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आपराधिक कानून

अपील द्वारा सजा में वृद्धि

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 19-May-2025

सचिन बनाम महाराष्ट्र राज्य

"हमारे विचार से, अभियुक्त द्वारा दायर अपील में अपीलीय न्यायालय दोषसिद्धि को यथावत रखते हुए, सज़ा में वृद्धि नहीं कर सकता। दोषी के कहने पर अपनी अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करते हुए, उच्च न्यायालय एक पुनरीक्षण न्यायालय के रूप में कार्य नहीं कर सकता, विशेष रूप से, जब राज्य, पीड़ित या शिकायतकर्त्ता द्वारा अभियुक्त के विरुद्ध सज़ा बढ़ाने की मांग के लिये कोई अपील या पुनरीक्षण दायर नहीं किया गया हो।"

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं एस.सी. शर्मा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना एवं न्यायमूर्ति एस.सी. शर्मा की पीठ ने कहा कि किसी दोषी द्वारा दायर अपील में अपीलीय न्यायालय को सजा बढ़ाने का अधिकार नहीं है, जब तक कि राज्य, पीड़ित या शिकायतकर्त्ता द्वारा ऐसी वृद्धि की विशेष मांग करते हुए अलग से अपील या पुनरीक्षण दायर न किया गया हो।

सचिन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अपीलकर्त्ता पर लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 4 के अंतर्गत दण्डनीय धारा 3(a) तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 363-A एवं 376 के साथ-साथ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3(1)(xii) एवं 3(2)(v) के अधीन अपराध का आरोप लगाया गया था।
  • इस मामले में आरोप लगाया गया था कि अपीलकर्त्ता, जो पीड़िता के परिवार का पड़ोसी था, ने चार वर्षीय अप्राप्तवय पीड़िता को उसके माता-पिता के घर न जाने पर बहला-फुसलाकर अपने घर बुलाया, उसके कपड़े उतारे और उसके साथ बलात्संग कारित किया।
  • वरोरा के विशेष न्यायाधीश ने अपीलकर्त्ता को POCSO  अधिनियम की धारा 3(a) एवं 4 तथा IPC की धारा 376 के अंतर्गत दण्डनीय अपराधों के लिये दोषी मानते देते हुए सात वर्ष के कठोर कारावास तथा 2,000 रुपये के जुर्माने की सजा दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने अपनी दोषसिद्धि एवं सजा को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में आपराधिक अपील संख्या 30/2015 दायर की। राज्य ने सजा की अपर्याप्तता के विरुद्ध कोई अपील दायर नहीं की।
  • उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि को यथावत रखते हुए कहा कि विशेष न्यायालय ने POCSO अधिनियम की धारा 5(m) एवं 6 तथा IPC की धारा 376(2)(i) के प्रावधानों की अनदेखी की है। उच्च न्यायालय ने सजा में वृद्धि करने के संबंध में अपीलकर्त्ता को कारण बताओ नोटिस जारी किया।
  • अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता की आपत्तियों के बावजूद उच्च न्यायालय ने सजा की मात्रा पर पुनर्विचार के लिये मामले को विशेष न्यायालय को सौंप दिया।
  • विशेष न्यायालय ने बाद में सजा को सात वर्ष से बढ़ाकर आजीवन कारावास एवं 5,000 रुपये के जुर्माने में बदल दिया।
  • अपीलकर्त्ता ने इस वृद्धि को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय में आपराधिक अपील संख्या 311/2021 दायर की। खंडपीठ ने सुझाव दिया कि अपीलकर्त्ता उच्चतम न्यायालय का रुख करें।
  • इन कार्यवाहियों के कारण, अपीलकर्त्ता, जिसे शुरू में सात वर्ष की सजा दी गई थी, पहले ही ग्यारह वर्ष एवं आठ महीने जेल में काट चुका था।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी अभियुक्त द्वारा दोषसिद्धि के विरुद्ध दायर अपील में अपीलीय न्यायालय सजा में वृद्धि नहीं कर सकता, जब न तो राज्य, न ही पीड़ित, न ही शिकायतकर्त्ता ने ऐसी वृद्धि की मांग करते हुए कोई अपील या पुनरीक्षण दायर किया हो।
  • न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 386(b)(iii) में स्पष्ट रूप से दोषी द्वारा दोषसिद्धि के विरुद्ध दायर अपील में सजा में वृद्धि पर रोक लगाई गई है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी दोषी के कहने पर अपीलीय अधिकारिता का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायालय पुनरीक्षण न्यायालय के रूप में कार्य नहीं कर सकता, विशेषकर तब जब राज्य, पीड़ित, या शिकायतकर्त्ता द्वारा सजा में वृद्धि की मांग करते हुए कोई अपील या पुनरीक्षण दायर नहीं किया गया हो।
  • न्यायालय ने पाया कि सजा बढ़ाने के लिये अपीलीय न्यायालय की शक्तियों के प्रयोग के लिये, CrPC विशिष्ट प्रावधान प्रदान करता है, और ऐसी वृद्धि पर राज्य, पीड़ित या शिकायतकर्त्ता द्वारा अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण बताने का अवसर देने के बाद ही विचार किया जा सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने निर्धारित किया कि उच्च न्यायालय ने अपीलकर्त्ता पर अध्यारोपित की गई सजा बढ़ाने के लिये मामले को विशेष न्यायालय को वापस भेजने में चूक की, विशेष रूप से अभियुक्त द्वारा अपनी दोषसिद्धि एवं सजा को रद्द करने की मांग करने वाली अपील में।
  • न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय और परिणामस्वरूप विशेष न्यायालय के आदेश त्रुटिपूर्ण थे तथा इसके कारण अपीलकर्त्ता को मूल सजा से चार वर्ष से अधिक कारावास भुगतना पड़ा।
  • उच्चतम न्यायालय ने सात वर्ष की मूल सजा को बहाल करने के लिये भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपनी शक्तियों का प्रयोग किया तथा अपीलकर्त्ता की त्वरित रिहाई का आदेश दिया, क्योंकि वह पहले ही निर्धारित अवधि से अधिक सजा काट चुका था।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 427 क्या है?

  • धारा 427(c) विशेष रूप से सजा बढ़ाने की अपील से निपटान करने के दौरान अपीलीय न्यायालय की शक्तियों को संबोधित करती है। 
  • नए आपराधिक विधानों से पहले यह प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 386 के अंतर्गत आता था। 
  • अपीलीय न्यायालय को सजा बढ़ाने की अपील में कार्यवाही के तीन अलग-अलग तरीकों से सशक्त किया गया है:
    • उप-खण्ड (i) के अन्तर्गत न्यायालय अपने निष्कर्ष और सजा को पलट सकता है, तथा अभियुक्त को दोषी या दोषमुक्त कर सकता है, या सक्षम न्यायालय द्वारा पुनः सुनवाई का आदेश दे सकता है।
    • उप-खण्ड (ii) के अन्तर्गत न्यायालय अपने निष्कर्ष को बदल सकता है, जबकि पहले दी गई सजा को यथावत रख सकता है।
    • उप-खण्ड (iii) के अन्तर्गत न्यायालय अपने निष्कर्ष को बदले बिना या बदले, सजा की प्रकृति या सीमा, या प्रकृति और सीमा दोनों को संशोधित कर सकता है, या तो उसे बढ़ा सकता है या घटा सकता है।
  • यह प्रावधान एक स्पष्ट रूपरेखा तैयार करता है जिसके अंतर्गत सजा में वृद्धि तभी हो सकती है जब वृद्धि के लिये विशेष रूप से अपील दायर की गई हो।
  • यह विधि खंड (b) के अंतर्गत दोषसिद्धि से अपील और खंड (c) के अंतर्गत वृद्धि के लिये अपील के बीच स्पष्ट रूप से अंतर करता है, प्रत्येक परिदृश्य के लिये अलग-अलग प्रक्रियाएँ एवं शक्तियाँ स्थापित करता है।
  • इस प्रावधान को पहले प्रावधान के साथ पढ़ा जाना चाहिये जो यह अनिवार्य करता है कि अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के विरुद्ध कारण बताने का अवसर दिये बिना सजा में वृद्धि का आदेश नहीं दिया जा सकता है।
  • दूसरा प्रावधान यह निर्धारित करके अपीलीय न्यायालय की सजा बढ़ाने की शक्ति पर सीमा लगाता है कि वह अपील के अंतर्गत आदेश या सजा पारित करने वाले मूल न्यायालय द्वारा लगाए जा सकने वाले दण्ड से अधिक दण्ड नहीं लगा सकता है।
  • खण्ड (c) इस प्रकार सजा बढ़ाने के लिये एक पूर्ण सांविधिक योजना बनाता है जो विशेष रूप से वृद्धि की मांग करने वाली उचित रूप से गठित अपील के ढाँचे के अंदर ही प्रयोग योग्य है।
  • विधायी मंशा स्पष्ट रूप से स्थापित करती है कि वृद्धि शक्तियाँ वृद्धि की मांग करने के विशिष्ट उद्देश्य से दायर अपीलों तक सीमित हैं, सामान्यतया राज्य, शिकायतकर्त्ता या पीड़ित द्वारा, और अभियुक्त द्वारा दोषसिद्धि को चुनौती देने वाली अपीलों में नहीं।

संदर्भित मामले

नादिर खान बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन), (1975):

  • इस मामले में यह पूछा गया कि क्या उच्च न्यायालय को CrPC  की धारा 401 के अंतर्गत पुनरीक्षण में धारा 377 के अधीन सजा की अपर्याप्तता के विरुद्ध राज्य द्वारा अपील के अभाव में सजा में वृद्धि करने का अधिकार है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि उच्च न्यायालय के पास उचित मामलों में आपराधिक पुनरीक्षण में स्वप्रेरणा से कार्यवाही करने का निस्संदेह अधिकार है, तब भी जब राज्य ने धारा 377 के अंतर्गत अपील नहीं की हो। 
  • न्यायालय ने कहा कि धारा 401 स्पष्ट रूप से किसी अन्य एजेंसी के हस्तक्षेप के बिना रिकॉर्ड मांगने की उच्च न्यायालय की शक्ति को संरक्षित करती है, जब कुछ असाधारण तथ्य उसके संज्ञान में आती है तो शक्ति के प्रयोग को जीवित रखती है।

एकनाथ शंकरराव मुक्कवर बनाम महाराष्ट्र राज्य, (1977):

  • इस मामले में, उच्चतम न्यायालय की तीन जजों की पीठ ने इस तर्क को खारिज कर दिया कि उच्च न्यायालय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 401 के अंतर्गत अपनी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करके स्वप्रेरणा से सजा नहीं बढ़ा सकता।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि नई दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 ने स्वप्रेरणा से पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करके सजा में वृद्धि करने की उच्च न्यायालय की शक्ति को समाप्त नहीं किया है।
  • न्यायालय ने माना कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 401 के साथ धारा 397 के अधीन पुनरीक्षण की स्वप्रेरणा शक्ति का प्रयोग करके उचित मामलों में सजा बढ़ाने की उच्च न्यायालय की शक्ति अभी भी प्राप्त है।