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सिविल कानून

निर्वचन में सहायता: बाह्य सहायता

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 03-Sep-2025

परिचय 

जब न्यायाधीश एवं अधिवक्ता किसी विधि का अध्ययन करते हैं, तो कई बार उसके शब्दों से विधायिका की वास्तविक आशय स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं होता। अनेक बार विधियाँ जटिल होती हैं अथवा वास्तविक जीवन में उत्पन्न प्रत्येक परिस्थिति को पूर्णत: आच्छादित नहीं कर पातीं। ऐसे में बाह्य सहायताएँ सहायक उपकरण के रूप में कार्य करते हैं, जो स्वयं अधिनियम के पाठ से बाहर होते हुए भी न्यायालय को यह समझने में सहायता प्रदान करते हैं कि उस विधि को बनाते समय संसद की वास्तविक आशय क्या था। जब विधि की शब्दशः व्याख्या से भ्रम उत्पन्न होता है या स्पष्ट समाधान नहीं मिलता, तब ये साधन विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं 

बाह्य सहायता क्या है? 

  • बाह्य सहायताएँ सूचना के ऐसे स्रोत हैं जो किसी संविधि के लिखित पाठ के बाहर विद्यमान होते हैं, किंतु यह समझने में सहायता करते हैं कि विधि का क्या अर्थ है और इसका क्या उद्देश्य है। आंतरिक सहायताओं (जैसे विधि के अंदर लिखी परिचय, शीर्षक और परिभाषाएँ) के विपरीत, बाह्य सहायताएँ उन सामग्रियों से आती हैं जो विधि बनने से पहले, उसके दौरान या उसके बाद बनाई गई थीं।
  • न्यायालय इन बाह्य सहायताओं का उपयोग तब करते हैं जब विधि की भाषा स्पष्ट नहीं होती, जब विधि को विभिन्न तरीकों से समझा जा सकता है, जब सटीक शब्दों का पालन करने से अजीब या अनुचित परिणाम सामने आते हैं, या जब विधि के अंदर विद्यमान सुराग विधिक समस्याओं को हल करने के लिये पर्याप्त नहीं होते। 

बाह्य सहायता के प्रकार 

  • संसदीय इतिहास और विधायी सामग्री 
    • मूल विधेयक और संशोधन:किसी विधि का प्रारम्भिक मसौदा तथा संसद में विचार-विमर्श के दौरान किए गए संशोधन यह प्रदर्शित करते हैं कि समय के साथ विधायकों की विचारधारा किस प्रकार परिवर्तित हुई।  
    • उद्देश्यों और कारणों का विवरण:ये दस्तावेज़ स्पष्ट करते हैं कि किसी विधि की आवश्यकता क्यों थी, इसका उद्देश्य किन समस्याओं का समाधान करना था, तथा इससे कौन से लक्ष्य प्राप्त होने थे। 
    • संसदीय बहस और भाषण : विधिनिर्माण की प्रक्रिया के दौरान सांसदों द्वारा किए गए वाद-विवाद एवं भाषण यह समझने में सहायक होते हैं कि उक्त विधि किन समस्याओं के समाधान हेतु बनाई गई थी। 
    • समिति की रिपोर्ट:विधि बनाने से पहले विषय का अध्ययन करने वाली संसदीय समितियों की रिपोर्टों में अक्सर विस्तृत विश्लेषण होता है, जिसने अंतिम विधि को प्रभावित किया। 
  • ऐतिहासिक तथ्य और परिवेशीय परिस्थितियाँ 
    • जिस समय कोई विधि अधिनियमित की गई थी, उस समय की परिस्थितियों को समझना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। इसमें उस काल की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का अवलोकन सम्मिलित है, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि विशेष नियमों को क्यों अधिनियमित किया गया 
    • रिष्टि का नियम इस उद्देश्य से चार मुख्य प्रश्न प्रस्तुत करता है: पूर्ववर्ती विधि क्या थी? पूर्व विधि किस दोष या समस्या का समाधान करने में असफल रही? नई विधि ने कौन–सा समाधान प्रदान किया? यह विशेष समाधान क्यों चुना गया? 
  • समकालीन वैज्ञानिक और तकनीकी विकास 
    • विधियों की व्याख्या करते समय समकालीन वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय प्रगति को ध्यान में रखना आवश्यक है, भले ही ये प्रगति उस समय अस्तित्व में न रही हो जब विधि का निर्माण हुआ। उदाहरणार्थ, यदि कोई विधि कम्प्यूटर के आविष्कार से पूर्व अधिनियमित हुई थी, तो उसकी मूलभूत भावना को डिजिटल प्रौद्योगिकी पर भी समान रूप से लागू किया जा सकता है।  
  • अन्य समरूप विधियों का संदर्भ (Pari Materia)  
    • किसी एक विधि का निर्वचन करते समय न्यायालय उन अन्य विधियों का भी संदर्भ लेते हैं जो समान विषय-वस्तु से संबंधित हों। ऐसे सभी विधानों को एक संगठित विधिक प्रणाली का हिस्सा मानकर संयुक्त रूप से पढ़ा जाना चाहिये। समान विषयों से संबंधित विभिन्न अधिनियमों में प्रयुक्त शब्दों का सामान्यतः एक ही अर्थ होना चाहिये 
  • विदेशी विधि और न्यायिक निर्णय 
    • कभी-कभी न्यायालय उन विदेशी देशों की विधियों एवं न्यायिक निर्णयों का सहारा लेते हैं जिनकी विधिक प्रणाली भारत से मिलती-जुलती है। यह विशेष रूप से तब सहायक सिद्ध होता है जब भारतीय न्यायालयों ने किसी विशिष्ट प्रश्न पर अभी तक विचार नहीं किया हो, अथवा जब सांविधानिक अधिकारों से संबंधित जटिल प्रश्न सामने आए हों 
  • शब्दकोश और विधिक ग्रंथ 
    • जब किसी अधिनियम में प्रयुक्त शब्दों की परिभाषा उपलब्ध नहीं होती, तब न्यायालय सामान्य अर्थ जानने के लिये मानक शब्दकोशों का तथा तकनीकी अर्थ समझने के लिये विधिक शब्दकोशों का सहारा लेते हैं। अकादमिक पुस्तकें, टिप्पणियाँ और विद्वत्तापूर्ण लेख विधिक सिद्धांतों का विशेषज्ञ विश्लेषण प्रदान करते हैं। 
  • अंतर्राष्ट्रीय विधि और संधियाँ 
    • जब भारत किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि का हस्ताक्षरकर्ता होता है, तो उसकी घरेलू विधियों का निर्वचन करते समय उन अंतर्राष्ट्रीय दायित्त्वों को ध्यान में रखा जाता है। वैश्विक विधिक सिद्धांत विशेषकर मानवाधिकार एवं पर्यावरणीय विधि जैसे क्षेत्रों में व्यख्या को प्रभावित करते हैं 

न्यायालय बाह्य सहायता का उपयोग कैसे करते हैं? 

  • भारतीय विधिक प्रणाली का दृष्टिकोण समय के साथ परिवर्तित हुआ है। प्रारंभ में न्यायालय अंग्रेजी परंपरा का अनुसरण करते हुए बाह्य सहायता का प्रयोग नहीं करते थे और यह मानते थे कि अधिनियम का अर्थ केवल उसके पाठ से ही ग्रहण किया जाना चाहिये 
  • धीरे-धीरे, न्यायालयों ने यह स्वीकार किया कि बाह्य सहायताएँ यह समझने में सहायक होती हैं कि विधि बनाने वालों का क्या आशय था, खासकर जब विधि की भाषा स्पष्ट न हो। आज, बाहरी सहायताएँ व्यापक रूप से स्वीकार की जाती हैं और उनका उपयोग किया जाता है, यद्यपि न्यायालय इस बात का ध्यान रखती हैं कि वे स्पष्ट सांविधिक भाषा पर हावी न हों।   
  • न्यायालय महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों का पालन करते हैं: बाह्य सहायता का प्रयोग केवल तभी किया जाता है जब आंतरिक संकेत पर्याप्त न हों, वे विधि के पाठ को प्रतिस्थापित करने के बजाय पूरक के रूप में कार्य करते हैं, उनका प्रयोग सावधानी से किया जाता है क्योंकि वे बाध्यकारी नहीं होते हैं, तथा उनका महत्त्व प्रत्येक मामले की विशिष्ट परिस्थितियों पर निर्भर करता है। 

परिसीमाएँ 

  • बाह्य सहायता की अपनी कुछ सीमाएँ भी हैं। संसदीय भाषण कई बार वास्तविक विधायी आशय के बजाय राजनीतिक उद्देश्यों से प्रभावित हो सकते हैं। इनके चयनात्मक उपयोग का जोखिम रहता है जिससे मनोनुकूल निर्वचन का समर्थन किया जा सके। 
  • जितना पुराना बाह्य स्रोत होगा, उतना ही उसकी विश्वसनीयता संदिग्ध हो सकती है। व्यावहारिक कठिनाइयों में सामग्री तक पहुँचने की समस्या, अत्यधिक जानकारी का विश्लेषण करना तथा परस्पर विरोधी स्रोतों से विभिन्न निर्वचन प्राप्त होना सम्मिलित हैं 

निष्कर्ष 

आधुनिक न्यायिक व्यवहार में बाह्य सहायताएँ आवश्यक उपकरण बन गई हैं, जो न्यायालयों को विधियों के अर्थ को समझने की जटिलताओं से निपटने में सहायता करती हैं। यद्यपि इनका उपयोग सावधानी से किया जाना चाहिये और ये स्पष्ट विधिक पाठ को दरकिनार नहीं कर सकतीं, फिर भी ये लिखित विधि और वास्तविक दुनिया में लागू होने वाली विधियों के बीच महत्त्वपूर्ण सेतु का काम करती हैं। बाह्य सहायताओं को अस्वीकार करने से लेकर उन्हें सावधानीपूर्वक स्वीकार करने तक का परिवर्तन दर्शाता है कि कैसे न्याय व्यवस्था विधियों का निर्वचन करने में अधिक परिष्कृत हो गई है। जैसे-जैसे समाज बदलता रहेगा, न्याय की सेवा में विधियों को सही ढंग से समझा और लागू किया जाना सुनिश्चित करने के लिये बाह्य सहायताएँ महत्त्वपूर्ण बनी रहेंगी।