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वाणिज्यिक वाद में PIMS

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 19-May-2025

मेसर्स धनबाद फ्यूल्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ

“20.08.2022 से पहले 2015 अधिनियम की धारा 12A का अनुपालन किये बिना आरंभ किये गए वाद में, जो ट्रायल न्यायालय के समक्ष निर्णय के लिये लंबित हैं, न्यायालय वाद को स्थगित रखेगी तथा यदि प्रतिवादी द्वारा कोई आपत्ति दर्ज की जाती है तो पक्षों को 2015 अधिनियम की धारा 12A के अनुसार समयबद्ध मध्यस्थता के लिये भेजेगी।”

न्यायमूर्ति आर. महादेवन एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति आर. महादेवन एवं न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की पीठ ने कहा कि धारा 12A का पालन किये बिना 20 अगस्त 2022 से पहले दायर किये गए वाद को तब तक खारिज नहीं किया जा सकता जब तक कि पाटिल ऑटोमेशन प्राइवेट लिमिटेड बनाम रखेजा इंजीनियर्स (2022) में विशिष्ट अपवाद लागू न हों।

  • उच्चतम न्यायालय ने मेसर्स धनबाद फ्यूल्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ (2025) मामले में यह निर्णय दिया।

मेसर्स धनबाद फ्यूल्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम भारत संघ (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 9 अगस्त 2019 को, भारत संघ ने अंतर भाड़ा एवं जुर्माना के लिये ₹8,73,36,976 की वसूली के लिये अपीलकर्त्ता के विरुद्ध अलीपुर में वाणिज्यिक न्यायालय में मनी सूट दायर किया। 
  • उक्त वाद में भारत संघ द्वारा कोई त्वरित अंतरिम अनुतोष नहीं माँगा गया था। 
  • 20 दिसंबर 2019 को, अपीलकर्त्ता ने, प्रतिवादी के रूप में, वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 की धारा 12 A और प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता और निपटान नियम, 2018 का अनुपालन न करने के कारण वाद की स्थिरता पर प्रारंभिक आपत्ति दर्ज करते हुए एक लिखित अभिकथन दायर किया, जो 3 जुलाई 2018 को लागू हुआ। 
  • 30 सितंबर 2020 को, अपीलकर्त्ता ने CPC के आदेश VII नियम 11 (d) के अंतर्गत अंतरिम आवेदन दायर किया, जिसमें अनिवार्य प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता के प्रयोग में विफलता के कारण शिकायत को खारिज करने की मांग की गई।
  • 21 दिसंबर 2020 को, वाणिज्यिक न्यायालय ने आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इसे विलंब से दायर किया गया था तथा शिकायत को खारिज करने से न्याय मिलने की बजाय इसमें विलंब होगा।
  • वाणिज्यिक न्यायालय ने उल्लेख किया कि 5 जुलाई 2019 को वाणिज्यिक न्यायालय की स्थापना के तुरंत बाद वाद दायर किया गया था, ऐसे समय में जब कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता के लिये उचित मूलभूत ढाँचा और एक मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) अभी तक लागू नहीं की गई थी। 
  • न्यायालय ने विवाद को मध्यस्थता के लिये संदर्भित करने का आदेश दिया तथा श्री जयंत मुखर्जी, एक अधिवक्ता को मध्यस्थ नियुक्त किया, दोनों पक्षों को 4 जनवरी 2021 से आरंभ होने वाली मध्यस्थता कार्यवाही में भाग लेने और 11 जनवरी 2021 तक प्रक्रिया पूरी करने का निर्देश दिया।
  • आवेदन की अस्वीकृति से असंतुष्ट, अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक सिविल पुनरीक्षण दायर किया। 
  • अपने निर्णय में, उच्च न्यायालय ने माना कि उस स्तर पर शिकायत को खारिज करना धारा 12A के उद्देश्य के अनुरूप नहीं होगा तथा इसके बजाय मुकदमे को स्थगित रखने का निर्देश दिया, जिससे वादी को अब मध्यस्थता का अनुपालन करने की अनुमति मिल सके। 
  • उच्च न्यायालय ने माना कि दिसंबर 2020 तक, पश्चिम बंगाल में SOP एवं मध्यस्थता का मूलभूत ढाँचा अभी तक पूरी तरह से अधिसूचित या चालू नहीं था, जो प्रारंभिक गैर-अनुपालन को उचित मानता है। 
  • उच्च न्यायालय ने यह भी नोट किया कि प्रशिक्षित वाणिज्यिक मध्यस्थों का पैनल वाद दायर होने के बाद ही तैयार किया गया था। 
  • उच्च न्यायालय ने मध्यस्थ की वाणिज्यिक न्यायालय द्वारा की गई नियुक्ति को खारिज कर दिया तथा वादी को आदेश के दो सप्ताह के अंदर 11 दिसंबर 2020 की SOP के अनुसार जिला विधिक सेवा प्राधिकरण से संपर्क करने का निर्देश दिया। 
  • मुकदमे को सात महीने या मध्यस्थता रिपोर्ट प्राप्त होने तक, जो भी पहले हो, स्थगित रखने का निर्देश दिया गया। 
  • उच्च न्यायालय के आदेश से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता (मूल प्रतिवादी) ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष वर्तमान अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय द्वारा निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले गए:
    • पाटिल ऑटोमेशन में उच्चतम न्यायालय ने माना कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 (CCA) की धारा 12A अनिवार्य है। 
    • यह अनिवार्य प्रकृति संशोधन के लागू होने की तिथि से लागू होती है। 
    • पाटिल ऑटोमेशन के पैराग्राफ 113.1 के अनुसार, धारा 12A का पालन किये बिना दायर किये गए वाद को आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत खारिज किया जाना चाहिये, लेकिन यह केवल 20 अगस्त 2022 को या उसके बाद दायर किये गए वाद पर लागू होता है। 
    • यदि किसी वाद में त्वरित अंतरिम अनुतोष के लिये प्रार्थना शामिल है, तो इसे धारा 12A के अंतर्गत मध्यस्थता के बिना दायर किया जा सकता है। 
    • CPC की धारा 80(2) के विपरीत, धारा 12A के अंतर्गत मध्यस्थता को छोड़ने के लिये न्यायालय से पूर्व अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं है। 
    • न्यायालयों को मामले की प्रकृति के आधार पर यह आकलन करना चाहिये कि वादी को वास्तव में त्वरित अंतरिम अनुतोष की आवश्यकता है या नहीं।
    • न्यायालयों को मध्यस्थता से बचने के लिये फर्जी त्वरित अनुतोष दावों का उपयोग करने वाले वादी से सावधान रहना चाहिये।
    • भले ही अंतरिम अनुतोष को अंततः अस्वीकार कर दिया गया हो, लेकिन यदि त्वरित आवश्यकता वास्तविक थी, तो वाद मध्यस्थता के बिना भी आगे बढ़ सकता है।
    • धारा 12A का पालन किये बिना 20 अगस्त 2022 से पहले दायर किये गए वाद को तब तक खारिज नहीं किया जा सकता जब तक कि पाटिल ऑटोमेशन में विशिष्ट अपवाद लागू न हों।
    • ऐसे पुराने वाद में, यदि प्रतिवादी आपत्ति करता है या कोई पक्ष मध्यस्थता चाहता है, तो न्यायालय को मामले को रोक देना चाहिये तथा धारा 12A के अंतर्गत समयबद्ध मध्यस्थता के लिये भेजना चाहिये।
  • न्यायालय ने वर्तमान मामले के तथ्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि यदि वाद CCA की धारा 12 A का अनुपालन किये बिना 20 अगस्त 2022 से पहले आरंभ किया गया था तथा यह पाटिल ऑटोमेशन के निर्णय में उल्लिखित अपवादात्मक श्रेणियों में नहीं आता है, तो न्यायालय के लिये वाद को स्थगित रखना और पक्षों को CCA के अनुसार मध्यस्थता की संभावना तलाशने का निर्देश देना उचित होगा। 

प्री इंस्टीट्युशनल मध्यस्थता एवं निपटान क्या है?

  • CCA की धारा 12A के अंतर्गत प्री इंस्टीट्युशनल मध्यस्थता एवं निपटान (PIMS) का प्रावधान किया गया है। 
  • यह धारा निम्नलिखित का प्रावधान करती है:
    • खंड (1): ऐसा वाद जिसमें त्वरित अंतरिम अनुतोष शामिल नहीं है, तब तक दायर नहीं किया जा सकता जब तक कि वादी पहले केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता की प्रक्रिया का प्रयोग न करे। 
    • खंड (2): केंद्र सरकार विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के अंतर्गत स्थापित प्राधिकरणों को प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता करने के लिये अधिकृत कर सकती है। 
    • खंड (3): अधिकृत प्राधिकरण को वादी द्वारा आवेदन करने की तिथि से तीन महीने के अंदर मध्यस्थता प्रक्रिया पूरी करनी होगी। यदि दोनों पक्ष सहमत हों तो इस अवधि को दो महीने और बढ़ाया जा सकता है।
    • खंड (3) - दूसरा प्रावधान: परिसीमा अधिनियम, 1963 के अंतर्गत परिसीमा अवधि की गणना करते समय प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता में बिताया गया समय नहीं गिना जाएगा। 
    • खंड (4): यदि पक्ष मध्यस्थता के दौरान किसी समझौते पर पहुँचते हैं, तो इसे लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिये तथा दोनों पक्षों और मध्यस्थ द्वारा हस्ताक्षरित किया जाना चाहिये। 
    • खंड (5): धारा 12A के अंतर्गत किये गए समझौते को माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 30(4) के अंतर्गत सहमत शर्तों पर मध्यस्थ पंचाट के रूप में माना जाएगा तथा इसका वही विधिक प्रभाव होगा।

PIMS पर आधारित ऐतिहासिक मामले क्या हैं?

  • मेसर्स पाटिल ऑटोमेशन प्राइवेट लिमिटेड बनाम रखेजा इंजीनियर्स (2022)
    • न्यायालय ने माना कि CCA की धारा 12A अनिवार्य प्रकृति की है तथा धारा 12A के अधिदेश का उल्लंघन करके दायर किया गया कोई भी वाद सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश VII नियम 11 के अंतर्गत खारिज कर दिया जाएगा।
  • यामिनी मनोहर बनाम टी.के.डी. कीर्ति (2024)
    • उच्चतम न्यायालय ने इस तथ्य की पुष्टि की कि वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम की धारा 12A अनिवार्य है, जिसके अंतर्गत वाद दायर करने से पहले वाद -पूर्व मध्यस्थता की आवश्यकता होती है, जब तक कि त्वरित अंतरिम अनुतोष की मांग न की जाए।
    • एक वादी केवल त्वरित अंतरिम अनुतोष का अनुरोध करके मुकदमा-पूर्व मध्यस्थता की आवश्यकता को अनदेखा नहीं कर सकता।
    • वाणिज्यिक न्यायालय को यह आकलन करना चाहिये कि त्वरित अंतरिम अनुतोष के लिये याचिका वास्तविक है या केवल मध्यस्थता से बचने का बहाना है।
    • न्यायालय ने इस तथ्य पर बल दिया कि त्वरितता का कोई भी दावा धारा 12A के अंतर्गत दायित्वों से बचने के लिये "छिपाना या मुखौटा" नहीं होना चाहिये।
    • धारा 12A में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यदि किसी वाद में त्वरित अंतरिम अनुतोष शामिल नहीं है, तो उसे पहले प्री-इंस्टीट्यूशन मध्यस्थता का प्रयोग किये बिना दायर नहीं किया जा सकता है।