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सिविल कानून

केवल अतिक्रमित वन भूमि का उपयोग करना किसी व्यक्ति को आवश्यक पक्षकार नहीं बनाता

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 08-Jul-2025

निशांत महाजन एवं अन्य बनाम एच.पी. राज्य और अन्य 

"अतिक्रमित वन भूमि का मात्र उपयोग किसी व्यक्ति को बेदखली कार्यवाही में आवश्यक पक्षकार नहीं बनाता है।" 

न्यायमूर्ति ज्योत्सना रेवाल दुआ 

स्रोत:हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति ज्योत्सना रेवाल दुआकी पीठ नेनिर्णय दिया कि अतिक्रमित वन भूमि का मात्र उपयोग वास्तविक अतिक्रमणकारियों के विरुद्ध शुरू की गई बेदखली की कार्यवाही को चुनौती देने का अधिकार नहीं देता है। 

  • हिमाचलप्रदेश उच्च न्यायालय नेनिशांत महाजन एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय सुनाया । 

निशांत महाजन एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामलेकी पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • 2011 में, कुल्लू जिले के मनाली-III वन में 01-03-61 हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण करने के आरोप में रवि और विक्रम सिंह के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी। FIR भारतीय दण्ड संहिता की धारा 447 और भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 32 और 33 के अधीन दर्ज की गई थी। यद्यपि, 2014 में, दोनों अभियुक्तों को न्यायिक मजिस्ट्रेट ने संदेह का लाभ देते हुए दोषमुक्त कर दिया था।  
  • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज होने के बाद, राजस्व अधिकारियों ने फरवरी 2013 में सीमांकन किया और पाया कि खसरा नंबर 1328 सहित आठ खसरा नंबरों में रवि और विक्रम सिंह द्वारा सरकारी भूमि पर अनाधिकृत कब्ज़ा किया गया था। अधिकारियों ने पाया कि भाइयों ने भूमि पर अतिक्रमण करके एक 'गोम्पा' (बौद्ध मठ) का निर्माण किया था और सेब का बाग लगाया था। इस सीमांकन के आधार पर, कलेक्टर, वन प्रभाग कुल्लू ने हिमाचल प्रदेश लोक परिसर और भूमि (बेदखली और किराया वसूली) अधिनियम, 1971 की धारा 4(1) के अधीन एक नोटिस जारी किया। 
  • जब भाइयों ने सीमांकन पर आपत्ति जताई, तो मार्च 2016 में एक नए सर्वेक्षण का आदेश दिया गया और सर्वेक्षण किया गया। इस नए सीमांकन से पता चला कि खसरा नंबर 1328 खाली था और उस पर नौ देवदार के पेड़, एक कैल का पेड़ और एक पॉपुलर का पेड़ उग रहा था। नतीजतन, कलेक्टर ने 05 अप्रैल 2016 को एक बेदखली आदेश पारित किया, जिसमें वन विभाग को 1328 सहित सभी आठ खसरा नंबरों पर कब्जा करने और भविष्य में अतिक्रमण को रोकने के लिये क्षेत्र की बाड़ लगाने का निदेश दिया गया। भाइयों ने इस आदेश को स्वीकार कर लिया और कोई अपील दायर नहीं की। 
  • इस बीच, नवंबर 2011 में रवि ने अपनी जमीन का कुछ भाग वर्तमान याचिकाकर्त्ताओं - निशांत महाजन और खुशाल चंद महाजन (पिता और पुत्र) को बेच दिया था। 
  • याचिकाकर्त्ताओं ने पास के खसरा नंबरों में भूमि के टुकड़े खरीदे और विवादित वन भूमि का उपयोग अपनी संपत्ति तक पहुँचने के लिये सड़क के रूप में किया। 
  • नवंबर 2021 में अर्जुन ठाकुर ने मुख्यमंत्री संकल्प हेल्पलाइन के माध्यम से परिवाद किया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्त्ताओं की व्यावसायिक संपत्ति के लाभ के लिये खसरा संख्या 1315, 1328 और 1346 में वन भूमि पर सीमेंटेड सड़क का निर्माण किया गया था। इस परिवाद के बाद राजस्व अधिकारियों ने वन अधिकारियों की मौजूदगी में एक और सीमांकन किया, जिसमें खसरा संख्या 1328 में सीमेंटेड सड़क का अवैध निर्माण पाया गया। 
  • अन्वेषण से पता चला कि खण्ड विकास अधिकारी, नगर और ग्राम पंचायत, नसोगी ने 2018-19 के दौरान उपायुक्त कुल्लू द्वारा स्वीकृत 1,50,000 रुपए की लागत से "डी..वी. स्कूल से श्री विक्रम के घर तक C/O रोड" नामक सड़क का निर्माण किया था।  
  • ग्राम पंचायत ने दावा किया कि उन्होंने सड़क के किनारे केवल टोकरा लगाने का काम किया है, लेकिन वास्तविक सड़क संरचना का निर्माण नहीं किया है। 
  • इन निष्कर्षों के आधार पर, रेंज वन अधिकारी ने अधिनियम की धारा 4(1) के अधीन खण्ड विकास अधिकारी और ग्राम पंचायत के विरुद्ध परिवाद किया। कारण बताओ नोटिस जारी करने और उनके जवाब सुनने के बाद, कलेक्टर, वन प्रभाग कुल्लू ने 22 अगस्त 2022 को बेदखली का आदेश पारित किया, जिसमें कहा गया कि प्रत्यार्थियों ने अनाधिकृत रूप से वन भूमि पर कब्जा कर लिया है और खसरा नंबर 1328 में 00-68-56 हेक्टेयर भूमि पर 00-11-08 हेक्टेयर पर सीमेंटेड सड़क बनाकर अतिक्रमण किया है। 
  • 25 मई 2023 को बेदखली का आदेश लागू हुआऔर वन विभाग ने अतिक्रमण हटा दिया, जमीन पर कब्ज़ा कर लिया और बाड़ लगा दी। किंतु 29 मई 2023 को वन अधिकारियों ने बताया कि कलेक्टर के आदेश के विपरीत रातों-रात जमीन को तोड़ दिया गया और फिर से सड़क बना दी गई। 
  • याचिकाकर्त्ता, जो अपनी संपत्ति तक पहुँचने के लिये इस सड़क का उपयोग कर रहे थे, ने कलेक्टर वन के समक्ष बेदखली आदेश को अपास्त करने और मामले में स्वयं को पक्षकार बनाने के लिये आवेदन दायर किया, उनका दावा था कि आदेश उनके विरुद्ध एकपक्षीय रूप से पारित किया गया था। जब इन आवेदनों को खारिज कर दिया गया, तो उन्होंने संभागीय आयुक्त के समक्ष एक अन्य-पक्ष अपील दायर की, जिसे भी इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि उनके पास सुनवाई के अधिकार की कमी है क्योंकि वे मूल कार्यवाही में आवश्यक पक्षकार नहीं थे। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि याचिकाकर्त्ता, वन भूमि (खसरा संख्या 1328) पर बनी सड़क के मात्र उपयोगकर्त्ता होने के कारण, बेदखली आदेश को चुनौती देने के लिये उचित विधिक आधार का अभाव रखते हैं। भले ही उनके पास उपयोगकर्त्ता के रूप में सुखाचार अधिकार हों, लेकिन कलेक्टर वन के पास निजी सुखाचार विवादों पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं है, जिससे उनके अभिवचन वन अतिक्रमण कार्यवाही के लिये विधिक रूप से अप्रासंगिक हो जाती है।  
  • न्यायालय ने पूर्व-न्याय के सिद्धांत को लागू करते हुए निर्णय सुनाया कि याचिकाकर्त्ताओं द्वारा अनुच्छेद 227 के अधीन CMPMO No.126/2024 में उसी बेदखली आदेश (22.08.2022) को दी गई पिछली असफल चुनौती, जिसे 02 अप्रैल 2024 को खारिज कर दिया गया था, ने उन्हें पृथक् कार्यवाही शुरू करने की स्पष्ट स्वतंत्रता प्राप्त किये बिना उसी मामले पर बाद में रिट याचिका दायर करने से रोक दिया। 
  • न्यायालय ने स्थापित किया कि वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के अधीन, और टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुल्कपद मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्वचन के अनुसार, "वन" में सभी सांविधिक रूप से मान्यता प्राप्त वन और सरकारी अभिलेखों में वन के रूप में दर्ज कोई भी क्षेत्र सम्मिलित है, चाहे उसका स्वामित्व किसी का भी हो। देवदार, कैल और पॉपुलर के पेड़ों वाली भूमि वन भूमि है, जिसे संरक्षण की आवश्यकता है। 
  • न्यायालय ने कहा कि कलेक्टर वन द्वारा 05 अप्रैल 2016 को जारी किये गए पूर्व आदेश में खसरा संख्या 1328 पर वन विभाग का स्वामित्व पहले ही स्थापित कर दिया गया था तथा अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया गया था। यह आदेश अंतिम तथा पूर्ण हो गया जब मूल अतिक्रमणकर्ता (रवि तथा विक्रम सिंह) कोई अपील दायर करने में असफल रहे, जिससे वर्तमान मामले के लिये बाध्यकारी पूर्व निर्णय कायम हुए 
  • न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ताओं ने मिथ्या दावा करके न्यायालय को गुमराह करने का प्रयास किया था कि सड़क "अनादि काल से" अस्तित्व में है और लोक उद्देश्यों के लिये काम करती है। प्रभागीय वन अधिकारी की रिपोर्ट ने इन दावों का खण्डन किया, जिसमें स्थापित किया गया कि सड़क अन्य गाँवों को नहीं जोड़ती है, इसका उपयोग छात्रों द्वारा स्कूल जाने के लिये नहीं किया जाता है, और यह केवल याचिकाकर्त्ताओं और मूल अतिक्रमणकारियों के लिये काम करती है। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि उचित विधिक अनुमति के बिना, गैर-वनीय उद्देश्यों के लिये वन भूमि का उपयोग करने की आवश्यकता का दावा करना, निरंतर अतिक्रमण को उचित ठहराने के लिये विधि में अपर्याप्त है। भूमि के गैर-वनीय उपयोग के लिये किसी भी दर्ज अनुमति की अनुपस्थिति, वन संरक्षण पर उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के साथ मिलकर, याचिकाकर्त्ताओं के आवश्यकता-आधारित अभिवचनों को विधिक रूप से अस्थिर बना देती है। 

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11- पूर्व -न्याय (Res judicata) 

  • मूल सिद्धांत:कोई भी न्यायालय ऐसे किसी वाद का विचारण नहीं कर सकता, जहाँ प्रत्यक्षत: और सारत: विवादित मामले की सुनवाई पहले ही हो चुकी हो और उसी व्युत्पन्न अधिकार के अधीन मुकदमा लड़ रहे उन्हीं पक्षकारों या उनके उत्तराधिकारियों के बीच पहले के वाद में अंतिम रूप से विनिश्चित किया जा चुका हो। 
  • माना गया विवाद्यक:कोई भी मामला जो पूर्ववर्ती वाद में प्रतिरक्षा या आक्रमण के आधार बनाया जा सकता था और बनाया जाना चाहिये था, वह प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्यक माना जाता है, यह समझा जाएगा कि वह ऐसे वाद में प्रत्यक्षत: और सारत: विवाद्य रहा है(स्पष्टीकरण 4)। 
  • पक्षकार की आवश्यकताएँ:यह सिद्धांत समान पक्षकारों या उनके अधीन दावा करने वालों के बीच लागू होता है, जिसमें वे स्थितियाँ भी सम्मिलित हैं जहाँ व्यक्ति समान हितों वाले अन्य लोगों का प्रतिनिधित्व करते हुए लोक अधिकारों या सामान्य निजी अधिकारों के लिये सद्भावपूर्वक मुकदमा करते हैं (स्पष्टीकरण 6)। 
  • अनुप्रयोग का दायरा:यह सिद्धांत निष्पादन कार्यवाही तक विस्तारित है, जिसमें सीमित अधिकारिता वाले न्यायालयों द्वारा विनिश्चित किये गए विवाद्यक पश्चात्वर्ती वादों में पूर्व-न्याय के रूप में कार्य करते हैं, भले ही वह न्यायालय पश्चात्वर्ती वाद का विचारण कर सके या नहीं (स्पष्टीकरण 7 और 8)। 
  • आवश्यक तत्त्व:पूर्व -न्याय के लागू होने के लिये, मामले पर एक पक्षकार द्वारा अभिकथन किया जाना चाहिये और दूसरे पक्षकार द्वारा उसे स्वीकृत या प्रत्याख्यान किया जाना चाहिये, तथा कोई भी अनुतोष जो स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं किया गया है, उसे नामंजूर माना जाएगा (स्पष्टीकरण 3 और 5)। 

वन भूमि अतिक्रमण मामलों के निहितार्थ 

यह निर्णय स्थापित करता है कि: 

  • अतिक्रमित वन भूमि के मात्र उपयोग से बेदखली की कार्यवाही को चुनौती देने का अधिकार नहीं मिलता।  
  • केवल स्वामित्व अधिकार वाले या अतिक्रमण में प्रत्यक्ष रूप से शामिल लोगों को ही आवश्यक पक्षकार माना जा सकता है।  
  • सुखाचार का अधिकार (पथ/सड़क का उपयोग करने का अधिकार) स्वामित्व अधिकारों से पृथक् हैं और बेदखली के मामलों में पक्षकार का दर्जा प्रदान नहीं करते हैं।  
  • वन अधिकारी निजी सुविधा विवादों को सुलझाने के बजाय अतिक्रमणकारियों को हटाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं।  

यह सिद्धांत वन भूमि बेदखली की कार्यवाही को सरल बनाने में सहायता करता है, क्योंकि इसमें पक्षकार की भागीदारी को अतिक्रमण की गई भूमि के सभी उपयोगकर्त्ताओं के बजाय सीधे अतिक्रमण में सम्मिलित लोगों तक सीमित कर दिया जाता है।