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आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360

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 08-Jul-2025

जॉर्ज अलेक्जेंडर @ प्रिंस बनाम केरल राज्य 

"यद्यपि अभियोजन वापसी हेतु प्रस्तुत आवेदनों में अभियोजक द्वारा अनेक ठोस आधारों को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया था, तथापि उन आधारों में से किसी पर भी विचार नहीं किया गया अथवा विचारण न्यायालय द्वारा संबोधित नहीं किया गया ।" 

न्यायमूर्ति कौसर एडापागाथ 

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, केरल उच्च न्यायालय नेयह निर्णय दिया कि एक अभियुक्त भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360/ दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के अधीन अभियोजन वापस लेने के लिये सम्मति देने से विचारण न्यायालय के मनमाने और अतार्किक इंकार को स्वतंत्र रूप से चुनौती दे सकता है, भले ही राज्य अपील न करे।  

  • केरलउच्च न्यायालय नेजॉर्ज अलेक्जेंडर @ प्रिंस बनाम केरल राज्य (2025)मामले में यह निर्णय सुनाया । 

जॉर्ज अलेक्जेंडर @ प्रिंस बनाम केरल राज्य (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • वर्तमान मामला केरल उच्च न्यायालय के समक्ष दो पुनरीक्षण याचिकाओं के माध्यम से आया, जिसमें अभियुक्तों ने विचारण न्यायालय के आदेशों को चुनौती दी थी, जिसमें उनके विरुद्ध अभियोजन वापस लेने की सम्मति देने से इंकार कर दिया गया था। न्यायमूर्ति कौसर एडप्पागथ ने 2017 के Crl.R.P. No. 268 और 2017 के Crl.R.P. No. 23 की समेकित सुनवाई की अध्यक्षता की। दोनों मामलों में एक समान विधिक प्रश्न प्रस्तुत किया गया कि क्या कोई अभियुक्त व्यक्ति भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 (दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321) के अधीन अभियोजन वापस लेने की सम्मति देने से इंकार करने वाले विचारण न्यायालय के आदेश को चुनौती दे सकता है, जब राज्य ने ऐसे आदेशों को चुनौती नहीं देने का विकल्प चुना हो। 
  • पहली पुनरीक्षण याचिका 2013 के S.C. No. 684 से उत्पन्न हुई थी जो थालास्सेरी के अतिरिक्त सहायक सेशन न्यायालय के समक्ष लंबित थी। इस मामले में याचिकाकर्त्ता आरोपी नंबर 1 से 5 और 7 से 9 थे, जिन पर विभिन्न सांविधिक उपबंधों के अधीन कई गंभीर आरोप लगे थे। इन अभियुक्तों के विरुद्ध लगाए गए अपराध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 143, 147, 148, 452, 427, 332 और 152 के साथ धारा 149 के अधीन दण्डनीय थे। इसके अतिरिक्त, उन पर विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 और 5, शस्त्र अधिनियम की धारा 25 (1), लोक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम की धारा 7 के साथ धारा 3 (1) और केरल पुलिस अधिनियम की धारा 52 के साथ धारा 38 के अधीन आरोप लगाए गए थे। 
  • अभियुक्त व्यक्ति पहले विचारण न्यायालय में पेश हुए और बाद में उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया। उनकी रिहाई के पश्चात्, लोक अभियोजक ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के अधीन CMP No. 1203/2015 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें सभी अभियुक्तों के विरुद्ध अभियोजन को वापस लेने की मांग की गई। माननीय अतिरिक्त सहायक सेशन न्यायाधीश ने आवेदन पर विचार करने के बाद 28.07.2015 के आदेश के माध्यम से इसे खारिज कर दिया। इस खारिज से व्यथित होकर, अभियुक्त व्यक्तियों ने अभियोजन वापिस लेने के लिये सम्मति देने से विचारण न्यायालय के इंकार को चुनौती देते हुए Crl.R.P. No. 268/2017 दायर करके केरल उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।  
  • दूसरी पुनरीक्षण याचिका प्रथम वर्ग के न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय, तिरुवल्ला की फाइलों पर CC No. 689/2009 से उभरी। इस मामले में एकमात्र अभियुक्त शामिल था जिस पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 466 और 468 के अधीन दण्डनीय अपराधों का आरोप लगाया गया था। धारा 466 न्यायालय के अभिलेख की या लोक रजिस्टर आदि की कूटरचना से संबंधित है, जबकि धारा 468 छल के प्रयोजन से कूटरचना से संबंधित है। अभियुक्त विचारण न्यायालय के समक्ष पेश हुआ और प्रारंभिक कार्यवाही के बाद उसे जमानत पर रिहा कर दिया गया। 
  • तत्पश्चात्, सहायक लोक अभियोजक ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 के अनुरूप) के अधीन Crl.M.P. No. 7326/2016 के अधीन एक आवेदन दायर किया, जिसमें अभियुक्त के विरुद्ध अभियोजन वापिस लेने की मांग की गई। माननीय मजिस्ट्रेट ने आवेदन की जांच करने के पश्चात्, 07.12.2016 के आदेश के माध्यम से इसे खारिज कर दिया। अभियुक्त, इस खारिज से असंतुष्ट होकर, अभियोजन वापस लेने के लिये सम्मति देने से विचारण न्यायालय के इंकार को चुनौती देते हुए केरल उच्च न्यायालय के समक्ष Crl.R.P. No. 23/2017 दायर किया। 
  • दोनों पुनरीक्षण याचिकाओं में यह एकसमान विधिक प्रश्न उठाया गया था कि-जब अभियोजन पक्ष द्वारा अभियोजन वापसी से इंकार किये गए आदेश को चुनौती नहीं दी गई हो, तो क्या ऐसे आदेश के विरुद्ध अभियुक्तगण द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिकाएँ पोषणीय मानी जा सकती हैं। इन पुनरीक्षण याचिकाओं की सुनवाई के दौरान, केरल उच्च न्यायालय ने अभियुक्त व्यक्तियों द्वारा दायर ऐसी याचिकाओं की स्थिरता के बारे में संदेह व्यक्त किया। परिणामस्वरूप, पुनरीक्षण याचिकाकर्त्ताओं के विद्वान वकील और विद्वान लोक अभियोजक से अनुरोध किया गया कि वे संबंधित मामलों की स्वीकार्यता के साथ-साथ स्थिरता के प्रश्न पर विस्तृत तर्क दें। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • विधायी ढाँचा और कार्यकारी कार्य:न्यायालय ने अवलोकन किया कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की योजना के अन्तर्गत अभियोजन का उत्तरदायित्व मुख्यतः कार्यपालिका पर है, तथा अभियोजन वापसी एक कार्यपालिकीय कार्य है, जहाँ भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 में दोहरी आवश्यकताओं का उपबंध है - अभियोजन वापसी हेतु आवेदन लोक अभियोजक अथवा सहायक लोक अभियोजक द्वारा किया जाना चाहिये, तथा ऐसे आवेदन पर न्यायालय की सम्मति प्राप्त करना अनिवार्य है 
  • धारा 360 का उद्देश्य और प्रयोजन:न्यायालय ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 का उद्देश्य न्यायपालिका की देखरेख में कार्यकारी सरकार के लिये शक्तियां आरक्षित करना है, जिससे लोक नीति के व्यापक आधार पर आपराधिक मामलों को वापस लिया जा सके, साथ ही अभियुक्त व्यक्तियों को अनावश्यक और कष्टदायक अभियोजन से बचाया जा सके, जो न्यायिक निगरानी के साथ कार्यकारी विवेक को संतुलित करने के विधायी आशय को दर्शाता है। 
  • न्यायिक कार्य और न्यायालय की भूमिका:न्यायालय ने कहा कि यह उपबंध न्यायालय द्वारा न्यायिक क्षमता के बजाय पर्यवेक्षणात्मक तरीके से सम्मति प्रदान करने पर विचार करता है, जहाँ न्यायालय का कर्त्तव्य उन आधारों पर पुनर्विचार करना नहीं है जिनके कारण लोक अभियोजक ने वापसी का अनुरोध किया, अपितु यह विचार करना है कि क्या लोक अभियोजक ने अप्रासंगिक विचारों से अप्रभावित एक स्वतंत्र प्रतिनिधि के रूप में अपने विवेक का प्रयोग किया था। 
  • पुनरीक्षण अधिकारिता और सुनवाई का अधिकार:न्यायालय ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 442 के साथ धारा 438 के अधीन उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण अधिकारिता किसी भी निष्कर्ष, दण्ड या आदेश की शुद्धता, वैधानिकता या औचित्य की जांच करने की उसकी पर्यवेक्षी शक्ति को संदर्भित करता है, और यदि अन्य पक्षकार पुनरीक्षण में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 के अधीन पारित आदेशों को चुनौती दे सकते हैं, तो कोई कारण नहीं है कि एक अभियुक्त, जो वास्तविक व्यथित पक्षकार है, इन उपबंधों के अधीन पुनरीक्षण नहीं कर सकता। 
  • अभियुक्त द्वारा चुनौती देने का अधिकार:न्यायालय ने कहा कि यदि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 के अधीन अभियोजन को वापस लेने के लिये सम्मति देने से इंकार करने वाला आदेश प्रासंगिक सामग्रियों पर विचार किये बिना पारित किया गया हो, अथवा यदि वह आदेश स्पष्ट रूप से अवैध, मनमाना, या विकृत हो, जिससे न्याय का घोर उल्लंघन होता हो, तो अभियुक्त, जो कि प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित पक्षकार है, को पूर्ण अधिकार है कि वह ऐसे आदेश को पुनरीक्षण में चुनौती दे, भले ही राज्य सरकार ने उस आदेश को चुनौती न दी हो।   
  • विचारण न्यायालय की कमियां:न्यायालय ने पाया कि दोनों ही आदेश स्पष्ट आदेश नहीं थे तथा न्यायिक निर्णय लेने की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने में असफल रहे, साथ ही अभियोजन वापस लेने के लिये अभियोजक द्वारा दायर आवेदनों को अनुमति न देने के लिये कोई कारण नहीं बताए गए, तथा विचारण न्यायालय द्वारा तर्कपूर्ण आदेश देने में असफलता तथा प्रासंगिक सामग्रियों पर विचार न करना न्याय की असफलता के समान था। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 360 क्या है? 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 360, लोक अभियोजकों और सहायक लोक अभियोजकों को न्यायालय की अनुमति से आपराधिक मामलों में अभियोजन को वापस लेने का अधिकार देती है। 
  • यह उपबंध अंतिम निर्णय सुनाए जाने से पूर्व किसी भी समय, अभियुक्त के विरुद्ध सभी आरोपों या विशिष्ट आरोपों को वापस लेने की अनुमति देता है। 
  • विधिक परिणाम वापसी के समय पर निर्भर करता है - यदि आरोप विरचित होने से पूर्व ऐसा किया जाता है, तो अभियुक्त को उन्मोचित कर दिया जाता है, जबकि आरोप विरचित होने के पश्चात् वापसी के परिणामस्वरूप दोषमुक्त कर दिया जाता है। केंद्रीय मामलों, केंद्रीय विधियों, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुँचाने या पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान केंद्र सरकार के कर्मचारियों द्वारा किये गए अपराधों से संबंधित मामलों के लिये केंद्र सरकार से विशेष अनुमति की आवश्यकता होती है। 

अभियोजन वापस लेने पर ऐतिहासिक निर्णय 

  • अब्दुल वहाब के. बनाम केरल राज्य (2018):उच्चतम न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि लोक अभियोजकों तथा सहायक लोक अभियोजकों की भूमिका विधिक व्यवस्था के अंतर्गत अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं स्वतंत्र होती है। उन्हें अभियोजन वापसी की अनुमति प्रदान करने से पूर्व स्वतंत्र रूप से विचार करना होता है तथा इस बात पर गंभीरता से विचार करना आवश्यक होता है कि ऐसा निर्णय समाज पर क्या प्रभाव डालेगा। लोक अभियोजकों को केवल सरकारी प्रतिनिधि के रूप में नहीं, अपितु एक स्वतंत्र न्यायिक अधिकारी के रूप में कार्य करना चाहिये 
  • केरल राज्य बनाम के. अजीत और अन्य (2021):इस निर्णय में न्यायालय ने अभियोजन वापसी के आवेदनों पर विचार करते समय न्यायालय द्वारा अपनाए जाने वाले व्यापक दिशा-निर्देशों को स्पष्ट किया। न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि लोक अभियोजक द्वारा किया गया निर्णय अनुचित रूप से या दुराशयपूर्वक न किया गया हो; आवेदन सद्भावनापूर्वक किया गया हो तथा इसका उद्देश्य लोक नीति एवं न्याय के हित में हो, न कि विधिक प्रक्रिया को बाधित करना। आवेदन में ऐसी कोई अनियमितता नहीं होनी चाहिये जिससे स्पष्ट अन्याय हो। न्यायालय की सम्मति न्याय के प्रशासन को ही लाभ पहुँचाने वाली होनी चाहिये तथा अभियोजन वापस लेने की अनुमति अवैध उद्देश्यों अथवा न्याय की प्रतिपूर्ति से असंबंधित कारणों से न मांगी गई हो।