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वाणिज्यिक विधि
नोटिस का उत्तर देने में असफलता
«23-May-2025
"मध्यस्थ की नियुक्ति केवल दोनों पक्षकारों की सम्मति से ही की जा सकती है और कोई भी एकतरफा नियुक्ति शून्य होगी तथा किसी पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार द्वारा कार्य करने के लिये कहे जाने पर मात्र निष्क्रियता से मध्यस्थ की ऐसी नियुक्ति के लिये उस पक्षकार की विवक्षित सम्मति या मौन स्वीकृति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।" न्यायमूर्ति ज्योति सिंह |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति ज्योति सिंह की पीठ ने ने यह निर्णय दिया कि किसी पक्षकार द्वारा कार्रवाई करने के लिये कहे जाने पर दूसरे पक्षकार द्वारा कार्रवाई न करने से मध्यस्थ की नियुक्ति के लिये उस पक्षकार की विवक्षित सम्मति या मौन स्वीकृति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने मेसर्स सुप्रीम इन्फ्रास्ट्रक्चर इंडिया बनाम फ्रेसीसिनेट मरमद इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
मेसर्स सुप्रीम इन्फ्रास्ट्रक्चर इंडिया बनाम फ्रेसिनेट मरमद इंडिया प्राइवेट (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- याचिकाकर्त्ता, जो निर्माण कार्य में लगी एक गैर-सरकारी लोक कंपनी है, को 15 अक्टूबर 2012 को प्रगति मैदान, नई दिल्ली के निकट उच्चतम न्यायालय के लिये एक अतिरिक्त कार्यालय परिसर के निर्माण हेतु एक परियोजना प्रदान की गई थी।
- 6 फरवरी 2013 को, याचिकाकर्त्ता ने प्रत्यर्थी को प्री-स्ट्रेस्ड सिल एंकर के डिजाइन, आपूर्ति और स्थापना के लिये कार्य आदेश जारी किया।
- कार्य आदेश में याचिकाकर्त्ता द्वारा दिया गया पता था “सुप्रीम सिटी, हीरानंदानी कॉम्प्लेक्स, चित्रथ स्टूडियो के पास, पवई, मुंबई, 400076” था।
- 24 जुलाई 2014 को केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (Central Public Works Department) ने याचिकाकर्त्ता के साथ संविदा समाप्त कर दी।
- कार्य आदेश में एक विवाद समाधान खण्ड सम्मिलित था, जिसमें भारतीय विधि के अधीन माध्यस्थम् की बात कही गई थी, जिसका माध्यस्थम् केंद्र नई दिल्ली में होगा।
- प्रत्यर्थी ने कथित तौर पर माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 (A & C Act) की धारा 21 के अधीन नोटिस भेजकर माध्यस्थम् का आह्वान किया, और एकतरफा रूप से एकमात्र मध्यस्थ नियुक्त किया।
- याचिकाकर्त्ता का दावा है कि उसे मध्यस्थ से धारा 21 का नोटिस या कोई संसूचना कभी प्राप्त नहीं हुई, इसलिये उसे माध्यस्थम् कार्यवाही की जानकारी नहीं थी।
- 15 मार्च 2016 को एकतरफा माध्यस्थम् पंचाट पारित किया गया था, किंतु निर्णय की हस्ताक्षरित प्रति कथित तौर पर याचिकाकर्त्ता को कभी परिदत्त नहीं की गई।
- 2019 में, प्रत्यर्थी ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष एक निष्पादन याचिका (संख्या 566/2019) दायर की, जिसे स्टांप शुल्क का संदाय न करने के कारण 27 अक्टूबर 2021 को वापस ले लिया गया।
- स्टाम्प शुल्क संदाय के पश्चात् एक दूसरी निष्पादन याचिका (वाणिज्यिक निष्पादन संख्या 14691/2022) पुन: दायर की गई थी, किंतु 17 अक्टूबर 2022 को पुन: वापस ले ली गई, यह गलत धारणा का हवाला देते हुए कि याचिकाकर्त्ता परिसमापन के अधीन था।
- 10 अप्रैल 2024 को प्रत्यर्थी ने NCLT, मुंबई के समक्ष दिवाला और दिवालियापन संहिता, 2016 की धारा 9 के अधीन एक याचिका दायर की।
- याचिकाकर्त्ता को माध्यस्थम् कार्यवाही और निर्णय के बारे में NCLT से 28 जून 2024 को एक ईमेल प्राप्त होने पर ही पता चला , जिसमें IBC याचिका की एक प्रति संलग्न थी।
- याचिकाकर्त्ता का दावा है कि धारा 21 के अधीन नोटिस की कमी, मध्यस्थ की एकतरफा नियुक्ति और हस्ताक्षरित माध्यस्थम् पंचाट की प्राप्ति न होने के कारण माध्यस्थम् कार्यवाही और पंचाट अमान्य हैं।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि हस्ताक्षरित निर्णय की सुपुर्दगी महज औपचारिकता नहीं है; यह अधिनियम की धारा 33 और 34 के अधीन आवेदन दाखिल करने के लिये महत्त्वपूर्ण परिसीमा काल की शुरुआत करता है।
- अलुप्रो बिल्डिंग सिस्टम्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम ओजोन ओवरसीज प्राइवेट लिमिटेड (2017) में, न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि माध्यस्थम् की कार्यवाही तभी प्रारंभ होती है जब प्रत्यर्थी को धारा 21 के अधीन नोटिस प्राप्त होता है जिसमें विवाद को माध्यस्थम् के लिए संदर्भित करने का अनुरोध किया जाता है।
- नोटिस का उद्देश्य प्रत्यर्थी को दावों के बारे में सूचित करना, संभावित रूप से विवादों को कम करना या माध्यस्थम् से पूर्व हल करना है, जिससे माध्यस्थम् प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जा सके।
- न्यायालयों ने कहा है कि बिना सम्मति या माध्यस्थम् खण्ड के उचित आह्वान के, एकतरफा मध्यस्थ की नियुक्ति करना धारा 21 का उल्लंघन है और विधिक रूप से अस्वीकार्य है।
- धारा 12(1) में 2015 के संशोधन से पूर्व भी यह स्थापित विधि थी कि माध्यस्थम् के लिये आपसी सहमति (सर्वसम्मति) की आवश्यकता होती है, और कोई भी एकतरफा नियुक्ति शून्य है।
- विनीत दुजोदवाला बनाम दिल्ली राज्य (2024) के निर्णय में पुष्टि की कि मध्यस्थ की एकतरफा नियुक्ति अन्य प्रक्रियात्मक दोषों की परवाह किये बिना, पंचाट को रद्द करने के लिये पर्याप्त है।
- कर्नल एच.एस. बेदी (सेवानिवृत्त) बनाम एस.टी.सी.आई. फाइनेंस लिमिटेड (2020) में न्यायालय ने निर्णय दिया कि धारा 21 के नोटिस का उत्तर देने में किसी पक्षकार की असफलता एकतरफा नियुक्ति के लिये विवक्षित सम्मति नहीं है; सही मार्ग धारा 11 के अधीन न्यायालय से संपर्क करना है।
- न्यायालय ने अंततः निर्णय दिया कि धारा 21 के अधीन वैध नोटिस के अभाव, मध्यस्थ की एकतरफा नियुक्ति तथा हस्ताक्षरित निर्णय न दिये जाने के कारण 15 मार्च 2016 का माध्यस्थम् निर्णय अपास्त किया जाए।
- बनारसी कृष्णा समिति एवं अन्य बनाम कर्मयोगी शेल्टर्स प्राइवेट लिमिटेड, (2012) 9 एससीसी 496 में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘माध्यस्थम् कार्यवाही में पक्षकार' का अर्थ माध्यस्थम् करार में पक्षकार है और यदि हस्ताक्षरित पंचाट की प्रति पक्षकार को नहीं दी जाती है, तो यह 1996 अधिनियम की धारा 31(5) के उपबंधों का अनुपालन नहीं होगा, जो एक उपबंध है जो माध्यस्थम् पंचाट के स्वरूप और सामग्री से संबंधित है।
- उपर्युक्त निर्णयों को पढ़ने से यह स्पष्ट है कि धारा 31(5) के अधीन माध्यस्थम् पंचाट की सुपुर्दगी एक खाली औपचारिकता नहीं है और चूंकि धारा 31 के अधीन चरण बीत जाने के पश्चात् ही धारा 32 के अधीन माध्यस्थम् कार्यवाही की समाप्ति का चरण आता है और पंचाट की पक्षकार द्वारा प्राप्ति के पश्चात् कई परिसीमा काल प्रारंभ होता है जैसे कि धारा 33(1) के अधीन सुधार के लिये आवेदन और 1996 अधिनियम की धारा 34(3) के अधीन पंचाट को पृथक् रखने के लिये आवेदन आदि। 1996 अधिनियम की धारा 31(5) को पढ़ने से इस बात पर कोई संदेह नहीं रह जाता है कि पंचाट की एक 'हस्ताक्षरित प्रति' माध्यस्थम् करार के 'पक्षकार' को परिदत्त की जानी चाहिये। वर्तमान मामले में, पंचाट की हस्ताक्षरित प्रति आज तक याचिकाकर्त्ता को प्राप्त नहीं हुई है, एक निर्विवाद तथ्य है, और इसलिये, धारा 34(3) के अधीन विहित परिसीमा काल प्रारंभ नहीं हुआ है। इसके आलोक में, यह माना जाता है कि याचिका पर परिसीमा का प्रतिबंध नहीं है
- अब यह अनिवार्य नहीं है कि किसी विशेष विवाद के संबंध में माध्यस्थम् कार्यवाही उस तिथि से प्रारंभ हो जिस तिथि को उस विवाद को माध्यस्थम् के लिये भेजे जाने का अनुरोध प्रतिवादी द्वारा प्राप्त हो, जब तक कि पक्षकारों द्वारा अन्यथा सहमति न हो।
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 21 के अधीन नोटिस की आवश्यकता क्या है?
- अधिनियम की धारा 21 में अधिनियम के अधीन नोटिस की आवश्यकता का उपबंध है।
- इसमें उल्लिखित महत्त्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं:
- प्रारंभ अनुरोध प्राप्ति पर निर्भर करता है: माध्यस्थम् कार्यवाही तब प्रारंभ होती है जब प्रत्यर्थी को विवाद को माध्यस्थम् के लिये संदर्भित करने का अनुरोध प्राप्त होता है।
- पक्षकार करार नियम परिवर्तित कर सकता है : यह नियम तब तक लागू होता है जब तक कि पक्षकारों ने प्रारंभ के लिये किसी भिन्न तारीख या विधि पर पारस्परिक रूप से सहमति नहीं जताई हो।
- प्राप्ति तिथि महत्त्वपूर्ण है : प्रतिवादी द्वारा अनुरोध की प्राप्ति की वास्तविक तिथि यह निर्धारित करती है कि माध्यस्थम् आधिकारिक रूप से कब प्रारंभ होगा।
माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 21 के अधीन नोटिस पर ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?
- अलुप्रो बिल्डिंग सिस्टम्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम ओजोन ओवरसीज प्राइवेट लिमिटेड (2017, डी.एच.सी.):
- न्यायालय ने अधिनियम की धारा 21 के अधीन नोटिस जारी करने के महत्त्व और अधिदेश पर बल दिया।
- यह माना गया कि धारा 21 को सरलता से पढ़ने पर यह पता चलता है कि जहाँ पक्षकार इसके विपरीत सहमत हो गए हों, वहाँ माध्यस्थम् कार्यवाही प्रारंभ होने की तारीख वह तारीख होगी जिस दिन नोटिस के प्राप्तकर्त्ता को दावेदार से विवाद को माध्यस्थम् के लिये संदर्भित करने का अनुरोध प्राप्त होता है।
- नोटिस के पीछे का उद्देश्य इस प्रकार है:
- माध्यस्थम् करार में जिस पक्षकार के विरुद्ध दावा किया गया है, उसे पता होना चाहिये कि दावे क्या हैं और यह संभव है कि नोटिस के उत्तर में, नोटिस प्राप्तकर्त्ता कुछ दावों को पूर्णतः या आंशिक रूप से स्वीकार कर ले और विवाद कम हो जाएं।
- इससे विवादों को सुलझाने में सहायता मिल सकती है और माध्यस्थम् के संदर्भ से बचा जा सकता है।
- श्रीराम ट्रांसपोर्ट फाइनेंस कंपनी लिमिटेड बनाम नरेंद्र सिंह (2022):
- न्यायालय ने कहा कि यदि प्राप्तकर्त्ता को धारा 21 के अंतर्गत कोई नोटिस प्राप्त नहीं होता है, तो माध्यस्थम् कार्यवाही प्रारंभ नहीं होती है।