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अंतर्राष्ट्रीय कानून

भारत पाकिस्तान संघर्ष और अंतर्राष्ट्रीय विधि

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 15-May-2025

परिचय 

भारत-पाकिस्तान संबंध 1947 के विभाजन के बाद से लगातार तनावपूर्ण रहे हैं, जिसमें कश्मीर विवाद का प्रमुख केंद्र रहा है। हालिया तनाव, विशेष रूप से 22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए आतंकवादी हमले और इसके प्रत्युत्तर में भारत द्वारा 7 मई 2025 को संचालित "ऑपरेशन सिंदूर" ने इस संघर्ष को पुनः अंतर्राष्ट्रीय विधिक समीक्षा के दायरे में ला खड़ा किया है। 

जुस इन बेलो (jus in bello): बल प्रयोग हेतु विधिक आधार 

संयुक्त राष्ट्र चार्टर की रूपरेखा  

  • आधुनिक अंतर्राष्ट्रीय विधि में बल प्रयोग से संबंधित मुख्य आधार संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(4) में निहित है, जो इस प्रकार है: "सभी सदस्य अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में किसी दूसरे देश की क्षेत्रीय अखण्डता या राजनीतिक स्वतंत्रता के विरुद्ध धमकी नहीं देंगे अथवा शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे या कोई ऐसा कार्य नहीं करेंगे जो संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों से असंगत हो।" 
  • यह निषेध कोअंतर्राष्ट्रीय विधि का एक अनिवार्य सामान्य विधिक मानक (jus cogens) माना जाता है 
  • इस निषेध के दो ही स्पष्ट अपवाद संयुक्त राष्ट्र चार्टर में प्रदान किये गए हैं: 
    • अनुच्छेद 51 के अंतर्गत आत्मरक्षा : 
      • " वर्तमान चार्टर में ऐसा कुछ भी नहीं है जो संयुक्त राष्ट्र के किसी सदस्य के विरुद्ध सशस्त्र हमला के स्थिति में व्यक्तिगत या सामूहिक आत्मरक्षा के अंतर्निहित अधिकार को प्रभावित करे, जब तक कि सुरक्षा परिषद ने अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिये आवश्यक उपाय नहीं किये हो।" 
    • अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखने या बहाल करने के लिये कार्रवाई हेतु अध्याय 7 के अधीनसंयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का प्राधिकरण । 
  • भारत ने "ऑपरेशन सिंदूर" को स्पष्ट रूप से अनुच्छेद 51 की विधिक रूपरेखा में परिभाषित किया है, और 22 अप्रैल 2025 के पहलगाम आतंकी हमले के पश्चात आत्मरक्षा के अपने अंतर्निहित अधिकार का हवाला दिया है 
  • यह स्थिति, दायित्त्व, आवश्यकता और आनुपातिकता के बारे में महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न उठाती है। 

गैर-राज्यीय तत्त्वों द्वारा सशस्त्र हमले 

  • एक महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न यह है कि क्या आतंकवादी हमले एक संप्रभु राज्य के विरुद्ध आत्मरक्षा के अधिकार को चुनौती देने वाला "सशस्त्र हमला" माना जा सकता है। 
  • अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) नेनिकारागुआ बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका मामले (1986)में इस विवाद्यक को संबोधित किया, तथा स्थापित किया कि गैर-राज्य तत्त्वों द्वारा किया गया सशस्त्र हमला "पर्याप्त गंभीरता" का होना चाहिये तथा किसी राज्य के विरुद्ध आत्मरक्षा हेतु उत्तरदायी होना चाहिये 
    • अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) के निर्णय में कहा गया है कि किसी राज्य द्वारा गैर-राज्यीय तत्त्वों को "वित्तीय सहायता, प्रशिक्षण, हथियारों की आपूर्ति, खुफिया जानकारी और सैन्य सहायता" के माध्यम से दिया गया समर्थन "गैर-हस्तक्षेप के सिद्धांत का स्पष्ट उल्लंघन है।" 
  • इस सिद्धांत को संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव 3314 में पुष्ट किया गया, जिसमें आक्रामकता को परिभाषित करते हुए कहा गया है: "किसी राज्य द्वारा या उसकी ओर से सशस्त्र समूहों, समूहों, अनियमित सैनिकों या भाड़े के सैनिकों को भेजना, जो किसी अन्य राज्य के विरुद्ध सशस्त्र बल का ऐसा गंभीर कार्य करते हैं जो आक्रामकता के बराबर हो।" 
  • भारत की विधिक स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि: 
    • पहलगाम हमलाकाफी गंभीरथा (26 नागरिक हताहत)। 
    • इस हमले के लिये पाकिस्तान को उत्तरदायी ठहराया जा रहा है, क्योंकि पाकिस्तान पर आतंकी संगठनों को कथित रूप से समर्थन देने का आरोप है। 

पूर्वानुमानित आत्मरक्षा और कैरोलीन परीक्षण (Anticipatory Self-Defense and Caroline Test)  

  • यद्यपि संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 51 में आत्मरक्षा का अधिकार केवल तब मान्य माना गया है जब "सशस्त्र आक्रमण घटित हो", तथापि परंपरागत अंतर्राष्ट्रीय विधि (Customary International Law) एक सीमित रूप में पूर्वव्यापी आत्मरक्षा के अधिकार को मान्यता देती  है। 
  • यह सिद्धांत 1837 के Caroline घटना से उत्पन्न हुआ, जिसने तथाकथित "Caroline Test" को स्थापित किया: खतरा " तात्कालिक, अपरिहार्य होना चाहिये, जिससे साधनों का कोई विकल्प न बचे, और विचार-विमर्श के लिये कोई क्षण नहीं होना चाहिये।"  
  • भारत द्वारा पहलगाम हमले के पश्चात की गई मिसाइल कार्रवाई, पूर्वानुमानित आत्मरक्षा का नहीं, अपितु प्रतिक्रियात्मक आत्मरक्षा है, जो वास्तविक सशस्त्र आक्रमण के उत्तर में की गई 
  • हालांकि, भारत की नई स्थिति कि "भविष्य में किसी भी आतंकवादी कार्रवाई को युद्ध की कार्रवाई के रूप में माना जाएगा" आत्मरक्षा की अधिक व्यापक व्याख्या की ओर संभावित परिवर्तन का संकेत देती है जिसमें पूर्वानुमानित तत्त्व भी सम्मिलित हो सकते हैं। 

द्विपक्षीय संधियाँ और करार 

नियंत्रण रेखा और शिमला करार 

  • The Line of Control (LoC) जो 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के उपरांत स्थापित हुई और जिसे औपचारिक रूप से 1972 के शिमला करार में मान्यता दी गई, एक वास्तविक सैन्य सीमा (de facto military border) के रूप में कार्य करती है। 
  • शिमला करार में यह उपबंध है कि कोई भी पक्ष एकतरफा रूप से रेखा में परिवर्तन नहीं करेगा तथा सैन्य बलों द्वारा नियंत्रण रेखा को पार करना इस द्विपक्षीय करार का उल्लंघन माना जाएगा। 
  • ऑपरेशन सिंदूर, जिसके अंतर्गत भारत ने नियंत्रण रेखा (LoC) के पार मिसाइल हमले किये, ने शिमला करार के अनुपालन को लेकर महत्त्वपूर्ण विधिक प्रश्न उत्पन्न किये हैं। यद्यपि, भारत का विधिक तर्क यह है कि इस कार्रवाई का उद्देश्य पाकिस्तानी सैन्य ठिकानों को लक्षित करना नहीं, अपितु आतंकी अवसंरचना को निशाना बनाना था, जिससे यह एक स्वतंत्र और भिन्न विधिक परिस्थिति निर्मित करता है। भारत का यह दृष्टिकोण इंगित करता है कि जब कोई राज्य गैर-राज्य तत्त्वों को संरक्षण या समर्थन देता है, और वे तत्त्व भारत की क्षेत्रीय अखण्डता को चुनौती देते हैं, तब पारंपरिक द्विपक्षीय संधियों की व्याख्या अंतर्राष्ट्रीय विधि के आत्मरक्षा सिद्धांतों के आलोक में की जानी चाहिये 

अंतर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्त्व तंत्र 

अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) 

  • अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय राज्यों के बीच विवादों का निपटारा करता है। निकारागुआ मामले में, अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अंतर्राष्ट्रीय विधि के उल्लंघन के कारण हुए नुकसान के लिये क्षतिपूर्ति का आदेश दिया। 
  • यह पूर्वनिर्णय भारत और पाकिस्तान के बीच विधिक समाधान के लिये संभावित रास्ते सुझाती है, यद्यपि राजनीतिक वास्तविकताएं ऐसे मामलों को कठिन बना देती हैं। 
  • न तो भारत और न ही पाकिस्तान ने बिना किसी शर्त के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की अनिवार्य अधिकारिता को स्वीकार किया है, जिससे न्यायालय की भूमिका सीमित हो जाती है, जब तक कि दोनों पक्ष किसी विशिष्ट मामले में इसकी अधिकारिता पर सम्मति नहीं देते।  

अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (International Criminal Court (ICC)) 

  • अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय, व्यक्तियों पर युद्ध अपराध, मानवता के विरुद्ध अपराध, नरसंहार और आक्रमण जैसे गंभीर अपराधों के लिए अभियोजन करता है। 
  • भारत और पाकिस्तान दोनों ही रोम संविधि के पक्षकार नहीं हैं, जिससे वे अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय की सामान्य अधिकारिता से बाहर हैं, जब तक कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद किसी स्थिति को अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय के समक्ष संदर्भित करे- जो भू-राजनीतिक समीकरणों, विशेषतः पाकिस्तान के प्रति चीन के समर्थन के कारण, राजनीतिक रूप से असंभव परिदृश्य है। 

प्रत्यर्पण संबंधी चुनौतियाँ 

  • भारत और पाकिस्तान के बीच प्रत्यर्पण संधि का अभाव है, जिससे आतंकवाद से संबंधित व्यक्तियों को उत्तरदायी ठहराने के प्रयासों में जटिलताएँ उत्पन्न होती हैं। 
  • इस अनुपस्थिति के कारण 2023 में हाफिज सईद के प्रत्यर्पण का भारत का अनुरोध असफल हो गया। 
  • संधि के बिना, सहयोग घरेलू विधियों और अंतर्राष्ट्रीय मानदंडों पर निर्भर करता है, जिससे जवाबदेही में महत्त्वपूर्ण अंतराल उत्पन्न होता है। 

समकालीन समानताएँ: हाल के संघर्षों से प्राप्त विधिक शिक्षाएँ 

यूक्रेन संघर्ष (Ukraine Conflict)  

  • रूस द्वारा वर्ष 2022 में यूक्रेन पर किया गया सैन्य आक्रमण, संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 2(4) का स्पष्ट उल्लंघन मानते हुए, वैश्विक स्तर पर व्यापक रूप से निंदा का विषय बना 
  • रूस ने इस कार्रवाई को आत्मरक्षा और रूसी-भाषी जनसंख्या की रक्षा के नाम पर उचित ठहराने का प्रयास किया, किंतु संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) तथा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) ने इन दावों को अस्वीकार करते हुए बल प्रयोग के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय विधि की संकीर्ण और प्रतिबंधात्मक व्याख्या को पुष्ट किया।  

इजराइल-फिलिस्तीन संघर्ष (Israel-Palestine Conflict)  

  • इज़राइल ने अनुच्छेद 51 का हवाला देकर गाज़ा से संचालित गैर-राज्य सशस्त्र समूह हमास के विरुद्ध की गई सैन्य कार्रवाइयों को आत्मरक्षा के रूप में उचित ठहराने का प्रयास किया। है। 
  • यह समानता गैर-राज्यीय तत्त्वों के विरुद्ध आत्मरक्षा तथा विषम संघर्षों में अंतर्राष्ट्रीय मानवीय विधि के अनुप्रयोग से संबंधित जटिल विधिक प्रश्नों को प्रदर्शित करती है। 

निष्कर्ष 

भारत-पाकिस्तान संघर्ष बल प्रयोग, राज्य का उत्तरदायित्त्व, मानवीय विधि और द्विपक्षीय करारों से संबंधित अंतरराष्ट्रीय विधिक सिद्धांतों का एक जटिल प्रतिच्छेदन प्रस्तुत करता है। आतंकवाद को "युद्ध की कार्रवाई" के रूप में भारत द्वारा पुनः वर्गीकृत करना उसके दृष्टिकोण में एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का संकेत देता है, जो संभवतः इस लंबे समय से चले आ रहे संघर्ष में अंतरराष्ट्रीय विधि के अनुप्रयोग को नया रूप दे सकता है।