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सांविधानिक विधि
समाजवादी पंथनिरपेक्ष विवाद
« »07-Jul-2025
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
परिचय
आपातकाल के दौरान संविधान की उद्देशिका में "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द जोड़े जाने के बारे में उपराष्ट्रपति की हाल की टिप्पणियों ने लंबे समय से चली आ रही सांविधानिक बहस को फिर से शुरू कर दिया है। ये शब्द 1976 में विवादास्पद 42वें संशोधन के ज़रिए जोड़े गए थे और राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों को जन्म देते रहे हैं। जबकि उच्चतम न्यायालय ने लगातार उनके समावेश को वैध माना है, किंतु इस बारे में प्रश्न कि क्या वे आवश्यक थे, उन्हें उस समय क्यों जोड़ा गया और वे संविधान की भावना को कैसे प्रभावित करते हैं, अभी भी महत्त्वपूर्ण हैं।
42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976
- 42 वें संशोधन अधिनियम, 1976 को "लघु संविधान" (Mini-Constitution) के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसने भारत के संविधान में व्यापक संशोधन किये - जिसमें उद्देशिका, 40 अनुच्छेदों और सातवीं अनुसूची में संशोधन किया तथा 14 नए अनुच्छेद और दो नए भाग जोड़े गए।
- उद्देशिका में परिवर्तन : उद्देशिका में "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द जोड़े गए तथा "राष्ट्र की एकता" के स्थान पर "राष्ट्र की एकता और अखंडता" कर दिया गया।
- मौलिक कर्त्तव्य : अनुच्छेद 51क के अंतर्गत मौलिक कर्त्तव्यों से युक्त भाग 4-क प्रस्तुत किया गया, जिसमें भारतीय नागरिकों के लिये 11 मौलिक कर्त्तव्य स्थापित किये गए।
- संसदीय शक्तियां : लोकसभा और राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया, राष्ट्रपति को मंत्रिमंडल की सलाह मानने के लिये बाध्य किया गया तथा संसद और राज्य विधानसभाओं में कोरम की आवश्यकता को समाप्त कर दिया गया।
- आपातकालीन उपबंध : संपूर्ण देश या विशिष्ट भागों के लिये राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की अनुमति देने के लिये अनुच्छेद 352 को संशोधित किया गया तथा राज्यों में राष्ट्रपति शासन की अवधि 6 महीने से बढ़ाकर 1 वर्ष कर दी गई।
- न्यायिक परिवर्तन : उच्च न्यायालयों की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्तियों में कटौती की गई, अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के सृजन का उपबंध किया गया तथा अनुच्छेद 323क और 323ख के माध्यम से प्रशासनिक अधिकरणों के लिये उपबंध जोड़े गए।
- राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों का विस्तार : अनुच्छेद 39क (निःशुल्क विधिक सहायता), 43क (उद्योगों के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना) और 48क (पर्यावरण का संरक्षण) सहित नए निदेशक तत्त्व जोड़े गए, साथ ही आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के उपबंध भी पेश किये गए।
क्या 42वें संशोधन का समय सांविधानिक आवश्यकता की अपेक्षा राजनीतिक प्रेरणा से प्रेरित था?
- 42वाँ संशोधन 1975-1977 की आपातकालीन अवधि के दौरान अधिनियमित किया गया था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी अधिनायकीय शासन चला रही थीं और मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था।।
- उद्देशिका में "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द जोड़ना एक व्यापक परिवर्तन का भाग था जिसमें विभिन्न सांविधानिक उपबंधों में 59 संशोधन सम्मिलित थे। समय से पता चलता है कि ये परिवर्तन सांविधानिक अनिवार्यताओं के बजाय तात्कालिक राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित थे।
- इंदिरा गाँधी का वामपंथी झुकाव 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण, 1971 में प्रिवीपर्स की समाप्ति तथा उनके "गरीबी हटाओ" अभियान के नारे में स्पष्ट था।
- "समाजवादी" शब्द को सम्मिलित करने से संविधान उनके आर्थिक एजेंडे के साथ संरेखित हो गया तथा उनकी नीतियों को सांविधानिक वैधता मिल गई।
- उद्देश्यों और कारणों के वक्तव्य में स्पष्ट रूप से कहा गया कि निदेशक सिद्धांतों को मौलिक अधिकारों पर वरीयता दी जानी चाहिए, जिनका उपयोग "सामाजिक-आर्थिक सुधारों को विफल करने" के लिए किया गया था।
- "पंथनिरपेक्ष" शब्द के जुड़ने के साथ ही भारतीय जनसंघ का एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उदय हुआ, जिसने 1967 के चुनावों में 35 सीटें जीतीं।
- इस समयावधि से यह संकेत मिलता है कि यह धार्मिक राष्ट्रवादी विचारधारा वाले दलों के बढ़ते प्रभाव के जवाब में पंथनिरपेक्षता को सांविधानिक रूप से स्थापित करने का प्रयास है।
क्या ये संशोधन संविधान के मूल सरंचना को मौलिक रूप से परिवर्तित करते हैं?
- उच्चतम न्यायालय ने लगातार यह माना है कि उद्देशिका में किये गए संशोधनों से संविधान की संरचना या अर्थ में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है।
- 1973 के ऐतिहासिक केशवानंद भारती बनाम भारत संघ मामले में, 42वें संशोधन से भी पहले, न्यायालय ने पंथनिरपेक्षता को संविधान की एक बुनियादी विशेषता के रूप में मान्यता दी थी, जिसे संशोधनों के माध्यम से परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
- संविधान में पहले से ही अनुच्छेद 14, 15 और 16 के माध्यम से धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को सम्मिलित किया गया है, जो समानता की प्रत्याभूति देते हैं और धर्म के आधार पर भेदभाव को रोकते हैं। इसी प्रकार, संविधान के भाग 4 में राज्य नीति के निदेशक तत्त्व सम्मिलित हैं, जो पहले से ही राज्य के लिये समाजवादी उद्देश्यों को रेखांकित करते हैं।
- मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) में उल्लेख किया गया कि संविधान निर्माताओं ने उद्देशिका में स्पष्ट उल्लेख के बिना ही "समाजवादी राज्य" के गठन का संकल्प लिया था।
- न्यायालय के 1994 के बोम्मई निर्णय और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली पीठ द्वारा हाल ही में नवंबर 2024 में दिये गए निर्णय ने इस बात की पुष्टि की है कि ये संशोधन वैध सरकारी नीतियों को प्रतिबंधित नहीं करते हैं या संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं करते हैं।
क्या उद्देशिका में संशोधन किया जा सकता है और इसके विधिक निहितार्थ क्या हैं?
- उद्देशिका में संशोधन की सांविधानिक वैधता न्यायिक पूर्व निर्णय के माध्यम से तय की गई है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि उद्देशिका मूल शक्ति का स्रोत नहीं है, किंतु इसे सांविधानिक संशोधन प्रक्रिया के माध्यम से संशोधित किया जा सकता है, बशर्ते कि ऐसे संशोधन मूल संरचना सिद्धांत का उल्लंघन न करें।
- 1961 के बेरुबारी यूनियन मामले ने स्थापित किया कि उद्देशिका संविधान के "निर्माताओं के मस्तिष्क को खोलने की कुंजी" के रूप में कार्य करती है, किंतु इसे न्यायालयों में लागू नहीं किया जा सकता। यद्यपि, पश्चात्वर्ती निर्णयों ने सांविधानिक प्रावधानों और गणतंत्र की संस्थापक दृष्टि को समझने में उद्देशिका के व्याख्यात्मक मूल्य को मान्यता दी है।
- उद्देशिका में भविष्य में होने वाले किसी भी संशोधन के विधिक निहितार्थ इस बात पर निर्भर करेंगे कि वे संविधान के मूल ढाँचे के साथ टकराव में हैं या नहीं। यह देखते हुए कि पंथनिरपेक्षता और समाजवाद को बुनियादी विशेषताओं के रूप में मान्यता दी गई है, इन शब्दों को हटाने के किसी भी प्रयास को केशवानंद भारती में स्थापित बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत के अधीन न्यायिक समीक्षा का सामना करना पड़ सकता है।
क्या आपातकाल के दौरान किये गए सांविधानिक संशोधनों को विशेष समीक्षा के अधीन होना चाहिये?
- आपातकाल भारत के सांविधानिक इतिहास में एक अनूठा अध्याय है, जब लोकतांत्रिक मानदंडों को निलंबित कर दिया गया था और संविधान में बड़े पैमाने पर संशोधन किये गए थे। अकेले 42वें संशोधन ने 59 परिवर्तन किये, जिनमें से कई को बाद में 1978 में 44वें संशोधन द्वारा उलट दिया गया। यद्यपि, उद्देशिका में किये गए संशोधनों को बरकरार रखा गया, जिससे पता चलता है कि उनके औचित्य के बारे में विधायी आम सहमति थी।
- यह प्रश्न कि क्या आपातकाल के दौरान में किये गए संशोधनों की विशेष समीक्षा की जानी चाहिये, सांविधानिक निरंतरता और लोकतांत्रिक वैधता के बारे में व्यापक विवाद्यक उठाता है। यद्यपि उनके अधिनियमन की परिस्थितियाँ असाधारण थीं, किंतु ये संशोधन न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन रहे हैं और लगभग पाँच दशकों से सांविधानिक चुनौतियों का सामना कर रहे हैं।
- उच्चतम न्यायालय का दृष्टिकोण प्रत्येक संशोधन का मूल्यांकन उसके राजनीतिक मूल के बजाय उसके सांविधानिक गुणों के आधार पर करना रहा है। न्यायालय ने उन विशिष्ट प्रावधानों को खारिज कर दिया है जो मूल ढाँचे का उल्लंघन करते हैं, जबकि अन्य को बरकरार रखा है जो सांविधानिक सीमाओं के भीतर थे।
निष्कर्ष
उद्देशिका में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को जोड़ने पर बहस सांविधानिक निर्वचन, राजनीतिक वैधता और भारत के संस्थापक दृष्टिकोण की विकसित प्रकृति के बारे में गहरे प्रश्नों को दर्शाती है। जबकि 42वें संशोधन का समय और परिस्थितियाँ आपातकालीन युग के शासन के बारे में वैध चिंताएँ उत्पन्न करती हैं, इन शब्दों की विधिक वैधता को न्यायपालिका द्वारा निरंतर बरकरार रखा गया है। नवंबर 2024 में उच्चतम न्यायालय की हालिया पुष्टि से पता चलता है कि ये शब्द, उनके विवादास्पद मूल के होते हुए भी, भारत की सांविधानिक पहचान का अभिन्न अंग बन गए हैं और मौलिक सांविधानिक पुनर्गठन के बिना इन्हें आसानी से त्यागा नहीं जा सकता है।