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आपराधिक कानून

घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन अंतरिम आदेश

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 07-Jul-2025

टाइटस बनाम केरल राज्य और अन्य 

उपरोक्त निर्णय में प्रतिपादित विधि का सार यह है कि केवल उन्हीं मामलों में जहाँ कार्यवाही में स्पष्ट अवैधता एवं घोर अनियमितता विद्यमान हो, उच्च न्यायालय द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग कर, घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम (PWDV Act) के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेशों को बाधित करना न्यायसंगत होगा।” 

न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, सुधांशु धूली और एस.वी.एन. भट्टी 

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जी. गिरीश नेकहा है किभारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528के अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12(1) के अधीन अंतरिम आदेशों को अपास्त करने के लिये नहीं किया जा सकता है, जब तक कि कोई स्पष्ट विधिक त्रुटि या न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित न हो 

  • केरलउच्च न्यायालय नेटाइटस बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

टाइटस बनाम केरल राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • विवाद की प्रकृति : वेल्लनाडु ग्राम न्यायालय द्वारा घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (PWDV Act) की धारा 12(1) के अंतर्गत एक अंतरिम आदेश (interim order) पारित किया गया। यह धारा एक पीड़ित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी को घरेलू हिंसा के मामलों के लिये मजिस्ट्रेट से अनुतोष मांगने की अनुमति देती है। 
  • याचिकाकर्त्ता की कार्रवाई: प्रभावित पक्ष ने इस अंतरिम आदेश को अपास्त करने की मांग करते हुए केरल उच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक विविध मामला (Crl.MC) दायर किया। याचिका भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 528 के अधीन दायर की गई थी।  
  • रजिस्ट्री की चिंता: न्यायालय रजिस्ट्री ने प्रक्रियागत दोष की पहचान की और याचिका को केस नंबर नहीं दिया। रजिस्ट्री ने प्रश्न उठाया कि क्या याचिका भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन पोषणीय है, यह देखते हुए कि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (PWDV Act) की धारा 29 में पहले से ही ऐसे आदेशों के विरुद्ध अपील तंत्र प्रदान किया गया है। 
  • विधिक ढाँचा: 
    • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 (पूर्व में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482) उच्च न्यायालयों को किसी भी आदेश को प्रभावी करने, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने या न्याय सुनिश्चित करने के लिये आदेश पारित करने की अंतर्निहित शक्तियां प्रदान करती है। 
    • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम की धारा 29 मजिस्ट्रेट के आदेश के विरुद्ध सेशन न्यायालय में अपील का विशिष्ट मार्ग प्रदान करती है। 
    • घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम एक कल्याणकारी विधि है जो विशेष रूप से महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण प्रदान करने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया है। 
  • प्रक्रियागत मुद्दा: मुख्य प्रश्न यह था कि क्या उच्च न्यायालय को अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करना चाहिये, जब घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम के अधीन पहले से ही एक सांविधिक अपील उपचार विद्यमान है, और क्या अंतरिम आदेश में कोई स्पष्ट अवैधता या स्पष्ट अनियमितता निहित थी जो इस प्रकार के हस्तक्षेप को उचित ठहराएगी। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने विजयलक्ष्मी अम्मा वी.के. (डॉ.) एवं अन्य बनाम बिंदु वी. एवं अन्य (2010), नरेश पॉटरीज बनाम आरती इंडस्ट्रीज (2025) तथा सौरभ कुमार त्रिपाठी बनाम विधि रावल (2025) जैसे उच्चतम न्यायालय के निर्णयों पर विश्वास करते हुए विधिक ढाँचे की स्थापना की 
  • न्यायालय ने कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528) के अधीन प्रदत्त असाधारण शक्तियों काप्रयोग घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम की धारा 18 से 23 के अधीन मजिस्ट्रेटों द्वारा पारित अंतरिम आदेशों को रद्द करने के लिये नहीं किया जा सकता, जब तक कि संहिता के अधीन किसी आदेश को प्रभावी करने, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने या न्याय सुनिश्चित करने के लिये ऐसा करना बिल्कुल आवश्यक न हो। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि चूंकि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं को न्याय प्रदान करने के लिये विशेष रूप से लागू की गई कल्याणकारी विधि है, इसलिये धारा 12(1) के अधीन कार्यवाही को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528) के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करते समय उच्च न्यायालयों को बेहद धीमा और सतर्क रहना चाहिये 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया किअंतर्निहित शक्तियों के माध्यम से हस्तक्षेप केवल तभी किया जा सकता है जब घोर अवैधता हो या विधि की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग हो।न्यायालय ने कहा कि केवल स्पष्ट अवैधता और कार्यवाही की घोर अनियमितता के मामलों में ही उच्च न्यायालय को घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम उपबंधों के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेशों को रद्द करने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अधिकारिता का प्रयोग करने का औचित्य होगा। 
  • न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालयों को धारा 12(1) के अधीन आवेदनों को रद्द करने के लिये धारा 482 के अधीन कार्यवाही से निपटने के दौरान सामान्यतः हस्तक्षेप न करने वाला दृष्टिकोण अपनाना चाहिये, क्योंकि अत्यधिक हस्तक्षेप घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 को लागू करने के मूल उद्देश्य को विफल कर देगा।  
  • न्यायालय ने कहा कि मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेशों के विरुद्ध धारा 29 के अंतर्गत सेशन न्यायालय में अपील का उपबंध है, जबकि अपराधों के संज्ञान या आदेशिका जारी करने से संबंधित मामलों में अपील का कोई उपचार उपलब्ध नहीं है। 
  • न्यायालय ने पाया कि विचाराधीन अंतरिम आदेश (Annexure A3) को घोर अवैधता या अनियमितता नहीं माना जा सकता है, तथा यदि पर्याप्त कारण विद्यमान हों तो याचिकाकर्त्ता आदेश में संशोधन या उसे रद्द करने के लिये उसी न्यायालय में जा सकता है। 
  • न्यायालय ने रजिस्ट्री द्वारा सुनवाई योग्यता के संबंध में उल्लेखित दोष को बरकरार रखा, तथा पाया कि घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम की धारा 29 के अधीन सांविधिक अपील की उपलब्धता को देखते हुए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के अधीन याचिका उचित उपचार नहीं थी। 
  • न्यायालय ने रजिस्ट्री को निदेश दिया कि वह याचिका को याचिकाकर्त्ता को वापस कर दे, तथा अंतर्निहित शक्तियों के उपबंध के अधीन मामले पर विचार करने से प्रभावी रूप से इंकार कर दिया। 

घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन अंतरिम आदेश क्या है? 

धारा 12 - मजिस्ट्रेट से आवेदन: 

  • कौन आवेदन कर सकता है : एक व्यथित व्यक्ति, एक संरक्षण अधिकारी, या व्यथित व्यक्ति की ओर से कोई अन्य व्यक्ति अधिनियम के अधीन एक या एक से अधिक अनुतोष की मांग करते हुए मजिस्ट्रेट को आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। 
  • अनिवार्य विचार: ऐसे आवेदन पर कोई भी आदेश पारित करने से पहले, मजिस्ट्रेट को संरक्षण अधिकारी या सेवा प्रदाता से प्राप्त किसी भी घरेलू घटना की रिपोर्ट पर विचार करना होगा। 
  • उपलब्ध अनुतोष के प्रकार: ईप्सित किये गए अनुतोष में घरेलू हिंसा के कारण हुई क्षतियों के लिये प्रतिकर के लिये पृथक् रूप से संस्थित वाद के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना प्रतिकर या क्षति सम्मिलित हो सकती है। 
  • मुजरा संबंधी उपबंध : जहाँ किसी भी न्यायालय द्वारा व्यथित व्यक्ति के पक्ष में प्रतिकर या क्षति के लिये डिक्री पारित की गई है, मजिस्ट्रेट के आदेश के अधीन संदाय की गई राशि को डिक्री राशि के विरुद्ध मुजरा किया जाएगा। 
  • आवेदन पत्र: प्रत्येक आवेदन पत्र विहित प्ररूप में होना चाहिये तथा उसमें विहित विशिष्टयाँ अथवा यथासंभव उसके निकटतम विशिष्टयाँ होनी चाहिये 
  • प्रथम सुनवाई की समय-सीमा : मजिस्ट्रेट सुनवाई की पहली तारीख नियत करेगा, जो सामान्यतः न्यायालय द्वारा आवेदन प्राप्त होने की तारीख से तीन दिन से अधिक नहीं होगी। 
  • निपटान समय-सीमा: मजिस्ट्रेट प्रत्येक आवेदन को उसकी पहली सुनवाई की तारीख से साठ दिनों की अवधि के भीतर निपटाने का प्रयास करेगा। 

धारा 23 - अंतरिम और एकपक्षीय आदेश देने की शक्ति: 

  • सामान्य शक्ति: अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्यवाही में मजिस्ट्रेट ऐसा अंतरिम आदेश पारित कर सकता है जिसे वह न्यायसंगत और उपयुक्त समझे। 
  • एकपक्षीय आदेश : यदि मजिस्ट्रेट इस बात से संतुष्ट है कि आवेदन से प्रथम दृष्टया यह पता चलता है कि प्रतिवादी घरेलू हिंसा का कार्य कर रहा है, कर चुका है, या करने की संभावना है, तो वह व्यथित व्यक्ति के शपथपत्र के आधार पर एकपक्षीय आदेश दे सकता है। 
  • एकपक्षीय आदेश का विस्तार: एकपक्षीय आदेश धारा 18 (संरक्षण आदेश), धारा 19 (निवास आदेश), धारा 20 (धनीय अनुतोष), धारा 21 (अभिरक्षा आदेश), या धारा 22 (प्रतिकर आदेश) के अधीन दिये जा सकते हैं। 
  • शपथपत्र की आवश्यकता: एकपक्षीय आदेश व्यथित व्यक्ति द्वारा विहित प्रपत्र में प्रस्तुत शपथपत्र पर आधारित होना चाहिये 

अंतरिम अनुतोष के लिये संबंधित उपबंध: 

  • अवधि: धारा 18 के अंतर्गत संरक्षण आदेश तब तक लागू रहते हैं जब तक व्यथित व्यक्ति उन्मुक्ति के लिये आवेदन नहीं करता (धारा 25)। 
  • संशोधन: यदि परिस्थितियों में ऐसा परिवर्तन हो जिसके लिये ऐसी कार्रवाई की आवश्यकता हो तो मजिस्ट्रेट किसी भी पक्षकार के आवेदन पर किसी भी आदेश को परिवर्तित, संशोधित या रद्द कर सकता है (धारा 25)। 
  • प्रवर्तन: अधिनियम के अंतर्गत पारित सभी आदेश संपूर्ण भारत में प्रवर्तनीय हैं (धारा 27)। 
  • अपील : व्यथित व्यक्ति या प्रतिवादी को आदेश की तामील की तारीख से तीस दिन के भीतर, जो भी बाद में हो, सेशन न्यायालय में अपील की जा सकती है (धारा 29)। 
  • आदेशों का वितरण: मजिस्ट्रेट को पक्षकारों, पुलिस थाने के भारसाधक पुलिस अधिकारी और संबंधित सेवा प्रदाताओं को आदेशों की निःशुल्क प्रतियाँ उपलब्ध करानी होंगी (धारा 24)।