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सिविल कानून

मामलों की विचाराधीनता

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 31-May-2024

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस  

परिचय:

न्यायाधीशों के कार्य समय एवं अवकाशों पर वाद-विवाद फिर से प्रारंभ हो गया है तथा यह विवाद इस टिप्पणी से और अधिक बढ़ गया है कि वे दिन में केवल कुछ घंटे ही काम करते हैं व लंबे अवकाश लेते हैं। हालाँकि न्यायाधीशों के कार्य दिवसों की संख्या पर ध्यान केंद्रित करने से, विचाराधीन मामलों जैसे गंभीर मुद्दों की अनदेखी हो जाती है। अवकाशों को दोष देने का तात्पर्य यह है कि न्यायाधीशों के बेंच पर अधिक समय तक बैठे रहने से सभी समस्याएँ हल हो जाएंगी, जो कि समस्या का अत्यधिक सरलीकरण है। केवल न्यायाधीशों की समय सारणी पर ध्यान केंद्रित करने के स्थान पर प्रणालीगत अकुशलताओं को दूर करना एवं प्रक्रियाओं का आधुनिकीकरण करना आवश्यक है।

  • विचाराधीन मामलों के लिये न्यायालय के अवकाशों को दोषी ठहराना, न्यायिक प्रणालियों में विचाराधीन मामलों में योगदान देने वाले मुद्दों को अनदेखा करना है। यद्यपि न्यायालय के अवकाश वास्तव में मामलों के समाधान में देरी कर सकते हैं, परंतु वे प्रायः न्यायिक प्रणाली के भीतर बड़ी व्यवस्थागत चुनौतियों का प्रतीक होते हैं।

भारतीय न्यायपालिका में विचाराधीन मामलों की संख्या अधिक क्यों है?

  • न्यायिक कमी: भारतीय न्यायपालिका में न्यायाधीशों की कमी के कारण लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिससे मामले के समाधान में देरी हो रही है।
  • बुनियादी ढाँचे की कमी: कई न्यायालयों में मामलों की संख्या को कुशलतापूर्वक निपटाने के लिये पर्याप्त बुनियादी ढाँचे और संसाधनों का अभाव है, जिससे मामलों के निपटान में देरी बढ़ जाती है।
  • मामलों की जटिलता: कुछ मामले स्वाभाविक रूप से जटिल होते हैं तथा उनके समाधान के लिये अत्यधिक समय एवं संसाधनों की आवश्यकता होती है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया में देरी होती है।
  • प्रक्रियागत विलंब: गवाहों को ढूँढने में कठिनाई अथवा साक्ष्य जुटाने में देरी जैसी समस्याओं के कारण विधिक प्रक्रियाएँ लंबी हो सकती हैं, जिससे मामले के समाधान में देरी हो सकती है।
  • क्षीण प्रवर्तन: न्यायालय के आदेशों का अपर्याप्त प्रवर्तन होने के कारण और अधिक देरी होती है, क्योंकि निर्णयों का समय पर क्रियान्वयन नहीं होने के कारण मामले विचाराधीन हो जाते हैं।
  • विधिक जागरूकता में वृद्धि: लोगों में विधिक जागरूकता बढ़ने से दर्ज किये जाने वाले मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त, जनहित याचिका (PIL) जैसे तंत्रों ने विधिक सहायता के लिये रास्ते खोल दिये हैं, जिससे वादों का भार बढ़ गया है।

भारत में न्यायिक प्रणाली पर विचाराधीन मामलों का क्या प्रभाव है?

  • विधाराधीन मामलों के कारण काफी देरी होती है, जो कई वर्षों या दशकों तक चलती है।
  • न्यायाधीशों के पास मामलों का गहन मूल्यांकन करने के लिये समय का अभाव होता है, जिससे न्याय की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
  • न्यायालयों पर अत्यधिक भार है, जिससे समय पर मामलों का निपटारा नहीं हो पाता।
  • लंबे विलंब के कारण न्याय व्यवस्था में जनता का विश्वास कम हो जाता है।
  • लंबी विधिक कार्यवाही के कारण वादियों को वित्तीय समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
  • पीड़ितों एवं गवाहों को अन्याय सहना पड़ता है तथा उनकी स्मृति धुँधली पड़ जाती हैं और उनको याद रखना असंभव हो जाता है।
  • अनसुलझे विधिक विवादों के कारण व्यापारिक गतिविधियाँ रुक जाती हैं या उनमें देरी हो जाती है, जिससे आर्थिक विकास बाधित होता है।

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (NJDG) क्या है?

  • परिचय:
    • NJDG को केंद्र सरकार की व्यवसाय सुगमता पहल के तहत NIC द्वारा विकसित किया गया था।
    • यह ई-कोर्ट एकीकृत मिशन मोड परियोजना का एक भाग है जो वर्ष 2007 से कार्यान्वित किया जा रहा है।
      • परियोजना का प्रथम चरण वर्ष 2011-2015 के दौरान क्रियान्वित किया गया।
      • परियोजना का दूसरा चरण वर्ष 2015 में प्रारंभ हुआ था, जिसका उद्देश्य ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालयों के डेटा को कंप्यूटरीकृत करना था। हालाँकि इन न्यायालयों का डेटा 7 अगस्त 2013 को NJDG पोर्टल पर प्रदर्शित किया गया था।
      • उच्च न्यायालयों के लिये NJDG का शुभारंभ 3 जुलाई 2020 को श्री के.के. वेणुगोपाल द्वारा किया गया।
      • वर्ष 2023 से, उच्चतम न्यायालय का डेटा भी पोर्टल पर उपलब्ध होगा।
    • इसका प्राथमिक उद्देश्य उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालयों एवं अधीनस्थ न्यायालयों में विचाराधीन और निपटाए गए मामलों की स्थिति की निगरानी करना है।
  • उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन मामले (2024)
    • सिविल मामले– 64598
    • आपराधिक मामले– 17509
    • कुल मामले- 82107
  • उच्च न्यायालयों में विचाराधीन मामले (2024)
    • इलाहाबाद उच्च न्यायालय– 1073045
    • बॉम्बे उच्च न्यायालय– 718495
    • कलकत्ता उच्च न्यायालय– 192412

भारतीय न्यायपालिका में रिक्त पदों के क्या कारण हैं?

  • नियुक्तियों में विलंब: न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया लंबी और जटिल हो सकती है, जिसके कारण रिक्त पदों को भरने में विलंब हो सकता है।
  • योग्य उम्मीदवारों की कमी: कभी-कभी न्यायिक रिक्तियों को भरने के लिये आवश्यक योग्यता एवं अनुभव वाले उपयुक्त उम्मीदवारों की कमी हो सकती है।
  • प्रशासनिक अड़चनें: न्यायपालिका के भीतर प्रशासनिक मुद्दे, जैसे साक्षात्कार आयोजित करने या आवेदनों पर कार्यवाही करने में देरी जैसी अडचनें, रिक्तियों की अधिकता में योगदान कर सकते हैं।
  • हस्तक्षेप या राजनीतिक कारण: नियुक्ति प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप या कारण भी न्यायपालिका में देरी या रिक्तियों का कारण बन सकते हैं।
  • त्याग-पत्र और सेवानिवृत्ति: न्यायाधीश विभिन्न कारणों से अपने पदों से सेवानिवृत्त हो सकते हैं या इस्तीफा दे सकते हैं, जिससे रिक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जिन्हें भरा जाना आवश्यक है।

आगे की राह

  • न्यायिक सेवा की क्षमता में वृद्धि: समाधानों में से एक यह है कि अधीनस्थ स्तर पर अधिक न्यायाधीशों की नियुक्ति करके न्यायिक सेवाओं की क्षमता में पर्याप्त वृद्धि की जाए- यह सुधार, तंत्र के निचले स्तर से प्रारंभ होना चाहिये।
    • अधीनस्थ न्यायपालिका को दृढ़ बनाने का अर्थ उसे प्रशासनिक एवं तकनीकी सहायता तथा पदोन्नति, विकास और प्रशिक्षण की संभावनाएँ प्रदान करना भी है।
    • अखिल भारतीय न्यायिक सेवा को संस्थागत बनाना सही दिशा में एक कदम हो सकता है।
  • पर्याप्त बजट: नियुक्तियों और सुधारों के लिये महत्त्वपूर्ण परंतु अत्यंत आवश्यक व्यय की आवश्यकता होगी।
    • पंद्रहवें वित्त आयोग की अनुशंसाओं एवं भारत न्याय रिपोर्ट 2020 ने इस मुद्दे को उठाया है तथा धनराशि निर्धारित करने एवं उसे व्यय करने के तरीके सुझाए हैं।
  • अनावश्यक एवं निष्क्रिय जनहित याचिकाएँ: उच्चतम न्यायालय को सभी 'निष्क्रिय' जनहित याचिकाओं- जो उच्च न्यायालयों के समक्ष 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं- के त्वरित निपटान का आदेश देना चाहिये, यदि वे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक नीति या विधिक प्रश्न से संबंधित नहीं हैं।
  • ऐतिहासिक असमानताओं को दूर करना: न्यायपालिका में सुधारों में न्यायपालिका के भीतर सामाजिक असमानताओं को दूर करना भी शामिल होना चाहिये।
    • महिला न्यायाधीशों तथा ऐतिहासिक रूप से दमित और पिछड़ी जातियों एवं वर्गों के न्यायाधीशों को न्यायसंगत अवसर दिये जाने चाहिये।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान को बढ़ावा देना: यह अनिवार्य किया जाना चाहिये कि सभी वाणिज्यिक वादों पर तभी विचार किया जाएगा जब याचिकाकर्त्ता की ओर से शपथ-पत्र दिया जाएगा कि मध्यस्थता एवं सुलह का प्रयास किया गया था परंतु वह विफल रहा।
    • ADR (वैकल्पिक विवाद समाधान), लोक अदालतें, ग्राम न्यायालय जैसी प्रणालियों का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाना चाहिये।