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सांविधानिक विधि

कॉलेजियम की अपारदर्शिता संकट

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 04-Sep-2025

परिचय 

न्यायमूर्ति विपुल एम. पंचोली की उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम की सिफारिश पर न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की असहमति न्यायिक नियुक्तियों पर भारत के सांविधानिक विधिशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ प्रस्तुत करती है। यह मामला संविधान के अनुच्छेद 124(2), न्यायाधीशों द्वारा गठित कॉलेजियम प्रणाली और सांविधानिक शासन में पारदर्शिता के मूल सिद्धांत के बीच विधिक तनाव को उजागर करता है।  

वर्तमान नियुक्ति प्रणाली कैसे विकसित हुई? 

सांविधानिक उपबंध: 

  • संविधान के अनुच्छेद 124(2) में उपबंध है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा "उच्चतम न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों के परामर्श के बाद की जाएगी जिन्हें राष्ट्रपति आवश्यक समझें।" अनुच्छेद 217 में उच्च न्यायालयों की नियुक्तियों के लिये समान उपबंध हैं। 

न्यायाधीशों के मामले त्रयी (The Judges Cases Trilogy): 

  • वर्तमान कॉलेजियम प्रणाली तीन ऐतिहासिक मामलों में न्यायिक निर्वचन के माध्यम से उभरी है: 
    • प्रथम न्यायाधीश मामला (1981): एस.पी. गुप्ता बनाम भारत संघ (1981 Supp SCC 87) में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 124(2) में "सिफारिश" का अर्थ "सहमति" नहीं है, और इस प्रकार न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका की प्रधानता मान्य की गई। 
    • द्वितीय न्यायाधीश मामला (1993): सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (1993) 4 SCC 441 ने प्रथम न्यायाधीश मामले को पलटते हुए यह व्याख्या दी कि "परामर्श" का अर्थ " सहमति" है। इसी निर्णय द्वारा कोलेजियम प्रणाली की नींव रखी गई, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) तथा दो वरिष्ठतम न्यायाधीश सम्मिलित किये गए। 
    • तृतीय न्यायाधीश मामला (1998): इन री प्रेसिडेंशियल रेफरेंस (1998) 7 SCC 739 में कोलेजियम का विस्तार कर पाँच न्यायाधीशों तक कर दिया गया तथा परामर्श प्रक्रिया का विस्तृत स्वरूप निर्धारित किया गया। इस निर्णय ने यह भी प्रतिपादित किया कि न्यायाधीशों की नियुक्ति योग्यता, सत्यनिष्ठा एवं अन्य प्रासंगिक तत्त्वों के आधार पर होनी चाहिये 

वर्तमान कार्यप्रणाली में कौन सी विधिक कमियाँ हैं? 

प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन: 

  • नागरत्ना असहमति प्रक्रियागत अनियमितताओं को उजागर करती है जो प्राकृतिक न्याय के स्थापित सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं: 
    • ऑडी अल्टरम पार्टम (Audi Alteram Partem): यह सिद्धांत कि दोनों पक्षकारों को सुना जाना चाहिये, तब समझौतापूर्ण प्रतीत होता है जब असहमतिपूर्ण विचारों को न तो अभिलिखित किया जाता है और न ही प्रकट किया जाता है। 
    • तर्कसंगत निर्णय: मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978) मामले में, न्यायालय ने स्थापित किया कि प्रक्रियात्मक निष्पक्षता के लिये तर्कसंगत निर्णयों की आवश्यकता होती है। कॉलेजियम के प्रारंभिक प्रस्ताव इस कसौटी पर खरे नहीं उतरते। 

अनुच्छेद 14 और सूचना का अधिकार: 

  • सांविधानिक सूचना का अधिकार: उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राज नारायण (1975) 4 SCC 428 मामले में, न्यायालय ने सरकारी कामकाज जानने के जनता के अधिकार को मान्यता दी। सचिव, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय बनाम बंगाल क्रिकेट संघ (1995) 2 SCC161 ने इसे जनहित को प्रभावित करने वाली न्यायिक कार्यवाहियों तक भी विस्तारित किया। 
  • सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005: धारा 8(1)(ञ) ऐसी सूचना को छूट प्रदान करती है जो न्याय की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करती है, परंतु यह सभी नियुक्ति संबंधी विचार-विमर्शों के लिये पूर्ण अपवर्जित नहीं हो सकता, विशेषकर जब संस्थागत अखंडता की बात हो। 

क्या न्यायिक प्रक्रिया अधिक पारदर्शिता का समर्थन करती है? 

  • नमित शर्मा बनाम भारत संघ (2013):न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि पारदर्शिता, अनुच्छेद 14 का एक अभिन्न अंग है, और प्रकटीकरण आवश्यक है जब तक कि उसे विशेष रूप से अपवाद स्वरूप न रोका गया हो।  
  • केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी बनाम सुभाष चंद्र अग्रवाल (2020):न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि लोक संस्थाओं में अपारदर्शिता लोकतांत्रिक उत्तरदायित्त्व को कमजोर करती है। 
  • न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ (2017):निजता के अधिकार को मान्यता देते हुए भी न्यायालय ने व्यक्तिगत निजता और संस्थागत पारदर्शिता के दायित्त्वों के मध्य स्पष्ट अंतर स्थापित किया। 

तुलनात्मक सांविधानिक विश्लेषण: 

  • ब्रिटिश पूर्व निर्णय: सांविधानिक सुधार अधिनियम, 2005 ने न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना की, जिसमें सांविधिक पारदर्शिता की अनिवार्यता है। इससे यह प्रदर्शित होता है कि खुलापन (openness) न्यायिक स्वतंत्रता को कमजोर नहीं करता, अपितु उसे सुदृढ़ करता है। 
  • दक्षिण अफ्रीकी मॉडल: दक्षिण अफ्रीका के संविधान की धारा 174 के अंतर्गत न्यायिक सेवा आयोग द्वारा लोक साक्षात्कार की आवश्यकता है तथा नियुक्ति अथवा अस्वीकृति के लिये कारण प्रस्तुत करना अनिवार्य है। 

नागरत्ना असहमति से विधिक कमियों के बारे में क्या पता चलता है? 

प्रक्रियात्मक अनियमितताएँ: 

  • असहमति में कई विधिक चिंताएँ उजागर हुई हैं: 
    • वरिष्ठता सिद्धांत: न्यायमूर्ति पंचोली की पदोन्नति, यद्यपि उनकी अखिल भारतीय वरिष्ठता सूची में रैंकिंग 57वीं थी, तीसरे न्यायाधीश मामले में प्रतिपादित इस सिद्धांत के विपरीत प्रतीत होती है कि नियुक्तियाँ योग्यता के साथ-साथ वरिष्ठता को ध्यान में रखकर की जानी चाहिये 
    • क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व: सात उच्च न्यायालयों में प्रतिनिधित्व की कमी होने के बावजूद गुजरात उच्च न्यायालय के तीसरे न्यायाधीश की नियुक्ति, सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2015) में स्थापित विविधता अधिदेश का उल्लंघन हो सकता है। 
    • परामर्श में कमी: न्यायमूर्ति पारदीवाला, जो गुजरात उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश रहे हैं, से परामर्श न करना कोलेजियम की स्वीकृत दिशानिर्देशों का उल्लंघन है, जिनमें ऐसे उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों से परामर्श आवश्यक माना गया है जिनके पास प्रासंगिक अनुभव अथवा ज्ञान हो। 

दाँव पर लगे सांविधानिक सिद्धांत: 

  • शक्तियों का पृथक्करण: केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) 4 SCC 225 मामले में, न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि न्यायिक स्वतंत्रता संविधान की मूल संरचना का अभिन्न अंग है। तथापि, इस स्वतंत्रता का संतुलन उत्तरदायित्त्व के साथ होना आवश्यक है।  
  • विधि का शासन: सेक्रेटरी ऑफ स्टेट बनाम मास्क एंड कंपनी में यह प्रतिपादित हुआ कि विधि के शासन के लिये यह आवश्यक है कि सत्ता का प्रयोग ज्ञात सिद्धांतों के अनुसार किया जाए। कोलेजियम की अस्पष्टता इस मौलिक सिद्धांत का उल्लंघन करती है।  

कौन से विधिक उपचार सांविधानिक संतुलन की पुनर्स्थापना कर सकते हैं? 

सांविधानिक दायित्त्व: 

  • संविधान की प्रस्तावना "न्याय" और "समता" का वचन करती है। ये तर्कहीन गुप्त कार्यवाहियों से प्राप्त नहीं किये जा सकते। संविधान का "हृदय और आत्मा" अनुच्छेद 32, नागरिकों को सांविधानिक प्रक्रियाओं में पारदर्शिता की मांग करने का अधिकार देता है। 

सांविधिक ढाँचे की आवश्यकता: 

  • असफल राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 (सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2015) 16 SCC 1 में निरस्त) ने सांविधिक विनियमन का प्रयास किया। यद्यपि न्यायालय ने कार्यपालिका के हस्तक्षेप की चिंताओं की सही पहचान की, किंतु वह वैकल्पिक पारदर्शिता तंत्र प्रस्तावित करने में विफल रहा। 

प्रस्तावित विधिक मानक: 

  • लिखित कारण: सभी कॉलेजियम निर्णयों में विस्तृत, प्रकाशित कारण सम्मिलित होने चाहिये, केवल वैध निजता संबंधी चिंताओं के लिये विशिष्ट संशोधनों के अधीन।  
  • असहमति का अभिलेखन: अल्पमत मतों का अभिलेख और प्रकाशन किया जाना चाहिये, जैसा कि संविधान पीठों में न्यायालय स्वयं अनुसरण करता है।   
  • मानदंड प्रकटीकरण: नियुक्ति मानदंड सार्वजनिक, विशिष्ट और समान रूप से लागू होने चाहिये 
  • अपील तंत्र : प्रक्रिया संबंधी उल्लंघनों के लिये एक सीमित पुनरीक्षण प्रक्रिया उपलब्ध हो, जैसा कि प्रशासनिक विधि में काउंसिल ऑफ सिविल सर्विस यूनियन्स बनाम मिनिस्टर फॉर सिविल सर्विस [1985] में प्रतिपादित सिद्धांत के अनुरूप है।   

निष्कर्ष 

न्यायमूर्ति नागरत्ना की असहमति इस बात पर बल देती है कि न्यायिक स्वतंत्रता सांविधानिक जवाबदेही के विरुद्ध ढाल नहीं बन सकती। सच्ची वैधता पारदर्शिता पर टिकी है, और कॉलेजियम को जांच से अलग रखने से जनता का विश्वास कम होने का ख़तरा है। एक लोकतांत्रिक गणराज्य ऐसी न्यायपालिका की मांग करता है जो स्वतंत्र और जवाबदेह दोनों हो, और यह सुनिश्चित करे कि सत्ता अस्पष्टता के बजाय सांविधानिक सिद्धांतों से प्रवाहित हो।