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सांविधानिक विधि

बाध्यकारी संसदीय विधियाँ

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 10-Jul-2025

सोरभ कमल जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य 

"हम निदेश देते हैं कि महानिदेशक पुलिस (DGP) उत्तर-पत्र दायर करते समय अपनी शक्तियां किसी अधीनस्थ अधिकारी को प्रत्यायोजित न करें। हम यह अधिकार सुरक्षित रखते हैं कि, यदि आवश्यक और उपयुक्त प्रतीत हुआ, तो महानिदेशक पुलिस द्वारा दायर शपथपत्र का अवलोकन करने के उपरांत संबंधित अन्वेषण अधिकारी के विरुद्ध विधि के प्रावधानों के उल्लंघन हेतु आवश्यक कार्रवाई की जाए।" 

न्यायमूर्ति अजय गडकरी और राजेश पाटिल 

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में न्यायमूर्ति अजय गडकरी एवं न्यायमूर्ति राजेश पाटिल की खंडपीठ ने महाराष्ट्र पुलिस के संबंध में यह स्पष्ट करने हेतु महानिदेशक पुलिस (DGP) को शपथपत्र के माध्यम से परिपत्र प्रस्तुत करने का निदेश दिया है कि क्या संसदीय विधियाँ एवं महानिदेशक पुलिस (DGP) द्वारा निर्गत परिपत्र महाराष्ट्र पुलिस पर बाध्यकारी हैं। साथ ही, न्यायालय ने दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के उल्लंघन की स्थिति में कठोर कार्रवाई की चेतावनी भी दी है 

  • बॉम्बेउच्च न्यायालय नेसोरभ कमल जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया 

सोरभ कमल जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य, (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • 3 जून 2024 को एक आर्थिक अपराध के लिये प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई। 
  • पंजीकरण की तारीख से 13 महीने से अधिक समय से अन्वेषण चल रहा है। 
  • इस मामले के लिये नियुक्त अन्वेषण अधिकारी स्थानीय पुलिस थाने में सहायक पुलिस निरीक्षक (Assistant Police Inspector) के पद पर है। 
  • यह मामला आर्थिक अपराधों से संबंधित है, जिनमें सामान्यत: प्रक्रियाओं के गहन और व्यवस्थित अन्वेषण की आवश्यकता होती है। 
  • घटनास्थल का पंचनामा तैयार करने की मूलभूत अन्वेषण प्रक्रिया अब तक पूर्ण नहीं की गई है, जबकि घटना को घटित हुए 13 महीने से अधिक का समय व्यतीत हो चुका है। 
  • केस डायरी का रखरखाव अनियमित और सांविधिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं पाया गया। 
  • अन्वेषण की गति मंद प्रतीत होती है एवं आवश्यक मूलभूत अन्वेषणात्मक कदम अब तक अपूर्ण हैं।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने इस तथ्य पर आश्चर्य व्यक्त किया कि अपराध दिनांक 3 जून 2024 को दर्ज होने के पश्चात् 13 महीने से अधिक का समय व्यतीत हो चुका है, तथापि अन्वेषण की मूलभूत प्रक्रिया, अर्थात् घटनास्थल का पंचनामा, आज तक संबंधित अन्वेषण अधिकारी द्वारा संपादित नहीं किया गया है।  
  • न्यायालय ने कहा कि इस प्रकृति के अपराध, जो एक आर्थिक अपराध है और सहायक पुलिस निरीक्षक स्तर के अधिकारी द्वारा किये जा रहे अन्वेषण के शेष भाग के बारे में जितना कम कहा जाए उतना अच्छा है। 
  • केस डायरी का व्यक्तिगत अवलोकन करने पर न्यायालय ने पाया कि इसे पीले रंग की प्लास्टिक फाइल में ढीले पन्नों के साथ लापरवाही से रखा गया था। 
  • केस डायरी के पहले पृष्ठ पर कोई संख्या और तारीख अंकित नहीं थी तथा इसे लेजर पेपर पर टाइप किया गया था। 
  • केस डायरी प्रविष्टियाँ संख्या 1 से 13 तक ढीली पन्ने पाई गईं, जो दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 172(1-ख) के अधीन विधि के अधिदेश का स्पष्ट उल्लंघन दर्शाती हैं। 
  • न्यायालय ने पाया कि संबंधित अन्वेषण अधिकारी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 172(1-ख) के अधीन विधि के अधिदेश का स्पष्ट रूप से उल्लंघन किया है, साथ ही महाराष्ट्र राज्य के पुलिस महानिदेशक के कार्यालय द्वारा जारी विभिन्न परिपत्रों और निदेशों का भी उल्लंघन किया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि पुलिस महानिदेशक के कार्यालय ने 6 दिसंबर 2018, 16 सितंबर 2021 और 12 फरवरी 2024 को परिपत्र जारी कर महाराष्ट्र के सभी पुलिस कर्मियों को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 172 के अनुसार केस डायरी बनाए रखने का बार-बार निदेश दिया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि महाराष्ट्र राज्य के सभी पुलिस कर्मियों को दण्ड प्रक्रिया संहिता के उपबंधों के अनुसार विधि के आदेशों का पालन करना होगा, साथ ही पुलिस महानिदेशक कार्यालय द्वारा जारी निदेशों का भी पालन करना होगा। 
  • न्यायालय ने कहा कि पुलिस महानिदेशक कार्यालय द्वारा जारी निदेश निचले स्तर के पुलिस कर्मियों तक नहीं पहुँच रहे हैं, जो पुलिस विभाग के सर्वोच्च प्राधिकारी द्वारा जारी निदेशों का खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं। 
  • न्यायालय ने टिप्पणी की कि यह स्थिति अनुचित और अक्षम्य है, तथा यह भी कहा कि एक अनुशासित पुलिस बल में पुलिसकर्मी स्वयं अनुशासन का पालन नहीं कर रहे हैं और पुलिस महानिदेशक कार्यालय द्वारा जारी अनिवार्य निदेशों का पालन नहीं कर रहे हैं। 
  • न्यायालय ने पुलिस महानिदेशक को शपथ पर यह स्पष्ट करने का निदेश दिया कि क्या भारत की संसद द्वारा अधिनियमित विधि के प्रावधान महाराष्ट्र राज्य के पुलिस कर्मियों पर बाध्यकारी और अनिवार्य हैं, या उन्हें केवल काविधिनून की किताबों में ही रखा जाना है। 
  • न्यायालय ने इस बात पर स्पष्टीकरण मांगा कि क्या महाराष्ट्र राज्य के पुलिस महानिदेशक कार्यालय द्वारा जारी परिपत्र और निदेश सभी पुलिस बलों पर बाध्यकारी हैं। 
  • न्यायालय ने पुलिस महानिदेशक के शपथपत्र पर विचार करने के बाद, यदि आवश्यक समझा जाए तो विधि के प्रावधानों के उल्लंघन के लिये संबंधित अन्वेषण अधिकारी के विरुद्ध आवश्यक कार्रवाई करने का अपना अधिकार सुरक्षित रखा। 

संसदीय विधायी प्राधिकरण क्या है? 

  • भारत की संसद देश में सर्वोच्च विधायी प्राधिकारी है और अपनी विधायी क्षमता के अंतर्गत आने वाले विषयों पर विधि बनाने की सांविधानिक शक्ति रखती है। 
  • भारतीय संसद को यह सांविधानिक अधिकार प्राप्त है कि वह सांविधिक अधिनियमों के माध्यम से उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित स्थापित पूर्व निर्णयों के प्रभावों को समाप्त या अप्रभावी कर सकती है।  
  • संसद द्वारा अधिनियमित विधि न्यायिक पूर्व निर्णयों को या तो अभिव्यक्त रूप से या सांविधिक प्रावधानों के माध्यम से स्पष्ट रूप से निरस्त कर सकती है। 
  • जब संसद कोई ऐसी विधि बनाती है जो किसी विद्यमान न्यायिक पूर्व निर्णय के साथ असंगत होती है, तो सांविधिक प्रावधान स्पष्ट रूप से ऐसा कहे बिना ही उस पूर्व निर्णयों को नकार देता है।  
  • संसद किसी विशेष न्यायिक पूर्व निर्णय या निर्णय को स्पष्ट रूप से अप्रभावी घोषित कर सकती है, यदि वह सांविधिक उपबंध में विशेष रूप से यह उल्लेख कर दे कि उक्त पूर्व निर्णय या निर्णय लागू नहीं होगा अथवा उसे निष्प्रभावित किया जा रहा है।  

सांविधानिक ढाँचे क्या हैं? 

न्यायिक निर्णयों पर विधायी प्रतिक्रिया: 

  • भारतीय सांविधानिक प्रणाली के अधीन, जबकि न्यायपालिका विधि का निर्वचन करती है, वहीं संसद के पास विधि बनाने का अंतिम अधिकार होता है और वह विधान के माध्यम से न्यायिक निर्वचन को अधिभावी कर सकती है। 
  • यद्यपि न्यायिक पूर्व निर्णय संविधान के अनुच्छेद 141 के अंतर्गत बाध्यकारी हैं, तथापि जब संसद विधि बनाने के लिये अपनी सांविधानिक शक्ति का प्रयोग करती है, तो वे विधायी अधिभावी के अधीन होती हैं। 
  • जब संसद कोई ऐसी विधि बनाती है जो न्यायिक पूर्व निर्णय के विपरीत हो, तो सांविधिक प्रावधान न्यायिक निर्णय पर वरीयता ले लेता है। 

न्यायिक निर्णयों पर विधायी प्रतिक्रिया: 

  • संसद न्यायिक निर्णयों पर प्रतिक्रिया स्वरूप विशिष्ट विधि बना सकती है जो न्यायालय के निर्णयों में उठाए गए मुद्दों का समाधान करती है। 

विधिक स्थिति का स्पष्टीकरण: 

  • सांविधिक अधिनियमों के माध्यम से, संसद उन मामलों पर विधिक स्थिति स्पष्ट कर सकती है जहाँ न्यायिक पूर्व निर्णयों ने अनिश्चितता उत्पन्न की हो या जहाँ विधायी आशय न्यायिक निर्वचन से भिन्न हो। 

पूर्वव्यापी प्रभाव: 

  • संसद सांविधानिक सीमाओं के अधीन न्यायिक पूर्व निर्णयों के प्रभाव को निष्प्रभावी करने के लिये पूर्वव्यापी प्रभाव से विधि बना सकती है। 

शक्तियों का पृथक्करण: 

  • जबकि न्यायपालिका के पास विधियों का निर्वचन करने और बाध्यकारी पूर्व निर्णय  कायम करने की शक्ति है, वहीं संसद के पास ऐसी विधि बनाने का सांविधानिक अधिकार है जो ऐसी पूर्व निर्णयों को पलट सकते हैं। 

लोकतांत्रिक वैधता: 

  • संसदीय विधियाँ अपना अधिकार लोकतांत्रिक जनादेश और सांविधानिक प्रावधानों से प्राप्त करते हैं, जिससे सांविधानिक सीमाओं के भीतर अधिनियमित होने पर वे न्यायिक पूर्व निर्णयों को पीछे छोड़ देते हैं। 

सांविधानिक सर्वोच्चता: 

  • संसदीय विधि और न्यायिक पूर्व निर्णय दोनों ही संविधान के ढाँचे के अंतर्गत संचालित होती हैं, तथा संसद की विधायी शक्ति सांविधानिक सीमाओं और न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन होती है।