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आपराधिक कानून
अजमानतीय वारण्ट की प्रक्रियाएँ
« »02-Sep-2025
चंद्र लेखा और जी. जयराज बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य "अजमानतीय वारण्ट अंतिम उपाय के रूप में जारी किये जाने चाहिये, जिसका उद्देश्य केवल अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करना है।" न्यायमूर्ति एन. तुकारामजी |
स्रोत: तेलंगाना उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
तेलंगाना उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एन. तुकारामजी ने जे. चंद्र लेखा और जी. जयराज बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य (2025) के मामले में सेशन न्यायालय के आदेशों को अपास्त कर दिया और अजमानतीय वारण्ट (NBW) जारी करने की उचित प्रक्रिया पर महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान किया, जिसमें सतेंद्र कुमार अंतिल बनाम केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (2021) में स्थापित उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों का कठोरता से पालन करने पर बल दिया गया।
जे. चंद्रलेखा और जी. जयराज बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- सेशन न्यायाधीश के दिनांक 10.07.2025 के आदेश को अपास्त करने और याचिकाकर्त्ताओं के विरुद्ध जारी अजमानतीय वारण्ट को वापस लेने के लिये भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 528 के अधीन याचिका दायर की गई थी।
- याचिकाकर्त्ताओं को भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023 की धारा 329(4), 232, 351(3), और 3(5) के अधीन अपराधों के लिये C.C.No. 15408/2024 में अभियुक्त बनाया गया था।
- विचारण न्यायालय ने पाया कि अभियुक्त संख्या 3 और 4 (याचिकाकर्त्ता) कार्यवाही शुरू होने के बाद से फरार थे और उनके विरुद्ध सीधे अजमानतीय वारण्ट जारी किया गया।
- याचिकाकर्त्ताओं ने समन के चरण में उनके विरुद्ध जारी अजमानतीय वारण्ट को चुनौती दी थी, तथा तर्क दिया था कि पहले समन जारी किये बिना तथा विहित अनुक्रमिक प्रक्रिया का पालन किये बिना अजमानतीय वारण्ट जारी नहीं किया जा सकता ।
दोनों मामलों में सामान्य विवाद्यक:
- अन्वेषण एजेंसी ने सभी अभियुक्तों को उचित तामील के बिना चुनिंदा तरीके से भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 35(3) के अधीन नोटिस दिया था।
- दोनों मामलों में कार्यवाही के किसी भी चरण में याचिकाकर्त्ताओं को कोई नोटिस नहीं दिया गया।
- विचारण न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों द्वारा स्थापित अनिवार्य अनुक्रमिक प्रक्रिया का पालन किये बिना अजमानतीय वारण्ट जारी कर दिया।
- अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि आरोप पत्र दाखिल होने के बाद से ही अभियुक्त फरार था, जिससे अजमानतीय वारण्ट जारी करना उचित हो गया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
प्रक्रियात्मक उल्लंघन:
- न्यायालय ने पाया कि विचारण न्यायालय ने अजमानतीय वारण्ट जारी करने से पहले विहित अनुक्रमिक प्रक्रिया का पालन नहीं किया, तथा यह भी पाया कि ऐसी कोई सामग्री नहीं थी जो यह प्रदर्शित करती हो कि याचिकाकर्त्ताओं की उपस्थिति या अभिरक्षा सुनिश्चित करना अन्वेषण के प्रयोजनों के लिये आवश्यक था।
- सतेंदर कुमार अंतिल बनाम सी.बी.आई. (2022) में उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देश:
- न्यायालय ने इस मामले में उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों का व्यापक संदर्भ दिया, जिसमें अपराधों को वर्गीकृत किया गया था और विशिष्ट प्रक्रियाएँ निर्धारित की गई थीं:
- श्रेणी A अपराध (7 वर्ष या उससे कम कारावास से दण्डनीय):
- प्रथम दृष्टया: साधारण समन (अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थिति की अनुमति सहित)।
- दूसरा चरण: यदि अभियुक्त समन की तामील के होते हुए भी उपस्थित नहीं होता है तो उसके लिये भौतिक उपस्थिति हेतु जमानतीय वारण्ट जारी किया जाएगा।
- अंतिम चरण: जमानतीय वारण्ट जारी होते हुए भी उपस्थित न होने पर ही अजमानतीय वारण्ट जारी किया जाएगा।
- श्रेणी B अपराध (मृत्यु, आजीवन कारावास या 7 वर्ष से अधिक का दण्ड): उपस्थिति पर, जमानत आवेदन पर गुण-दोष के आधार पर निर्णय लिया जाएगा।
- श्रेणी C अपराध (NDPS, PMLA, UAPA जैसे विशेष अधिनियमों के अंतर्गत): श्रेणी B के समान, अतिरिक्त अनुपालन आवश्यकताओं के साथ।
- श्रेणी D अपराध (विशेष अधिनियमों के अंतर्गत न आने वाले आर्थिक अपराध): श्रेणी B के समान।
न्यायिक मूल्यांकन आवश्यकताएँ:
न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि दण्डात्मक उपाय जारी करने से पहले मजिस्ट्रेट को:
- अन्वेषण एजेंसी द्वारा प्रस्तुत सामग्री की सावधानीपूर्वक जांच करें।
- जारी की गई प्रक्रिया, लगाए गए आरोपों और एकत्रित साक्ष्य की प्रकृति पर विचार करें।
- अभियुक्त की उपस्थिति या अभिरक्षा की आवश्यकता निर्धारित करने के लिये स्वतंत्र न्यायिक मूल्यांकन करना।
- ऐसी राय के लिये कारण अभिलिखित करें।
न्यायालय के निदेश:
- तत्काल अनुतोष: विहित प्रक्रिया का पालन न करने के कारण विवादित आदेश को अपास्त कर दिया गया।
- याचिकाकर्त्ताओं के दायित्त्व: अगली स्थगन तिथि को या उससे पहले विचारण न्यायालय के समक्ष व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने और उचित याचिका दायर करने का निदेश दिया गया।
- विचारण न्यायालय के निदेश: मजिस्ट्रेट को अजमानतीय वारण्ट वापस लेने तथा मामले को विधि के अनुसार सख्ती से आगे बढ़ाने का निदेश दिया गया।
- प्रक्रियागत बल: दोहराया गया कि अजमानतीय वारण्ट केवल अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिये अंतिम उपाय के रूप में जारी किया जाना चाहिये।
अजमानतीय वारण्ट क्या है?
- अजमानतीय वारण्ट एक न्यायिक निदेश है जो विधि प्रवर्तन एजेंसियों को किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने और उसे न्यायालय में पेश करने के लिये अधिकृत करता है, गिरफ्तारी के बाद तत्काल जमानत का विकल्प प्रदान किये बिना।
- जब अजमानतीय वारण्ट जारी किया जाता है, तो गिरफ्तार व्यक्ति को वारण्ट निष्पादित करने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा जमानत पर छोड़ा नहीं जा सकता है; इसके बजाय, जमानत केवल मामले की विनिर्दिष्ट परिस्थितियों पर विचार करने के बाद ही सक्षम न्यायालय द्वारा दी जा सकती है।
- अजमानतीय वारण्ट जारी करना सामान्यत: गंभीर अपराधों, ऐसे मामलों के लिये आरक्षित होता है, जहाँ अभियुक्त बार-बार अवसर मिलने के बावजूद न्यायालय में पेश होने में असफल रहा हो, या ऐसी स्थिति हो, जहाँ न्यायालय के पास यह मानने के लिये युक्तियुक्त आधार हों कि अभियुक्त फरार हो सकता है या साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ कर सकता है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 73 गिरफ्तारी वारण्ट के प्रारूप को नियंत्रित करती है, जबकि धारा 72, 74, 75, 76, 78 और 80 ऐसे वारण्ट के निष्पादन के लिये प्रक्रियात्मक ढाँचा प्रदान करती हैं।
- जैसा कि बिहार राज्य बनाम जे.ए.सी. सलदान्हा (1980) मामले में स्थापित किया गया है, अजमानतीय वारण्ट नियमित या यंत्रवत् जारी नहीं किये जाने चाहिये, अपितु स्वतंत्रता पर इस तरह के गंभीर प्रतिबंध को आवश्यक बनाने वाली परिस्थितियों पर उचित न्यायिक विचार के बाद ही जारी किये जाने चाहिये।
- अजमानतीय वारण्ट के निष्पादन में विशिष्ट प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों का पालन किया जाना चाहिये, जिसमें गिरफ्तार व्यक्ति को वारण्ट की विषय-वस्तु के बारे में सूचित करना और उसे बिना किसी विलंब के, सामान्यतः गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर, न्यायालय के समक्ष पेश करना सम्मिलित है।