होम / दंड प्रक्रिया संहिता

आपराधिक कानून

सिद्धार्थ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2021)

    «    »
 03-Feb-2025

परिचय

  • यह एक ऐतिहासिक फैसला है, जिसमें कहा गया है कि पुलिस अधिकारी के लिये आरोप पत्र दाखिल करते समय प्रत्येक आरोपी को गिरफ्तार करना अनिवार्य नहीं है। 
  • यह निर्णय न्यायमूर्ति संजय किशन कौल एवं न्यायमूर्ति ऋषिकेश रॉय की दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने दिया।

तथ्य 

  • इस मामले में अपीलकर्त्ता का दावा है कि वह पत्थर का आपूर्तिकर्त्ता है जिसके लिये इन धारकों को अग्रिम रॉयल्टी का भुगतान किया गया था तथा वह निविदा प्रक्रिया में शामिल नहीं होने का दावा करता है। 
  • अपीलकर्त्ता न्यायालय में आने से पहले ही जाँच में शामिल हो चुका था तथा आरोप पत्र दाखिल करने के लिये तैयार था। 
  • अपीलकर्त्ता के विरुद्ध गिरफ्तारी ज्ञापन जारी किया गया था। 
  • इसलिये, अपीलकर्त्ता ने अग्रिम जमानत के लिये न्यायालय में अपील किया।

शामिल मुद्दे 

  • क्या अपीलकर्त्ता की अग्रिम जमानत याचिका स्वीकार की जानी चाहिये?

टिप्पणी  

  • इस मामले में विचाराधीन प्रावधान दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 170 है। 
  • न्यायालय ने निम्नलिखित मामलों में निर्धारित संविधि का अवलोकन किया:
    • दिल्ली उच्च न्यायालय बनाम राज्य (2018): न्यायालय ने इस मामले में पाया कि संज्ञेय एवं गैर-जमानती अपराध से जुड़े हर मामले में यह आवश्यक नहीं है कि आरोपपत्र/अंतिम रिपोर्ट दाखिल होने पर आरोपी को अभिरक्षा में लिया जाए। 
    • दीनदयाल किशनचंद बनाम गुजरात राज्य (1982): न्यायालय ने पाया कि आपराधिक न्यायालयों द्वारा आरोपी व्यक्तियों को प्रस्तुत किये बिना आरोपपत्र स्वीकार करने से मना करना विधि के किसी भी प्रावधान द्वारा उचित नहीं है।
  • न्यायालय ने अंततः निम्नलिखित निर्णय दिया:
    • आरोप पत्र दाखिल करने के समय प्रत्येक आरोपी को गिरफ्तार करने की पुलिस अधिकारी पर कोई बाध्यता नहीं है।
    • यह देखा गया कि यदि विवेचना अधिकारी को यह विश्वास नहीं है कि आरोपी फरार हो जाएगा या सम्मन की अवहेलना करेगा तो उसे अभिरक्षा में प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है।
    • यह अवलोकन किया गया कि CrPC की धारा 170 में प्रयुक्त शब्द “अभिरक्षा” न्यायिक या पुलिस अभिरक्षा की कल्पना नहीं करता है, बल्कि यह केवल आरोप पत्र दाखिल करते समय आरोपी को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने का संकेत देता है।
  • न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की कि गिरफ्तारी की शक्ति के अस्तित्व एवं गिरफ्तारी की शक्ति के प्रयोग के औचित्य के बीच अंतर है।

निष्कर्ष

  • यह ऐतिहासिक निर्णय है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित महत्त्वपूर्ण अधिकारों की बात करता है तथा यह निर्धारित करता है कि किसी व्यक्ति को बिना किसी औचित्य के मनमाने ढंग से गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिये।

[मूल निर्णय]