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सांविधानिक विधि

राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143 के अधीन प्रश्नों को उच्चतम न्यायालय के समक्ष संदर्भित किया गया

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 16-May-2025

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का पत्र 

8 अप्रैल के उच्चतम न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय में प्रस्तुत "मानी गई अनुमति (deemed assent) की अवधारणा" "संवैधानिक व्यवस्था के लिये अलग है तथा मूलतः राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को सीमित करती है।" 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के अधीन अपने परामर्शी अधिकार का प्रयोग करते हुए, उच्चतम न्यायालय से यह मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु अनुरोध किया है कि-  राज्यपालों एवं राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करने हेतु कोई निर्धारित समय-सीमा है अथवा नहीं।  

तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • यह विवाद सितंबर 2021 में आर.एन. रवि की तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में नियुक्ति के बाद उभरा, जब विधायी विधेयकों को लेकर डी.एम.के. के नेतृत्व वाली राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच तनाव पैदा हो गया। 
  • तमिलनाडु सरकार ने एक स्वरूप देखा जहाँ राज्यपाल रवि लगातार कई विधेयकों पर मंजूरी रोक रहे थे, जिनमें से कुछ जनवरी 2023 से लंबित हैं, जिससे महत्त्वपूर्ण विधायी कार्यों में विलंब हो रहा था। 
  • नवंबर 2023 में, तमिलनाडु सरकार ने राज्यपाल के कार्यों को चुनौती देते हुए और अनुच्छेद 200 के अधीन राज्यपाल की शक्तियों की सांविधानिक सीमाओं पर स्पष्टता की मांग करते हुए उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। 
  • 6 नवंबर 2023 को प्रारंभिक सुनवाई के दौरान, उच्चतम न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा कि "राज्यपाल इस तथ्य से अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं।" 
  • इस घटनाक्रम के पश्चात्, तमिलनाडु विधानसभा ने सक्रिय कदम उठाते हुए राज्यपाल द्वारा रोके गए लंबित विधेयकों को पुनः अधिनियमित (re-enact) कर दिया। 
  • यद्यपि, राज्यपाल रवि ने इनमें से दो पुनः अधिनियमित विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ प्रेषित कर दिया तथा शेष विधेयकों पर अपनी स्वीकृति प्रदान करने से निरंतर विरत रहे, जिससे सांविधानिक संकट और अधिक गहराता गया।  
  • इस मामले ने व्यापक महत्त्व प्राप्त कर लिया, क्योंकि केरल, तेलंगाना और पंजाब सहित अन्य विपक्षी शासित राज्यों ने भी इसी प्रकार की याचिकाएं दायर कीं, जिनमें विभिन्न राज्यों में विधायी प्रक्रियाओं में राज्यपालों द्वारा किये जाने वाले विलंब की एक समान प्रवृत्ति परिलक्षित हो रही है। 
  • यह सांविधानिक विवाद अब एक पूर्वनिर्णय कायम करने वाला मामला बन गया है, जो राज्यपाल की शक्तियों के दायरे को निर्धारित करेगा, विशेष रूप से अनुमोदन के लिये समय-सीमा और विधेयकों को रोकने या आरक्षित रखने के उनके अधिकार की सीमाओं के संबंध में। 

राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय के समक्ष संदर्भित किये गए प्रश्न क्या थे? 

  • जब राज्यपाल के समक्ष संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत कोई विधेयक प्रस्तुत किया जाता है तो उसके समक्ष सांविधानिक विकल्प क्या हैं? 
  • क्या राज्यपाल, भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत विधेयक प्रस्तुत किये जाने पर, अपने पास उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करते समय मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता एवं सलाह से आबद्ध हैं?  
  • क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल द्वारा सांविधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है?  
  • क्या भारत के संविधान का अनुच्छेद 361, भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के कार्यों के संबंध में न्यायिक पुनर्विलोकन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है? 
  • सांविधानिक रूप से विहित समय-सीमा, तथा राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में, क्या राज्यपाल द्वारा संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत सभी शक्तियों के प्रयोग के लिये न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमा निर्धारित की जा सकती है तथा प्रयोग का तरीका निर्धारित किया जा सकता है? 
  • क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा सांविधानिक विवेक का प्रयोग न्यायोचित है? 
  • सांविधानिक रूप से विहित समय-सीमा और राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग की रीति के अभाव में, क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार के प्रयोग के लिये न्यायिक आदेशों के माध्यम से समय-सीमा अधिरोपित की जा सकती है और प्रयोग की रीति को निर्धारित किया जा सकता है? 
  • राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करने वाली सांविधानिक योजना के आलोक में, क्या राष्ट्रपति को संविधान के अनुच्छेद 143 के अधीन संदर्भ के माध्यम से उच्चतम न्यायालय से सलाह लेने की आवश्यकता है और जब राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिये या अन्यथा सुरक्षित रखता है, तो उच्चतम न्यायालय से परामर्श लेना  होगा? 
  • क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति के क्रमशः भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के अधीन लिये गए निर्णय, विधि के लागू होने से पूर्व के चरण में न्यायोचित हैं? क्या न्यायालयों को किसी विधेयक के विधि बनने से पूर्व, किसी भी तरह से, उसकी विषय-वस्तु पर न्यायिक निर्णय लेने की अनुमति है? 
  • क्या सांविधानिक शक्तियों के प्रयोग और राष्ट्रपति/राज्यपाल के आदेशों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत किसी भी रीति से प्रतिस्थापित किया जा सकता है? 
  • क्या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गई विधि, संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू विधि हो जाती है? 
  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 145(3) के उपबंध के मद्देनजर, क्या इस माननीय न्यायालय की किसी भी पीठ के लिये यह अनिवार्य नहीं है कि वह पहले यह तय करे कि उसके समक्ष कार्यवाही में सम्मिलित प्रश्न ऐसी प्रकृति का है जिसमें संविधान के निर्वचन के रूप में विधि के पर्याप्त प्रश्न सम्मिलित हैं और इसे न्यूनतम पाँच न्यायाधीशों की पीठ को संदर्भित किया जाए? 
  • क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय की शक्तियां केवल प्रक्रिया संबंधी विधि तक सीमित हैं, या यह अनुच्छेद उच्चतम न्यायालय को ऐसे निदेश जारी करने अथवा आदेश पारित करने का अधिकार प्रदान करता है जो वर्तमान में प्रवर्तन में रही किसी भी मूल या प्रक्रिया संबंधी सांविधानिक अथवा वैधानिक व्यवस्था के विपरीत या असंगत हों? 
  • क्या संविधान उच्चतम न्यायालय को संघ सरकार और राज्य सरकारों के बीच विवादों के समाधान हेतु भारत के संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत वाद दायर करने के अतिरिक्त किसी अन्य अधिकारिता पर रोक लगाता है? 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 200 और 143 क्या है? 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 200  

  • भारत के संविधान का अनुच्छेद 200 राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की अनुमति के लिये प्रक्रिया स्थापित करता है, जिसमें निम्नलिखित प्रमुख विधिक उपबंध हैं: 
  • राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक प्रस्तुत किये जाने पर राज्यपाल को तीन सांविधानिक विकल्पों में से एक का प्रयोग करना होगा: 
    • विधेयक को अनुमति प्रदान करना 
    • विधेयक पर अनुमति रोक देना  
    • विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखना 
  • राज्यपाल के पास गैर-धन विधेयकों को पुनर्विचार हेतु सिफारिशों के साथ विधानमंडल को लौटाने की योग्य शक्ति है, जो निम्नलिखित शर्तों के अधीन है: 
    • ऐसे विधेयक की प्रस्तुति के पश्चात्, राज्यपाल द्वारा उसकी वापसी "यथाशीघ्र" की जानी अनिवार्य है।  
    • वापसी के साथ राज्यपाल को अपने विशिष्ट सुझाव अथवा सुझाए गए संशोधन को संलग्न करना आवश्यक है।  
    • यह शक्ति धन विधेयकों के लिये स्पष्ट रूप से अपवर्जित है।  
  • पुनर्विचार प्रक्रिया के माध्यम से विधानमंडल के पास अंतिम प्राधिकार सुरक्षित रहता है, जैसे: 
    • विधेयक को राज्यपाल की सिफारिशों सहित पुनः विचार हेतु विधानमंडल को प्रस्तुत किया जाना होता है। 
    • विधानमंडल राज्यपाल के सुझावों को स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकता है। 
    • यदि विधानमंडल विधेयक को (संशोधनों सहित अथवा बिना संशोधनों के) पुनः पारित कर देता है, तो राज्यपाल संविधानिक रूप से अनुमोदन देने हेतु आबद्ध होते है। 
  • राज्यपाल के लिये कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखना अनिवार्य है, विशेषत: 
    • कोई भी विधेयक जो राज्यपाल की राय में उच्च न्यायालय की शक्तियों का हनन करता हो।  
    • कोई भी विधेयक जो उच्च न्यायालय की सांविधानिक रूप से बनाई गई स्थिति को संकट में डालता हो। 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 143  

  • अनुच्छेद 143 राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वे उच्चतम न्यायालय से परामर्शात्मक मत प्राप्त कर सकें: 
  • राष्ट्रपति दो विशिष्ट परिस्थितियों में कोई प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय को संदर्भित कर सकते हैं:  
    • अनुच्छेद 143(1) के अधीन: जब कोई विधि या तथ्य का प्रश्न उत्पन्न हो गया हो या उत्पन्न होने की संभावना हो जो ऐसी प्रकृति और व्यापक महत्त्व का हो कि उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन हो 
    • अनुच्छेद 143(2) के अधीन: अनुच्छेद 131 के परंतुक में उल्लिखित विवादों के लिये, उसमें निहित किसी बात के होते हुए भी 
  • ऐसे संदर्भों में उच्चतम न्यायालय की भूमिका इस प्रकार है: 
    • उचित सुनवाई के उपरांत प्रश्न पर विचार करना। 
    • संदर्भित विषयों पर अपनी राय राष्ट्रपति को प्रेषित करना। 
  • इस शक्ति की प्रकृति निर्णयात्मक न होकर सलाहकारी है, जो नियमित मुकदमेबाजी की बाधाओं के बिना महत्त्वर्ण विधिक प्रश्नों पर न्यायिक मत प्राप्त करने के लिये एक सांविधानिक तंत्र का निर्माण करती है। 

भारत के संविधान का अनुच्छेद 201  

  • भारत के संविधान का अनुच्छेद 201 राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित विधेयकों की प्रक्रिया को नियंत्रित करता है, तथा निम्नलिखित प्रमुख विधिक उपबंध स्थापित करता है: 
  • आरक्षित विधेयकों पर राष्ट्रपति के विकल्प: 
    • जब कोई विधेयक राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखा जाता है, तो राष्ट्रपति को दो सांविधानिक विकल्पों में से एक का प्रयोग करना होगा: 
      • विधेयक को अनुमति प्रदान करना 
      • विधेयक पर अनुमति रोक देना  
  • पुनर्विचार हेतु वापसी का निदेश देने की राष्ट्रपति की शक्ति: 
    • गैर-धन विधेयकों के लिये, राष्ट्रपति के पास राज्यपाल को विधेयक को राज्य विधानमंडल को वापस भेजने का निदेश देने की योग्य शक्ति होती है 
    • इस प्रकार की वापसी के साथ एक संदेश संलग्न होना आवश्यक होता है, जो कि अनुच्छेद 200 की प्रथम परंतुक में उल्लिखित संदेश के समरूप होता है, जिसमें संभावित रूप से सिफारिशें या सुझाए गए संशोधन सम्मिलित हो सकते हैं 
  • समयबद्ध विधायी पुनर्विचार प्रक्रिया: 
    • जब किसी विधेयक को राष्ट्रपति के निदेश पर राज्यपाल द्वारा पुनर्विचार हेतु वापस किया जाता है, तो राज्य विधानमंडल को उस विधेयक पर राष्ट्रपति के संदेश की प्राप्ति की तिथि से छह माह की सांविधानिक रूप से विहित अवधि के भीतर पुनर्विचार करना अनिवार्य होता है। 
    • यह छह महीने की समय-सीमा एक विशिष्ट संवैधानिक सीमा उत्पन्न करती है, जो कि अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल को प्रदत्त पुनर्वापसी की शक्ति में नहीं पाई जाती। 
  • पुनर्विचार के पश्चात् विधायी प्राधिकार: 
    • राज्य विधानमंडल सुझाएँ गए संशोधनों को सम्मिलित करने के साथ या बिना विधेयक को पुनः पारित कर सकता है।  
    • पुनर्विचार और पुनः पारित होने के पश्चात् विधेयक को पुनः राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिये।  
  • राष्ट्रपति की अंतिम निर्णयात्मक शक्ति:  
    • अनुच्छेद 200 के अधीन राज्यपाल के विपरीत, राष्ट्रपति के पास विधायी पुनर्विचार के पश्चात् भी अनुमति को रोकने का अधिकार है। 
    • इससे राज्य की विधि पर अंतिम नियंत्रण स्थापित हो जाता है जिसे विशेष रूप से राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित रखा गया है। 
  • धन और गैर-धन विधेयक के बीच सांविधानिक अंतर: 
    • राष्ट्रपति द्वारा विधेयक को पुनर्विचार हेतु वापस भेजने की शक्ति केवल गैर-धन विधेयकों पर लागू होती है, जिससे वित्तीय विधान के लिये एक स्वतंत्र प्रक्रिया संबंधी मार्ग (separate procedural track) स्थापित होता है।  
    • यह अनुच्छेद भारत की संघीय प्रणाली के अंतर्गत कार्यकारी समीक्षा की एक अतिरिक्त सांविधानिक परत प्रदान करता है, जो राज्य विधानमंडलों के विचार-विमर्श संबंधी प्राधिकार का सम्मान करते हुए, कुछ राज्य विधानों की राष्ट्रपति द्वारा जांच की अनुमति देता है। 

ऐतिहासिक निर्णय  

नबाम रेबिया और बामंग फेलिक्स बनाम उपसभापति (2016)  

  • इस महत्त्वपूर्ण निर्णय में, संविधान पीठ के पाँच न्यायाधीशों में से एक के रूप में न्यायमूर्ति मदन लोकुर ने पृथक सहमतिपूर्ण अभिमत व्यक्त करते हुए, राज्यपाल की शक्तियों के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत स्थापित किया। 
  • न्यायालय ने स्पष्ट रूप से निर्णय दिया कि राज्यपाल विधेयकों पर अपनी अनुमति हेतु अनिश्चित काल तक रोके नहीं रख सकते, जिससे राज्यपाल के विवेक पर स्पष्ट सीमाएं स्थापित हो गईं। 
  • इस निर्णय में यह निदेशित किया गया कि यदि राज्यपाल को किसी विधेयक को लेकर आपत्ति या सुझाव हो, तो वे उसे स्पष्ट संदेश अथवा सिफारिशों के साथ विधानसभा को पुनः प्रेषित करें, न कि उसे अनिश्चितकाल तक लंबित रखें। 

पंजाब राज्य बनाम पंजाब के राज्यपाल के प्रधान सचिव और अन्य (2023): 

  • यह वाद तब उत्पन्न हुआ जब पंजाब के राज्यपाल ने विधान सभा के बजट सत्र को आहूत करने से इनकार कर दिया और तत्पश्चात् विधानसभा द्वारा पारित चार विधेयकों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई, जिसके परिणामस्वरूप राज्य सरकार ने अनुच्छेद 32 के अधीन उच्चतम न्यायालय का का रुख किया।  
  • मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ अध्यक्षता में गठित पीठ ने यह अवलोकन किया कि अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल को प्रदत्त अनुमति को रोके रखने की शक्ति को उस बाध्यता के साथ पढ़ा जाना चाहिये, जिसके अनुसार उन्हें विधेयक को पुनर्विचार हेतु राज्य विधानमंडल को लौटाना आवश्यक है। 
  • न्यायालय ने दृढ़ता से यह स्थापित किया कि राज्यपाल, जो एक अप्रतिनिधिक (निर्वाचित न होने वाले) सांविधानिक पदाधिकारी हैं, वे अपने सांविधानिक अधिकारों का प्रयोग कर सामान्य विधायी प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न नहीं कर सकते। राज्यपाल को या तो विधेयक को अनुमति प्रदान करनी होगी या फिर अपनी सिफारिशों सहित उसे विधानसभा को पुनः विचारार्थ प्रेषित करना होगा, न कि उसे अनिश्चितकाल तक लंबित रखना।  
  • इस निर्णय में नबाम रेबिया मामले में स्थापित सिद्धांतों का पालन किया गया और उन पर निर्माण किया गया, जिससे विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल की जवाबदेही के लिये एक ठोस ढाँचा तैयार किया गया।