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आपराधिक कानून

CrPC की धारा 436-A

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 03-Jun-2024

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस  

परिचय:

दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में शरजील इमाम को विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप निवारण अधिनियम (UAPA) के अधीन देशद्रोह एवं विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप के आरोपों से जुड़े एक मामले में वैधानिक ज़मानत प्रदान की। यह निर्णय इमाम की ज़मानत याचिका को चुनौती दिये जाने के बाद आया है और न्यायालय के निर्णय के बावजूद वह अभी भी अभिरक्षा में है। वैधानिक ज़मानत, दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 436-A के अधीन दी गई, जिसके अधीन आरोपी को उस समय ज़मानत दी जाती है जब उसने अपराध के लिये निर्धारित अधिकतम कारावास की अवधि का आधा भाग पूरा कर लिया हो। यह निर्णय उस समय आया जब इमाम ने इस मामले में विचाराधीन कैदी के रूप में लगभग चार वर्ष जेल में बिताए।

इमाम की ज़मानत के आधार क्या हैं?

  • इमाम के विरुद्ध UAPA की धारा 13 के अधीन अधिकतम सात वर्ष के कारावास का प्रावधान है, जबकि उस पर देशद्रोह के लिये भी आरोप लगाया गया है, जिसके लिये, अधिकतम आजीवन कारावास के दण्ड का प्रावधान है।
    • आजीवन कारावास वाले मामलों में, 10 वर्ष के कारावास को वैधानिक ज़मानत देने के लिये आधा दण्ड माना जाता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2021 के निर्णय में धारा 124A के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी, जो देशद्रोह को दण्डित करती है।
    • परिणामस्वरूप, इमाम सहित राजद्रोह के अन्य आरोपों पर सुनवाई, इस प्रावधान की संवैधानिक वैधता के निर्धारण तक प्रभावी रूप से रुकी हुई है।
    • शीघ्र सुनवाई की कोई तत्काल संभावना न होने के कारण, वैधानिक ज़मानत रिहाई का प्राथमिक रास्ता बन गई, विशेषकर उन स्थितियों में जब ज़मानत को पहले ही, योग्यता के आधार पर खारिज कर दिया गया था।
  • यद्यपि इमाम को वैधानिक ज़मानत दे दी गई है, परंतु वर्ष 2020 के उत्तर पूर्वी दिल्ली दंगों से संबंधित एक अन्य मामले में शामिल होने के कारण वह अभी भी अभिरक्षा में है।
    • वह असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में कई अन्य मामलों का सामना कर रहे हैं।
    • फिलहाल वह इन मामलों में अभिरक्षा में नहीं है, अतः रिहाई के लिये उसे ज़मानत आवेदन की आवश्यकता नहीं है।
  • ट्रायल कोर्ट और उच्च न्यायालय द्वारा पूर्व में ज़मानत खारिज किये जाने के बावजूद, इमाम को हाल में दी गई ज़मानत धारा 436-A CrPC के अधीन तकनीकी आधार पर दी गई थी।
    • यह प्रावधान उस स्थिति में ज़मानत की अनुमति देता है जब अभियुक्त ने अपराध के लिये निर्धारित अधिकतम कारावास अवधि की आधी अवधि पूरी कर ली हो।

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 436-A क्या है?

परिचय:

  • धारा 436-A CrPC को उन विचाराधीन कैदियों के अधिकारों की रक्षा के लिये विनियमित किया गया था, जिन्हें जाँच, पूछताछ तथा परीक्षण की प्रतीक्षा में लंबे समय तक जेल में रखा जाता है।
  • इस प्रावधान का उद्देश्य ऐसे व्यक्तियों को लंबे समय तक कारावास में रखने से रोकना है, जिन्हें किसी भी अपराध के लिये दोषी नहीं ठहराया गया है तथा यह "दोषी सिद्ध होने तक निर्दोषता की धारणा" के मूल सिद्धांत के अनुरूप है।
  • धारा 436-A के अधिनियमित होने से पहले, कई विचाराधीन कैदियों को काफी लंबे समय तक अन्यायपूर्ण तरीके से अभिरक्षा में रखा जाता था, जिससे उनके अधिकारों का उल्लंघन होता था तथा आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर न्याय एवं निष्पक्षता के सिद्धांतों को क्षीण किया जाता था।

CrPC की धारा 436-A:

  • CrPC की धारा 436-A, ऐसे अपराध जो मृत्यु दण्ड से दण्डनीय न हों, की जाँच, पूछताछ या सुनवाई के दौरान विचाराधीन कैदियों के लिये अभिरक्षा की अवधि को संबंधित विधि के अधीन, उस अपराध के लिये निर्दिष्ट अधिकतम कारावास अवधि के आधे तक सीमित करती है।
  • इस सीमा तक पहुँचने पर, न्यायालय को विचाराधीन कैदी को निजी मुचलके पर, ज़मानत के साथ या उसके बिना, रिहा करने का अधिकार है।
  • वर्ष 2005 में अधिनियमित यह प्रावधान विचाराधीन कैदियों, विशेषकर कम दण्ड अवधि वाले आरोपों का सामना कर रहे कैदियों की बड़ी संख्या के कारण जेलों में भीड़-भाड़ की समस्या से निपटता है।
  • यह प्रावधान, विचाराधीन कैदियों को उनके द्वारा आरोपित अपराध के लिये निर्धारित अधिकतम कारावास अवधि की आधी अवधि पूरी करने के उपरांत उनकी रिहाई सुनिश्चित कर राहत प्रदान करता है, जिससे आपराधिक न्याय प्रणाली में निष्पक्षता और दक्षता को बढ़ावा मिलता है।

CrPC की धारा 436-A का विधिक प्रावधान:  

  • CrPC की धारा 436 A के अनुसार, यदि कोई व्यक्ति विचाराधीन कैदी के रूप में निर्धारित दण्ड की अधिकतम अवधि का आधा भाग जेल में बिता चुका है तो उसे ज़मानत पर रिहा किया जाएगा।
  • इसमें कहा गया है कि जहाँ किसी व्यक्ति ने, CrPC के अधीन जाँच, पूछताछ या परीक्षण की अवधि के दौरान, किसी विधि के अधीन अपराध (ऐसा अपराध न हो जिसके लिये उस विधि के अधीन दण्ड के रूप में मृत्युदण्ड निर्दिष्ट किया गया हो) उस विधि के अधीन उस अपराध के लिये निर्दिष्ट कारावास की अधिकतम अवधि की आधी अवधि के लिये अभिरक्षा में रखा है, तो उसे न्यायालय द्वारा ज़मानत के साथ या उसके बिना, निजी मुचलके पर रिहा कर दिया जाएगा।
    • परंतु न्यायालय, लोक अभियोजक को सुनने के पश्चात् तथा उसके द्वारा अभिलिखित कारणों से, ऐसे व्यक्ति को उक्त अवधि के आधे से अधिक अवधि के लिये निरंतर निरुद्ध रखने का आदेश दे सकता या उसे प्रतिभूति के साथ या बिना प्रतिभूति के, निजी मुचलके के स्थान पर ज़मानत पर रिहा कर सकेगा।
    • आगे यह भी प्रावधान है कि किसी भी मामले में ऐसे व्यक्ति को जाँच, पूछताछ या विचारण की अवधि के दौरान उस विधि के अधीन, उक्त अपराध के लिये प्रदान किये गए कारावास की अधिकतम अवधि से अधिक के लिये, अभिरक्षा में नहीं रखा जाएगा।
  • इस धारा के अंतर्गत ज़मानत देने के लिये अभिरक्षा की अवधि निर्धारित करते समय, अभियुक्त द्वारा कार्यवाही में देरी के कारण अभिरक्षा की अवधि को इसमें शामिल नहीं किया जाएगा।

विचाराधीन कैदियों के लिये अन्य सुरक्षा क्या हैं?

  • ज़मानती अपराधों के लिये ज़मानत: CrPC की धारा 436 के अनुसार, सभी ज़मानती अपराधों के लिये, न्यायालयों को ज़मानत देना अनिवार्य है। ज़मानत बांड भरने के इच्छुक आरोपी को ऐसे मामलों में ज़मानत दी जानी चाहिये। हालाँकि, गैर-ज़मानती अपराधों के लिये, ज़मानत देने का निर्णय अदालत के विवेक पर निर्भर करता है।
  • लंबी अवधि तक कारावास से बचने के लिये डिफॉल्ट ज़मानत: बिना किसी सुनवाई के लंबी अवधि तक कारावास से बचने के लिये, अदालतें डिफॉल्ट ज़मानत भी देती हैं। CrPC की धारा 167(2) में यह प्रावधान है कि पुलिस के पास जाँच पूरी करने तथा न्यायालय के समक्ष अंतिम रिपोर्ट दाखिल करने के लिये 60 दिन का समय है। मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या न्यूनतम 10 वर्ष की जेल अवधि वाले अपराधों के लिये यह अवधि 90 दिनों तक बढ़ाई जाती है।
  • डिफॉल्ट ज़मानत के लिए मानदंड: यदि पुलिस निर्दिष्ट अवधि के भीतर जाँच पूरी करने और आरोप-पत्र प्रस्तुत करने में विफल रहती है, तो डिफॉल्ट ज़मानत दी जाती है। यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि डिफॉल्ट ज़मानत केवल भारतीय दण्ड संहिता, 1860(IPC) के अपराधों पर लागू होती है। UAPA जैसी विशेष विधियों में पुलिस जाँच के लिये समय-सीमा में छूट दी जा सकती है।

 CrPC की धारा 436 A का दायरा क्या है?

  • विवेकाधीन राहत: जबकि धारा 436-A उन विचाराधीन कैदियों की रिहाई के लिये एक रूपरेखा प्रदान करती है, जिन्होंने अपने अपराध के लिये अधिकतम दण्ड का आधा भाग पूरा कर लिया है, यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि ज़मानत का अनुदान स्वचालित नहीं है। पहला प्रावधान न्यायालय को ऐसी राहत को रोकने का विवेक देता है यदि वह आगे की अभिरक्षा को आवश्यक समझती है, भले ही प्रावधान में उल्लिखित शर्तें पूरी हों।
  • ज़मानत का प्रतिषेध करने का न्यायालय का अधिकार: पहला प्रावधान न्यायालय को ज़मानत का प्रतिषेध करने का अधिकार देता है, यदि उसे लगता है कि विचाराधीन कैदी को धारा 436-A में निर्दिष्ट पूर्वापेक्षाओं की संतुष्टि के बावजूद अभिरक्षा में रखना उचित है। यह विवेकाधीन शक्ति न्यायालय को अपराध की गंभीरता, अभियुक्त द्वारा साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ की संभावना या भागने के जोखिम जैसे कारकों पर विचार करने की अनुमति देती है।
  • विशिष्ट परिस्थितियों में पूर्ण राहत: इसके विपरीत, दूसरा प्रावधान स्पष्ट करता है कि धारा 436-A के अधीन दी गई राहत पूर्ण है यदि विचाराधीन कैदी ने पहले ही उस अपराध के लिये निर्धारित अधिकतम अवधि पूरी कर ली है जिसका उस पर आरोप है। ऐसे मामलों में, न्यायालय कैदी को ज़मानत पर रिहा करने के लिये बाध्य है, क्योंकि आगे की अभिरक्षा विधिक प्रावधानों का उल्लंघन करेगी।

धारा 436A से संबंधित प्रासंगिक मामले क्या हैं?

  • हसन अली खान बनाम राज्य मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय (2011) ने धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) के प्रावधानों के अधीन आरोपी एक विचाराधीन कैदी को ज़मानत प्रदान की, जबकि उसने विशेष विधि द्वारा निर्धारित अधिकतम दण्ड अवधि की आधी अवधि जेल में काट ली थी।
    • यह माना गया: "चूँकि माननीय उच्चतम न्यायालय का निर्णय है कि आवेदक के मामले पर भीम सिंह बनाम भारत संघ के निर्णय के अनुसार विचार किया जाना चाहिये, अतः इस मामले के गुण-दोष पर विचार करना आवश्यक नहीं होगा।” अतः इस न्यायालय का मानना ​​है कि धारा 436-A CrPC, 1973 के आधार पर, आवेदक ज़मानत पर रिहा होने का अधिकारी है।

निकर्ष:

 हाल ही में धारा 436-A CrPC के आधार पर शारजील इमाम को वैधानिक ज़मानत प्रदान करना विचाराधीन कैदियों के अधिकारों की सुरक्षा को रेखांकित करता है। गंभीर दण्ड वाले आरोपों का सामना करने के बावजूद, राजद्रोह के मुकदमों में रोक एवं ज़मानत के तकनीकी आधार ने आपराधिक न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और दक्षता की ओर ध्यान आकर्षित किया है।