैध पत्नी थीं, इस प्रकार उन्होंने पैतृक संपत्ति में किसी भी अंश के लिये वादीगण के अधिकार को चुनौती दी।
- वादी के मामले के अनुसार, दासबोवी ने शुरू में उनकी माता भीमक्का से पारंपरिक रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह किया था।
- यह दंपत्ति गलीरंगैयाहट्टी में साथ रहता था, जहाँ वादी का जन्म हुआ था। इसके बाद, दासबोवी ने चौडम्मा के साथ संबंध बनाए और उसे दूसरी पत्नी के रूप में अपने घर में ले आया।
- इस घटना के परिणामस्वरूप कथित तौर पर प्रथम पत्नी और उसके बच्चों को विस्थापित होना पड़ा, तथा उन्हें अंतरगंगे गाँव में भीमक्का के पैतृक घर में स्थानांतरित होना पड़ा।
- कथित प्रथम विवाह के औपचारिक दस्तावेज़ी सबूत के अभाव के कारण मामले में साक्ष्य संबंधी महत्त्वपूर्ण जटिलताएँ उत्पन्न हुईं।
- वादी मुख्यतः मौखिक परिसाक्ष्य पर निर्भर थे, खासकर हनुमंथप्पा (PW-2) की, जिसने विवाह और पारिवारिक संबंधों की व्यक्तिगत जानकारी होने का दावा किया था। प्रतिवादियों ने इस साक्ष्य का खंडन किया और राजस्व अभिलेखों का हवाला दिया, जिसमें दासबोवी के साथ केवल चौडम्मा का नाम दिखाया गया था।
- वादीगण ने शुरू में पारिवारिक संपत्ति में अपना आधा अंश पाने के लिये बँटवारे का वाद दायर किया था। विचारण न्यायालय ने दासबोवी और उनकी माता के बीच कथित विवाह के पर्याप्त सबूत न पाकर उनका वाद खारिज कर दिया। इसके पश्चात् वादीगण ने उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने विचारण न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए वाद का निर्णय उनके पक्ष में सुनाया। इसके बाद प्रतिवादियों ने इस निर्णय को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि जब तथ्य केवल किसी पक्षकार के व्यक्तिगत ज्ञान में ही हों, तो साक्षी के कठघरे में न आने के गंभीर साक्ष्य संबंधी परिणाम हो सकते हैं। सिविल कार्यवाहियों में, ऐसे मामलों में परिसाक्ष्य देने से इंकार करना न्यायिक जाँच से जानबूझकर बचने के समान है।
- न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी संख्या 1 का साक्षी कठघरा से अनुपस्थिति प्रक्रियागत चूक नहीं थी, अपितु जानबूझकर की गई वापसी थी। अन्य साक्षियों की परीक्षा के दौरान शारीरिक रूप से उपस्थित होने के बावजूद, साक्ष्य देने में उसकी विफलता साक्ष्य अधिनियम की धारा 114(छ) के अधीन प्रतिकूल उपधारणा को आकर्षित करती है।
- न्यायालय ने गठिया (Arthritis) के बचाव को खारिज कर दिया, यह देखते हुए कि प्रतिवादी संख्या 1 वाद की कार्यवाही के दौरान कई बार न्यायालय में उपस्थित हुई थी। न्यायालय में उपस्थित होने की उसकी क्षमता, परिसाक्ष्य देने में चिकित्सीय अक्षमता के दावों को खारिज करती है।
- न्यायालय ने PW -2 की परिसाक्ष्य को विश्वसनीय माना, क्योंकि यह व्यक्तिगत ज्ञान और दीर्घकालिक परिचय पर आधारित था। उसका साक्ष्य प्रतिपरीक्षा में खरा उतरा और वंशावली चार्ट से भी उसकी पुष्टि हुई।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि वादीगण ने नपे-तुले परिसाक्ष्य के माध्यम से अपना मामला सफलतापूर्वक स्थापित किया। साक्ष्य सामग्री से वंचित प्रतिवादियों ने केवल खंडन पर विश्वास किया। संभावनाओं की प्रबलता के आधार पर, तराजू वादीगण के पक्ष में झुक गया।
- न्यायालय ने दोहराया कि यदि कोई पक्षकार शपथ लेकर अपना पक्ष रखने के लिये कटघरे में उपस्थित नहीं होता है, तो यह उपधारणा की जाती है कि उसका मामला गलत है। जहाँ प्रकटीकरण का कर्त्तव्य हो, वहाँ न्यायालय सोची-समझी चुप्पी का सहारा नहीं ले सकता।
साक्षी कठघरा (Witness Box) में प्रवेश करने में विफलता क्या है?
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 114(छ): न्यायालय किसी भी तथ्य के अस्तित्व की उपधारणा कर सकता है, जिसके बारे में वह सोचता है कि वह घटित हुआ है, विशेष मामले के तथ्यों के संबंध में प्राकृतिक घटनाओं, मानवीय आचरण और लोक और निजी कारबार के सामान्य अनुक्रम को ध्यान में रखते हुए।
- यह उपबंध अब भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 के 119 के अधीन समाहित किया गया है।
- दृष्टांत (छ) में स्पष्ट रूप से कहा गया है: "यदि वह साक्ष्य जो पेश किया जा सकता था और पेश नहीं किया गया है , पेश किया जाता तो उस व्यक्ति के अनुकूल होता जो उसका विधारण किये हुए है।"
- जब किसी पक्षकार को महत्त्वपूर्ण तथ्यों का अनन्य व्यक्तिगत ज्ञान होता है और वह जानबूझकर साक्षी कठघरे में जाने से परहेज करता है, तो न्यायालय धारा 114(छ) के अधीन प्रतिकूल निष्कर्ष निकालती हैं। यह उपधारणा की जाती है कि रोका गया साक्ष्य, उसे रोकने वाले पक्ष के लिये प्रतिकूल होगा।
- न्यायिक पूर्ण निर्णय - विद्याधर बनाम माणिकराव (1999): उच्चतम न्यायालय ने स्थापित किया कि जहाँ वाद का कोई पक्षकार शपथ पर अपना मामला बताने के लिये साक्षी कठघरे में उपस्थित नहीं होता है और विरोधी पक्षकार द्वारा प्रतिपरीक्षा के लिये स्वयं को पेश नहीं करता है, तो यह उपधारणा की जाती है कि उनके द्वारा स्थापित मामला सही नहीं है।
- परिसाक्ष्य न देने से साक्ष्य संबंधी भार प्रतिकूल रूप से स्थानांतरित हो जाता है। यद्यपि अपना मामला साबित करने का प्रारंभिक भार वादी पर होता है, किंतु प्रथम दृष्टया साबित हो जाने पर, खंडन करने का भार प्रतिवादी पर आ जाता है। अनन्य ज्ञान होने पर भी साक्षी कठघरे में उपस्थित न होना इस भार के निर्वहन में विफलता माना जाता है।
- सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 26, नियम 1 में आयु, बीमारी या अन्य दुर्बलता के मामलों में आयोग द्वारा साक्ष्य दर्ज करने का उपबंध है। अक्षमता का दावा करते समय ऐसे प्रावधानों का प्रयोग न करने से प्रतिकूल अनुमान को बल मिलता है।