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सिविल कानून

धुलाबाई बनाम मध्य प्रदेश राज्य, 1969 AIR 78

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 21-Jun-2024

परिचय:

यह मामला सिविल न्यायालयों की अधिकारिता सीमाओं तथा कर अधिकारियों की असमान कर लगाने की शक्ति के आस-पास घूमता है।

तथ्य:

  • इस मामले में, तंबाकू विक्रेता याचिकाकर्त्ता थे जो विभिन्न गतिविधियों के लिये तंबाकू की क्रय -विक्रय करते थे।
    • वर्ष 1950 में मध्य भारत बिक्री कर अधिनियम (MBSTA) लागू किया गया, जिसके अंतर्गत उक्त अधिनियम की धारा 3 के प्रावधानों के अनुसार विक्रेताओं एवं निर्माताओं पर कर लगाया गया।
  • MBSTA की धारा 5 के अनुसार, एकल बिंदु कर लागू किया गया था जिसमें न्यूनतम एवं अधिकतम मूल्य तय किया गया था जबकि वास्तविक दर सरकार द्वारा अधिसूचनाओं के माध्यम से तय की जानी थी।
    • सरकार द्वारा कई अधिसूचनाएँ जारी की गईं तथा कर एकत्र किये गए।
    • डीलरों द्वारा सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 80 के अंतर्गत तथा भारत के संविधान के अनुच्छेद 301 (COI) के अंतर्गत उनके अधिकार का उल्लंघन करने के लिये विभिन्न आवेदन एवं वाद दायर किये गए थे।
  • MBST अधिनियम को COI की धारा 301 के आधार पर चुनौती दी गई थी तथा इस आधार पर कि भाईलाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1960) के मामले का तर्क देते हुए समान उत्पादों पर समान कर नहीं लगाया जाता है।
    • ट्रायल कोर्ट ने आवेदक के पक्ष में निर्णय दिया, जिसे राज्य ने उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
    • यह तर्क दिया गया कि COI के अनुच्छेद 301 के अनुसार कोई कर नहीं लगाया जा सकता।
    • MBST अधिनियम की धारा 17 के अनुसार कोई वाद नहीं चलाया जा सकता, क्योंकि विधि के न्यायालय में किसी भी मूल्यांकन पर प्रश्न नहीं किया जा सकता।
    • उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि तर्कों के आधार पर विचारण अक्षम हैं।
  • उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।

शामिल मुद्दे:

  • क्या आयातकों एवं आपूर्तिकर्त्ताओं से अलग-अलग करों का संग्रह संविधान के अनुच्छेद 301 का उल्लंघन है या नहीं?
  • क्या MBST अधिनियम की धारा 17 के आधार पर वाद विचारणीय है या नहीं?
  • क्या करों की वापसी के लिये मामले के विचारण करने का अधिकार सिविल न्यायालय को है या संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय को है?
  • क्या वर्तमान मामले में परिसीमा अधिनियम बचाव का आधार हो सकता है या नहीं?

टिप्पणी:

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि COI का अनुच्छेद 301 मुक्त व्यापार की गारंटी देता है तथा आयातकों एवं निर्माताओं पर कर लगाने के कारण यह मुक्त व्यापार एवं वाणिज्य को प्रतिबंधित करता है, इसलिये न्यायालय ने सरकार की कर अधिसूचनाओं को रद्द कर दिया।
  • MBST अधिनियम में समीक्षा, संशोधन, अपील, सुधार एवं उच्च न्यायालय को संदर्भ के संबंध में प्रावधान दिये गए हैं।
    • MBST की धारा 17 इसके विपरीत है तथा यह न्यायालय को कर अधिकारियों द्वारा लगाए गए करों एवं पक्षों का आकलन करने से रोकती है।
    • इसके कारण उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज कर दिया गया तथा अपील एवं वादों को अनुमति दे दी गई।
  • उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न मामलों एवं अधिनियमों का उल्लेख करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि सिविल न्यायालयों को तब तक मामलों के विचारण करने का अधिकार है, जब तक कि विधि द्वारा उन पर स्पष्ट रूप से रोक न लगा दी गई हो।
    • न्यायालय ने कुछ दिशा-निर्देश भी निर्धारित किये हैं कि सिविल न्यायालय कब निर्णय दे सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब कर लगाए जाने के तीन वर्ष के भीतर रिट दायर की जाती है, तो उस पर उच्च न्यायालय में विचारण हो सकता है, जबकि तीन वर्ष के बाद सिविल न्यायालय में राहत मांगी जा सकती है।

निष्कर्ष:

  • उच्चतम न्यायालय ने भारतीय आयकर अधिनियम के आधार पर प्राधिकारियों के पक्ष में निर्णय दिया, क्योंकि प्राधिकारी इस विधि के अंतर्गत आते हैं तथा यह माना गया कि एकत्र किये गए कर को वापस नहीं लिया जा सकता।