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सिविल कानून
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम महिला अधिवक्ताओं के लैंगिक उत्पीड़न परिवादों पर लागू नहीं होगा
« »08-Jul-2025
यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया और अन्य "महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम महिला अधिवक्ताओं के लैंगिक उत्पीड़न परिवादों पर लागू नहीं होता।" मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप मार्ने |
स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सोमवार को निर्णय दिया कि महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 (POSH Act) के उपबंध बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) या बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा (BCMG) की महिला अधिवक्ता सदस्यों द्वारा अन्य अधिवक्ताओं के विरुद्ध दर्ज कराए गए परिवादों पर लागू नहीं होंगे।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय सुनाया ।
यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन बनाम बार काउंसिल ऑफ इंडिया एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन ने 2017 में एक जनहित याचिका (PIL) दायर की थी, जिसमें अधिवक्ताओं के विरुद्ध लैंगिक उत्पीड़न की शिकायतों के समाधान के लिये स्थायी शिकायत निवारण तंत्र के गठन की मांग की गई थी।
- जनहित याचिका में तर्क दिया गया है कि महिला अधिवक्ताओं द्वारा अपने पुरुष समकक्षों द्वारा लैंगिक उत्पीड़न के विरुद्ध दर्ज कराए गए परिवादों पर महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम, 2013 के उपबंधों को लागू किया जाना चाहिये।
- याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि महिला अधिवक्ताओं को अपने पेशेवर वातावरण में लैंगिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और उन्हें महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम द्वारा प्रदान किये गए व्यापक ढाँचे के अधीन संरक्षित किया जाना चाहिये।
- इस मामले ने कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न संबंधी विधियों की विधिक पेशे में प्रयोज्यता तथा अधिवक्ताओं और बार काउंसिलों के बीच संबंधों की प्रकृति के बारे में मौलिक प्रश्न उठाए ।
- इस मामले में यह निर्धारित करना सम्मिलित था कि क्या महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के आवेदन के लिये आवश्यक नियोक्ता-कर्मचारी संबंध बार काउंसिल और अभ्यासरत अधिवक्ताओं के बीच विद्यमान है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप मार्ने की खंडपीठ ने निर्णय दिया कि महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के उपबंध महिला अधिवक्ता सदस्यों के परिवादों पर लागू नहीं होंगे, क्योंकि अधिवक्ताओं और बार काउंसिल के बीच कोई "कर्मचारी-नियोक्ता" संबंध नहीं है।
- न्यायालय ने कहा कि "कर्मचारी-नियोक्ता संबंध होने पर 2013 के अधिनियम के उपबंध लागू होते हैं। किंतु अधिवक्ताओं और बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) या बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा (BCMG) के मामले में ऐसा कोई संबंध नहीं है, क्योंकि न तो BCI और न ही BCMG को अधिवक्ताओं का नियोक्ता कहा जा सकता है।"
- पीठ ने स्पष्ट किया कि महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के उपबंध केवल बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) या बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र और गोवा (BCMG) के कर्मचारियों पर लागू होंगे, जो उक्त संघों के समिति सदस्य और कर्मचारी हैं।
- पुरुष समकक्षों द्वारा महिला अधिवक्ताओं के साथ किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार के लिये, पीठ ने स्पष्ट किया कि अधिवक्ता अधिनियम के उपबंध अच्छी तरह से लागू हैं, विशेष रूप से अधिवक्ता अधिनियम की धारा 35 का हवाला देते हुए , जो अधिवक्ताओं द्वारा पेशेवर या अन्य दुर्व्यवहार के विरुद्ध कार्रवाई का उपबंध करती है।
- न्यायालय ने कहा कि यह विद्यमान उपचार महिला अधिवक्ताओं के लिये किसी भी प्रकार के उत्पीड़न के विरुद्ध परिवाद करने के लिये उपलब्ध है, जो पेशेवर या अन्य कदाचार के अंतर्गत आता है ।
- इन टिप्पणियों के साथ, पीठ ने यू.एन.एस. महिला लीगल एसोसिएशन द्वारा दायर जनहित याचिका का निपटारा कर दिया, तथा महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधीन आवेदन की उनकी मांग को प्रभावी रूप से खारिज कर दिया।
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम, 2013 क्या है?
बारे में:
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013 कार्यस्थलों पर महिलाओं के लैंगिक उत्पीड़न से निपटने के लिये एक व्यापक विधिक ढाँचा प्रदान करती है।
- अधिनियम में लैंगिक उत्पीड़न को लैंगिक प्रकृति का कोई भी अवांछित कृत्य या व्यवहार (चाहे प्रत्यक्ष रूप से या निहितार्थ रूप में) के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें शारीरिक संपर्क, लैंगिक अनुग्रह की मांग, लैंगिक रूप से रंगीन टिप्पणी, पोर्नोग्राफी दिखाना, या लैंगिक प्रकृति का कोई अन्य अवांछित शारीरिक, मौखिक या गैर-मौखिक आचरण साम्मिलित है।
- प्रत्येक नियोक्ता को लैंगिक उत्पीड़न के परिवादों के समाधान के लिये 10 या अधिक कर्मचारियों वाले प्रत्येक कार्यालय या शाखा में एक आंतरिक परिवाद समिति (Internal Complaints Committee (ICC)) का गठन करना आवश्यक है।
- 10 से कम कर्मचारियों वाले कार्यस्थलों के लिये परिवादों का समाधान जिला स्तर पर गठित स्थानीय परिवाद समितियों (Local Complaints Committees (LCC)) द्वारा किया जाता है।
- अधिनियम में यह उपबंध है कि आंतरिक परिवाद समिति (Internal Complaints Committee (ICC)) का अध्यक्ष एक महिला होगी तथा इसमें महिला संगठनों से कम से कम एक सदस्य या लैंगिक उत्पीड़न से संबंधित मुद्दों से परिचित व्यक्ति सम्मिलित होगा।
- अधिनियम में परिवादकर्त्ता/प्रतिवादी का स्थानांतरण, छुट्टी प्रदान करना तथा परिवादकर्त्ता की सुरक्षा और रोजगार जारी रखने को सुनिश्चित करने के लिये अन्य उपायों सहित अंतरिम अनुतोष का प्रावधान है।
- दण्ड में परिवादकर्त्ता को प्रतिकर, प्रतिवादी के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई और भारतीय दण्ड संहिता की सुसंगत धाराओं के अधीन संभावित आपराधिक अभियोजन शामिल है।
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम और लैंगिक उत्पीड़न विधियों के बीच तुलना
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम बनाम भारतीय न्याय संहिता (BNS) उपबंध:
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम कार्यस्थल-विशिष्ट लैंगिक उत्पीड़न पर केंद्रित एक सिविल उपचार है, जिसमें आंतरिक तंत्र के माध्यम से निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष पर बल दिया जाता है।
- भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 74 ( भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354क) (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354ख) (भारतीय दण्ड संहिता की धारा 354ग) (भारतीय दण्ड संहिता की धारा की 354घ) लैंगिक उत्पीड़न को आपराधिक अपराध मानती है, जिसके लिये कारावास और जुर्माने सहित दण्ड का उपबंध है।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम में पीड़ित को प्रतिकर देने का उपबंध है, जबकि भारतीय न्याय संहिता में अपराधी को दण्डित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम में लैंगिक उत्पीड़न की व्यापक परिभाषा है, जिसमें गैर-शारीरिक आचरण भी सम्मिलित है, जबकि भारतीय न्याय संहिता के उपबंध शारीरिक कृत्यों और मौखिक/गैर-शारीरिक आचरण के लिये अधिक विशिष्ट हैं।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम जागरूकता कार्यक्रम जैसे निवारक उपायों को अनिवार्य बनाता है, जबकि भारतीय न्याय संहिता पूर्णतः दण्डात्मक है।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम कार्यवाही के दौरान अंतरिम अनुतोष और संरक्षण प्रदान करता है, जबकि भारतीय न्याय संहिता की प्रक्रियाएँ मानक आपराधिक विधि प्रक्रियाओं का पालन करती हैं।
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधीन नियोक्ताओं द्वारा अनिवार्य रूप से रिपोर्ट करना अनिवार्य है, जबकि भारतीय न्याय संहिता में परिवाद सामान्यत: पीड़ितों द्वारा प्रारंभ किये जाते हैं।
निर्णय के निहितार्थ
बॉम्बे उच्च न्यायालय का निर्णय विधिक वृत्ति के लिये महत्त्वपूर्ण पुर्व निर्णय कायम करता है। सहकर्मियों से लैंगिक उत्पीड़न का सामना करने वाली महिला अधिवक्ताओं को अब महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधिक व्यापक ढाँचे के बजाय अधिवक्ता अधिनियम के अनुशासनात्मक तंत्र पर निर्भर रहना होगा । यह निर्णय विधिक वृत्ति की अनूठी प्रकृति को उजागर करता है जहाँ व्यवसायी कर्मचारी नहीं होते, अपितु बार काउंसिल द्वारा विनियमित स्वतंत्र पेशेवर होते हैं।
निर्णय में इस बात पर बल दिया गया है कि महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधीन अधिवक्ताओं के परस्पर लैंगिक उत्पीड़न (inter-advocate harassment) के लिये सुरक्षा उपलब्ध नहीं है, किंतु अधिवक्ता अधिनियम अपने पेशेवर कदाचार प्रावधानों के माध्यम से पर्याप्त उपचार प्रदान करता है। यद्यपि, आलोचकों का तर्क है कि अधिवक्ता अधिनियम के अधीन अनुशासनात्मक तंत्र महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम की विशेष प्रक्रियाओं की तरह मजबूत या पीड़ित के अनुकूल नहीं हो सकते हैं।