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आपराधिक कानून
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124क
« »07-Jul-2025
सफदर नागोरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य “भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 124-क के अधीन कार्यवाही पर रोक लगाने संबंधी इसके वर्ष 2022 के आदेश के प्रभावस्वरूप उच्च न्यायालयों को राजद्रोह के अपराधों में दोषसिद्धि के विरुद्ध अपीलों का निर्णय करने से रोका जाना चाहिये।” न्यायमूर्ति पमिदिघंतम श्री नरसिम्हा और आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
सफदर नागोरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में भारत के उच्चतम न्यायालय ने इस बात की जांच की कि क्या भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 124-क के अधीन कार्यवाही पर रोक लगाने संबंधी इसके वर्ष 2022 के आदेश के प्रभावस्वरूप उच्च न्यायालयों को राजद्रोह के अपराधों में दोषसिद्धि के विरुद्ध अपीलों का निर्णय करने से रोका जाना चाहिये।
सफदर नागोरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
पृष्ठभूमि:
- याचिकाकर्त्ता : सफ़दर नागोरी
- दोषसिद्धि : 2017 में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क (राजद्रोह) के साथ अन्य आरोपों के अधीन दोषसिद्ध ठहराया गया।
- कारावास अवधि : 18 वर्षों का कारावास (जिससे संकेत मिलता है कि गिरफ्तारी वर्ष 2007 के आसपास हुई)।
- अपील की स्थिति : याचिकाकर्त्ता ने अपनी दोषसिद्धि के विरुद्ध मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में अपील दायर की।
न्यायिक दुविधा:
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता की दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील पर पूर्णतः सुनवाई की।
- यद्यपि, उच्च न्यायालय ने जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय के मई 2022 के आदेश का हवाला देते हुए निर्णय सुनाना टाल दिया।
- वर्ष 2022 के आदेश में निदेश दिया गया कि राजद्रोह विधि की सांविधानिक समीक्षा होने तक "भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क के अधीन विरचित किये गए आरोपों के संबंध में सभी लंबित विचारण, अपील और कार्यवाही स्थगित रखी जाएं।"
- याचिकाकर्त्ता की अपील केवल राजद्रोह के आरोप से संबंधित है, क्योंकि वह पहले ही अन्य अपराधों के लिये दण्ड भोग चुका है।
उच्चतम न्यायालय के समक्ष तर्क:
याचिकाकर्त्ता के तर्क:
- याचिकाकर्त्ता की अपील केवल राजद्रोह के आरोप से संबंधित है, क्योंकि वह पहले ही अन्य अपराधों के लिये दण्ड भोग चुका है।
- जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ मामले में रोक के आदेश का उद्देश्य कभी भी समाप्त हो चुके मामलों में पूरी तरह से तर्कपूर्ण अपीलों पर लागू होना नहीं था।
- वर्ष 2022 के आदेश ने न्यायिक दुविधा उत्पन्न कर दी है, जहाँ उच्च न्यायालय पूरी सुनवाई के बाद भी अपील पर निर्णय देने से इंकार कर रहा हैं।
- इस स्थिति में याचिकाकर्ता अपीलीय उपचार से वंचित रहकर निरंतर कारावास में है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
- न्यायालय से यह स्पष्ट करने का आग्रह किया गया कि क्या धारा 124-क के आरोपों से संबंधित अपीलों पर निर्णय तब दिया जा सकता है जब सुनवाई पूर्ण हो चुकी हो तथा कोई नया विचारण या जांच लंबित न हो।
सांविधानिक निहितार्थ उठाए गए:
- संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर गंभीर प्रभाव।
- न्यायिक दक्षता और राजद्रोह विधियों की चल रही सांविधानिक समीक्षा के बीच तनाव।
- रोक के आदेश के उद्देश्य को लंबे समय से कारावास में रह रहे लोगों के अधिकारों के साथ संतुलित करने की आवश्यकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
न्यायिक पीठ:
- इस मामले की सुनवाई दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की गई, जिसमें सम्मिलित थे:
- माननीय न्यायमूर्ति श्री पामिदिघंतम श्री नरसिम्हा
- माननीय न्यायमूर्ति श्री आर. महादेवन
मुख्य अवलोकन:
- विचारण स्थिति की स्वीकृति:
- न्यायालय ने स्वीकार किया कि याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध विचारण “वास्तव में पूर्ण हो चुका है, जिसमें अभियोजन पक्ष तथा बचाव पक्ष द्वारा अंतिम प्रस्तुतीकरण कर दिया गया है।”
- 2022 के आदेश का निर्वचन:
- न्यायालय ने एस.जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ मामले में 11 मई 2022 को पारित आदेश के पैराग्राफ 8(घ) के संचालन के बारे में स्पष्टीकरण की आवश्यकता पर ध्यान दिया, जिसमें कहा गया है कि, "भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क के अधीन विरचित किये गए आरोपों के संबंध में सभी लंबित विचारण, अपील और कार्यवाही स्थगित रखी जानी चाहिये। यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अभियुक्त पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होगा, तो अन्य धाराओं से संबंधित निर्णय की प्रक्रिया आगे बढ़ सकती है।"
- सांविधानिक निहितार्थ:
- न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर पड़ने वाले गंभीर प्रभावों को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया, जैसा कि याचिकाकर्त्ता के अधिवक्ता ने अपीलीय उपचार के बिना लंबे समय तक कारावास के संबंध में उजागर किया था।
न्यायालय का निर्णय और निर्देश:
- नोटिस जारी करना:
- उच्चतम न्यायालय ने मामले में नोटिस जारी किया, जिसमें संकेत दिया गया कि उसे जी. वोम्बटकेरे बनाम भारत संघ में 2022 के आदेश के दायरे के संबंध में उठाए गए प्रश्न की जांच करने में योग्यता मिली ।
- प्रशासनिक निर्देश:
- न्यायालय ने निर्देश दिया कि विशेष अनुमति याचिका को भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश से निर्देश प्राप्त करने के बाद 25 जुलाई, 2025 को उपयुक्त पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया जाए।
- सूचीबद्धता करने का महत्त्व:
- "उपयुक्त पीठ" के समक्ष सूचीबद्ध करने का निर्देश यह सुझाव देता है कि इस मामले को इसके सांविधानिक निहितार्थों और 2022 के आदेश की आधिकारिक निर्वचन की आवश्यकता को देखते हुए एक बड़ी पीठ या विशेष पीठ द्वारा विचार करने की आवश्यकता हो सकती है।
- न्यायिक मान्यता:
- नोटिस जारी करके, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति आर. महादेवन ने प्रभावी रूप से माना कि यह मामला न्यायिक रोक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन के बारे में एक वास्तविक सांविधानिक प्रश्न प्रस्तुत करता है, विशेष रूप से ऐसे मामलों में जहाँ अपीलों पर पूरी सुनवाई हो चुकी है किंतु रोक के आदेश के कारण निर्णय लंबित हैं।
राजद्रोह विधि क्या है?
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- राजद्रोह संबंधी विधि सर्वप्रथम 17 वीं शताब्दी में इंग्लैंड में लागू की गई थी, जब विधिनिर्माताओं का मानना था कि सरकार के बारे में केवल अच्छी राय ही मान्य होनी चाहिये, क्योंकि बुरी राय सरकार और राजतंत्र के लिये हानिकारक होती है।
- इस विधि का मसौदा मूलतः 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार-राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, किंतु 1860 में भारतीय दण्ड संहिता अधिनियमित होने पर इसे अस्पष्ट रूप से इसमें सम्मिलित नहीं किया गया।
- धारा 124-क को 1870 में सर जेम्स स्टीफन द्वारा एक संशोधन के माध्यम से भारतीय दण्ड संहिता में सम्मिलित किया गया था, जब इस अपराध से निपटने के लिये एक विशिष्ट धारा की आवश्यकता महसूस की गई थी।
भारतीय दण्ड संहिता के अधीन राजद्रोह:
- परिभाषा और तत्त्व:
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क राजद्रोह के लिये दण्ड निर्धारित करती है। इस उपबंध में राजद्रोह को कुछ विशिष्ट तत्त्वों के साथ परिभाषित किया गया है, जिन्हें दोषसिद्धि के लिये साबित किया जाना चाहिये।
- धारा 124-क भारतीय दण्ड संहिता की परिभाषा: यह राजद्रोह को एक अपराध के रूप में परिभाषित करती है जब "कोई भी व्यक्ति शब्दों द्वारा, चाहे बोले गए या लिखे गए, या संकेतों द्वारा, या दृश्यरूपण द्वारा, या अन्यथा, भारत में विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमान पैदा करता है या पैदा करने का प्रयत्न करता है, या अप्रीति प्रदीप्त करता है या अप्रीति प्रदीप्त का प्रयत्न करता है"।
- मुख्य तत्त्व:
- अप्रीति (Disaffection) की व्याख्या : विधि स्पष्ट करती है कि अप्रीति में विश्वासघात और शत्रुता की सभी भावनाएँ सम्मिलित हैं। यद्यपि, उपबंध में एक महत्त्वपूर्ण चेतावनी सम्मिलित है - घृणा, अवमान या अप्रीति को प्रदीप्त किये बिना या प्रदीप्त करने का प्रयत्न किये बिना की गई टिप्पणियाँ इस धारा के अधीन अपराध नहीं मानी जाएँगी।
- आशय की आवश्यकता : उच्चतम न्यायालय ने राजद्रोह के मामलों में आशय के महत्त्व पर बल दिया है। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य (1995) में, उच्चतम न्यायालय ने दोहराया कि भाषण को राजद्रोही करार देने से पहले उसके वास्तविक आशय को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
- दण्ड की रूपरेखा:
- यह एक अजमानतीय अपराध है
- धारा 124-क के अधीन दण्ड तीन वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक है, जिसमें जुर्माना भी जोड़ा जा सकता है।
भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 के अधीन राजद्रोह
- परिवर्तन:
- भारतीय न्याय संहिता ने राजद्रोह को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है। इसके स्थान पर भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों को अपराध की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है।
- भारतीय न्याय संहिता ने राजद्रोह को अपराध की श्रेणी से हटा दिया है, किंतु राष्ट्रीय सुरक्षा और एकता को खतरे में डालने वाले कृत्यों को दण्डित करने के लिये एक नया उपबंध पेश किया है। इसमें अलगाववादी, सशस्त्र विद्रोह या भारत की संप्रभुता को खतरे में डालने वाली गतिविधियाँ सम्मिलित हैं।
- भारतीय न्याय संहिता की धारा 152: नया विधिक ढाँचा:
- यह धारा भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 124-क के अधीन पूर्ववर्ती राजद्रोह विधि के प्रतिस्थापन के रूप में पेश की गई थी।
- राजद्रोह विधि को औपनिवेशिक युग का अवशेष माना जाता था और अक्सर यह तर्क दिया जाता था कि इसका दुरुपयोग किया जाता है।
- धारा 152 की मुख्य विशेषताएँ:
- शीर्षक : "भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्य।"
- विस्तार : भारतीय न्याय संहिता में, इसे धारा 152 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है, जिसका शीर्षक है 'भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाला कार्य', जिसमें मूल भारतीय दण्ड संहिता अपराध से कुछ अंतर है।
- प्रभावी तिथि : 1 जुलाई 2024 को लागू होगी।
- न्यायिक निर्वचन:
- न्यायमूर्ति अरुण मोंगा की पीठ ने कहा कि भारतीय न्याय संहिता की धारा 152 का प्रयोग वैध असहमति (legitimate dissent) को रोकने के लिये नहीं किया जाना चाहिये और केवल विद्वेषपूर्ण आशय से जानबूझकर की गई कार्रवाई ही इस उपबंध के दायरे में आएगी।
- धारा 152 को वास्तविक राजद्रोह विधि बनने से रोकने के लिये, न्यायालयों को स्पष्ट दिशानिर्देश स्थापित करने होंगे जो वैध आलोचना और स्वतंत्र अभिव्यक्ति की रक्षा करें।
- उपबंध का निर्वचन स्थापित न्यायिक पूर्व निर्णयों द्वारा निर्देशित होने चाहिये जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये वास्तविक खतरों और वैध असहमति के बीच अंतर करती है।
तुलनात्मक विश्लेषण: भारतीय दण्ड संहिता बनाम भारतीय न्याय संहिता
- समानताएँ:
- यद्यपि, भारतीय दण्ड संहिता की धारा 124-क को नए भारतीय न्याय संहिता में धारा 152 के रूप में रूप में काफी हद तक बरकरार रखा गया है। शब्दावली में परिवर्तन के बावजूद, सरकार की आलोचना से संबंधित मूल चिंता अब भी बनी हुई है।।
- मुख्य अंतर:
- शब्दावली : जबकि भारतीय दण्ड संहिता ने "राजद्रोह" और "अप्रीति" पर ध्यान केंद्रित किया, भारतीय न्याय संहिता ने "संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कार्य" पर बल दिया।
- विस्तार : भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने संबंधी उपबंध में राजद्रोह के पहलुओं को बरकरार रखा जा सकता है।
- आशय : ऐसा प्रतीत होता है कि नया उपबंध सामान्य आलोचना के बजाय राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डालने वाले विशिष्ट कार्यों पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है।