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सांविधानिक विधि

उच्चतम न्यायालय ने अल्पसंख्यक विद्यालयों की शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) से छूट पर प्रश्न उठाए

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 03-Sep-2025

स्रोत:इंडियन एक्सप्रेस 

परिचय 

उच्चतम न्यायालय ने एक दशक पुराने सांविधानिक पूर्व निर्णय पर गंभीर संदेह जताया है, जिसके अधीन अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को बालकों के नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 (RTE Act) से व्यापक छूट दी गई थी। न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने यह विचार किया है कि प्रामति एजुकेशनल ऐंड कल्चरल ट्रस्ट बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2014) के निर्णय में क्या अल्पसंख्यक प्रबंधित विद्यालयों के अधिकारों तथा बालकों के शिक्षा के मौलिक अधिकार के बीच उचित संतुलन स्थापित किया गया था। यह विचार-विमर्श पूर्ववर्ती निर्णय की व्यापक समीक्षा का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।  

अंजुमन इशात--तालीम ट्रस्ट बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2014) की पृष्ठभूमि और न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • यह मामला इस अपील से शुरू हुआ कि क्या अल्पसंख्यक विद्यालयों और गैर-अल्पसंख्यक विद्यालयों के शिक्षकों को शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) उत्तीर्ण करना अनिवार्य है।  
  • यद्यपि, उच्चतम न्यायालय ने इससे आगे देखा और प्रमति निर्णय के व्यापक प्रभाव पर प्रश्न उठाया, जिसने सभी अल्पसंख्यक विद्यालयों - सरकारी सहायता प्राप्त और निजी दोनों - को शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम का पालन करने से छूट दी थी। 
  • न्यायाधीशों ने कहा कि 2014 का निर्णय "विधिक रूप से संदिग्ध", "संदेहयुक्त" और अत्यधिक एकतरफ़ा प्रतीत होता है। उन्होंने बताया कि पहले के निर्णय में केवल एक नियम - धारा 12(1)(ग) पर ध्यान केंद्रित करके सभी अल्पसंख्यक विद्यालयों को शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम से बाहर रखा गया था, जिसके अनुसार वंचित पृष्ठभूमि के बालकों के लिये 25% सीटें आरक्षित होनी चाहिये 

क्या प्रमति एजुकेशनल एंड कल्चरल बनाम भारत संघ (2014) निर्णय की व्यापक छूट उचित थी? 

  • उच्चतम न्यायालय नेप्रमति छूट की व्यापक प्रकृति के बारे मेंमौलिक चिंता व्यक्त की । 
  • पीठ ने तर्क दिया कि अल्पसंख्यक विद्यालयों को शिक्षा का अधिकार अधिनियम के दायरे से पूरी तरह हटाकर, निर्णय ने अनजाने में इन संस्थानों में पढ़ने वाले बालकों के गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अधिकारों से समझौता किया है। 
  • न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21क प्रत्येक बालक को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसे संस्थागत स्वायत्तता के अधीन नहीं किया जाना चाहिये 
  • यह निर्णय एक महत्त्वपूर्ण सांविधानिक संघर्ष है: जबकि अनुच्छेद 30(1) अल्पसंख्यक समूहों के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकारों की रक्षा करता है, यह अनुच्छेद 21क के अधीन बालकों के मौलिक अधिकारों की कीमत पर नहीं हो सकता है। 
  • न्यायालय ने एक "सामंजस्यपूर्ण निर्वचन" का आह्वान किया, जहाँ दोनों अधिकार "परस्पर सह-अस्तित्व में रह सकते हैं और रहने चाहिये", बजाय इसके कि एक को दूसरे पर "अयोग्य तुरुप का पत्ता" माना जाए। 

संविधान में शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21क) क्या है? 

  • शिक्षा का अधिकार86वें संशोधन (2002)के माध्यम से एक मौलिक अधिकार बन गया, जिसमें 6-14 वर्ष की आयु के बालकों के लिये नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा को प्रत्याभूत करने के लियेअनुच्छेद 21जोड़ा गया । 
  • उच्चतम न्यायालय नेमोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य (1992)औरउन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) जैसे प्रमुख मामलों में इस अधिकार को मान्यता दी, जिससेशिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के लिये आधार तैयार हुआ, जिसने शिक्षा को विधिक रूप से लागू करने योग्य बना दिया और निजी विद्यालयों के लियेवंचित बालकों के लिये25% सीटेंआरक्षित करना आवश्यक कर दिया। 
  • प्रमति ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) मामलेमेंन्यायालय ने निर्णय दिया किअनुच्छेद 30के अधीनअल्पसंख्यक संस्थानों कोइस कोटे से छूट दी गईहै, जिससे अल्पसंख्यक अधिकारों और बालकों के शैक्षिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाने पर प्रश्न उठे। 
  • अनुच्छेद 21अनुच्छेद 29(2) (गैर-विभेदकारी), अनुच्छेद 30 (अल्पसंख्यक अधिकार) औरअनुच्छेद 51() (बालकों को शिक्षित करने का माता-पिता का कर्त्तव्य) के साथ काम करता है। 

उच्चतम न्यायालय की प्रमति की आलोचना: क्या अल्पसंख्यक विद्यालयों को शिक्षा के अधिकार (RTE) से छूट मिलनी चाहिये? 

  • सांविधानिक प्रावधानों की अनदेखी: वर्तमान पीठ ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम के अनुच्छेद 29(2) और धारा 23(2) पर विचार करने में असफल रहने के लिये प्रमति निर्णय की आलोचना की, जो एक अधिक संतुलित रूपरेखा प्रदान कर सकता था। 
  • वैकल्पिक न्यायिक दृष्टिकोण: न्यायालय ने प्रश्न उठाया कि एक ही अल्पसंख्यक समुदाय के वंचित बालकों को 25% आरक्षण देने के लिये धारा 12(1)(ग) को "कमज़ोर" करने के बजाय पूर्ण छूट क्यों चुनी गई। 
  • दुरुपयोग के सांख्यिकीय साक्ष्य: आंकड़े दर्शाते हैं कि अल्पसंख्यक विद्यालय के केवल 8.76% छात्र वंचित पृष्ठभूमि से हैं, जबकि 62.5% गैर-अल्पसंख्यक समुदायों से हैं, जो अल्पसंख्यक दर्जे के दुरुपयोग का संकेत देता है। 
  • कपटपूर्ण अल्पसंख्यक दावे: कई निजी विद्यालयों ने शिक्षा का अधिकार (RTE) अनुपालन से बचने के लिये प्रमति के बाद प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व के साथ अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त किया, जिससे एक अनुचित दो-स्तरीय शिक्षा प्रणाली का निर्माण हुआ। 
  • शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) कार्यान्वयन दिशानिर्देश: पाँच वर्ष से कम सेवा वाले शिक्षक, शिक्षक पात्रता परीक्षा (TET) के बिना भी पद पर बने रह सकते हैं, किंतु पदोन्नति के लिये इसकी आवश्यकता होगी; अधिक समय वाले शिक्षकों को दो वर्ष के भीतर अर्हता प्राप्त करनी होगी अन्यथा उन्हें सेवानिवृत्ति का सामना करना पड़ेगा। 
  • बड़ी पीठ का संदर्भ: मुख्य न्यायाधीश के समक्ष चार महत्त्वपूर्ण प्रश्न भेजे गए हैं: 
    • प्रमति की सत्यता, 
    • वैकल्पिक व्याख्याएँ, 
    • क्या संपूर्ण शिक्षा का अधिकार अधिनियम को असांविधानिक घोषित किया जाना चाहिये था? 
  • सांविधानिक संतुलन की आवश्यकता: निर्णय में सुझाव दिया गया है कि अल्पसंख्यकों के संस्थागत अधिकार और बालकों के शैक्षिक अधिकार एक साथ होने चाहिये, न कि एक दूसरे पर पूरी तरह से हावी हो जाना चाहिये 
  • प्रणालीगत सुधार आवश्यक: इस निर्णय से यह सुनिश्चित करने के लिये व्यापक पुनर्विचार की आवश्यकता का संकेत मिलता है कि अल्पसंख्यक संस्थान अपने समुदायों की सेवा करते हुए सभी बालकों के गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अधिकार को कायम रखें। 

निष्कर्ष 

यह निर्णय न्यायिक चिंतन का एक महत्त्वपूर्ण क्षण है कि अल्पसंख्यकों द्वारा संचालित विद्यालयों के अधिकारों और बालकों के शिक्षा के मौलिक अधिकार के बीच संतुलन कैसे स्थापित किया जाए। प्रमति के निर्णय पर प्रश्न उठाकर, उच्चतम न्यायालय ने अल्पसंख्यक संस्थानों द्वारा बालकों के शैक्षिक अधिकारों की रक्षा हेतु बनाए गए कुछ बुनियादी नियमों का पालन सुनिश्चित करने की दिशा में एक संभावित परिवर्तन का संकेत दिया है। अगला कदम मुख्य न्यायाधीश पर निर्भर करता है, जो यह तय करेंगे कि क्या एक बड़ी पीठ को पहले के निर्णय की पुनः जांच करनी चाहिये। इस निर्णय से अल्पसंख्यक विद्यालयों के नियमन के तरीके में बड़े परिवर्तन आ सकते हैं और क्या उनकी स्वायत्तता हर बालक के लिये गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के सांविधानिक वचन पर हावी हो सकते है।