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आपराधिक कानून
मार्च 2023
« »04-Sep-2023
प्रेमचंद बनाम महाराष्ट्र राज्य
Premchand v. State of Maharashtra
निर्णय/आदेश की तिथि – 03.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना – जे. एस. रवींद्र भट्ट, जे. दीपांकर दत्ता |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- वर्तमान मामला बॉम्बे में न्यायिक उच्च न्यायालय, नागपुर की खंडपीठ के 06 अगस्त, 2019 के एक आदेश से विशेष अनुमति से अस्तित्व में आया है।
- यह मामला इस तथ्य से संबंधित है कि 2013 में नंदकिशोर कोर्डे नाम के एक व्यक्ति की हत्या कर दी गई थी और तीन अन्य व्यक्तियों नामदेव कोर्डे (सरकारी गवाह 2), विलास कार्डे (सरकारी गवाह 3), कुणाल बाभुलकर (सरकारी गवाह 4) को चाकू के हमले से चोटें आई थीं।
- इसके बाद, मृतक की मां ने रिपोर्ट दर्ज कराई, फिर धारा 302 और 307 भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई।
- पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का संभावित कारण पीड़िता की "गर्दन पर चाकू से वार" दर्ज किया गया।
- जाँच पूरी होने पर, अपीलकर्ता के खिलाफ संबंधित न्यायालय के समक्ष भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 और 307 के तहत आरोप पत्र दायर किया गया और आरोप तय किये गए।
- अपर सत्र न्यायाधीश ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ता ने मृतक की हत्या की और PW2, PW3 और PW4 की हत्या करने का भी प्रयास किया।
- पहले उल्लिखित फैसले को उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच के समक्ष चुनौती दी गई थी और ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा गया था।
- इसलिये वर्तमान याचिका सामने आई।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 313 की समझ पर यहाँ चर्चा की जानी चाहिये तथा न तो ट्रायल कोर्ट और न ही हाई कोर्ट ने आरोपी के लिखित बयान को देखा।
- न्यायालय ने धारा 313 के लिये उत्तर प्रदेश राज्य बनाम लखमी (1998), सनातन नस्कर बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2010), रीना हजारिका बनाम असम राज्य (2018), परमिंदर कौर बनाम पंजाब राज्य (2020), एम. अब्बास बनाम केरल राज्य (2008) में तय किये गए मामलों पर भरोसा जताया और निम्नलिखित बिंदुओं पर जोर दिया:
(a) दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 313, उप-धारा का खंड (b) आरोपी के लिये अपनी बेगुनाही साबित करने हेतु परीक्षण प्रक्रिया में एक मूल्यवान सुरक्षा उपाय है;
(b) धारा 313, जिसका उद्देश्य न्यायालय और अभियुक्त के बीच सीधा संवाद सुनिश्चित करना है, न्यायालय पर यह अनिवार्य कर्तव्य डालती है कि वह आमतौर पर मामले पर अभियुक्त से पूछताछ करे ताकि उसे मामले में सामने आने वाले उसके खिलाफ सबूत के बारे में किसी भी परिस्थिति को व्यक्तिगत रूप से समझाने में सक्षम बनाया जा सके।
(c) जब पूछताछ की जाती है, तो अभियुक्त अपनी संलिप्तता को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं कर सकता है और न्यायालय द्वारा उससे जो भी कहा जाता है, उसे स्पष्ट रूप से अस्वीकार करने या निराकृत करने का विकल्प चुन सकता है;
(d) अभियुक्त कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त बचाव उपायों को अपनाने के लिये अपने विरुद्ध उत्पन्न आपत्तिजनक परिस्थितियों को भी स्वीकार कर सकता है या अपना सकता है;
(e) कोई अभियुक्त अभियोजन पक्ष द्वारा प्रति-परीक्षा किये जाने के डर के बिना बयान दे सकता है या अभियोजन पक्ष को उससे प्रति-परीक्षा करने का कोई अधिकार नहीं है;
(f) किसी आरोपी द्वारा दिये गए स्पष्टीकरण पर अलग से विचार नहीं किया जा सकता है, बल्कि अभियोजन पक्ष द्वारा दिये गए सबूतों के साथ संयोजन के रूप में विचार किया जाना चाहिये और इसलिये, केवल धारा 313 के बयान के आधार पर किसी भी दोषसिद्धि को आधार नहीं बनाया जा सकता है। ;
(g) धारा 313 के तहत जाँच के दौरान आरोपी के बयान, चूँकि शपथ पर नहीं हैं, इसलिये साक्ष्य अधिनियम की धारा 3 के तहत साक्ष्य नहीं बनते हैं, फिर भी दिये गए उत्तर सच्चाई का पता लगाने और अभियोजन की सत्यता की जाँच करने के लिये प्रासंगिक हैं;
(h) दोषसिद्धि वाले हिस्से पर भरोसा करने और दोषमुक्ति वाले हिस्से को नजरअंदाज करने के लिये अभियुक्त के बयानों को विच्छेदित नहीं किया जा सकता है और स्वीकारोक्ति की दोषमुक्ति प्रकृति की प्रामाणिकता का परीक्षण करने के लिये अन्य बातों के साथ-साथ इसे पूरा पढ़ा जाना चाहिये; और
(i) यदि अभियुक्त बचाव करता है और घटनाओं या व्याख्या का कोई वैकल्पिक संस्करण पेश करता है, तो न्यायालय को उसके बयानों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण और विचार करना होगा;
(j) किसी दिये गए मामले में दोषी परिस्थितियों के बारे में अभियुक्त के स्पष्टीकरण पर विचार करने में कोई भी विफलता, मुकदमे को खराब कर सकती है और/या सजा को खतरे में डाल सकती है।
- फैसला- शीर्ष न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 313 को उचित महत्व देते हुए कहा कि लिखित बयान पर अभियोजन साक्ष्य के आलोक में विचार किया जाना चाहिये। न्यायालय ने आरोपी को केवल भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304 के तहत दोषी पाया और यह देखते हुए कि आरोपी पहले ही 9 साल की सजा काट चुका है और उसकी उम्र साठ के पार है, उसे रिहा करने का निर्देश दिया गया।
प्रासंगिक प्रावधान –
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973) की धारा 313 — अभियुक्त की परीक्षा करने की शक्ति —
(1) प्रत्येक जाँच या विचारण में, इस प्रयोजन से कि अभियुक्त अपने विरुद्ध साक्ष्य में प्रकट होने वाली किन्हीं परिस्थितियों का स्वयं स्पष्टीकरण कर सके, न्यायालय :–
(क) किसी प्रक्रम में, अभियुक्त को पहले से चेतावनी दिये बिना, उससे ऐसे प्रश्न कर सकता है जो न्यायालय आवश्यक समझे;
(ख) अभियोजन के साक्षियों की परीक्षा किये जाने के पश्चात् और अभियुक्त से अपनी प्रतिरक्षा करने की अपेक्षा किये जाने के पूर्व उस मामले के बारे में उससे साधारणतया प्रश्न करेगा :
परन्तु किसी समन मामले में, जहाँ न्यायालय ने अभियुक्त को वैयक्तिक हाजिरी से अभिमुक्ति दे दी है, वहाँ वह खण्ड (ख) के अधीन उसकी परीक्षा से भी अभिमुक्ति दे सकता है।
(2) जब अभियुक्त की उपधारा (1) के अधीन परीक्षा की जाती है तब उसे कोई शपथ नहीं दिलाई जाएगी।
(3) अभियुक्त ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने से इंकार करने से या उसके मिथ्या उत्तर देने से स्वयं को दण्ड का भागी नहीं बनाएगा।
(4) अभियुक्त द्वारा दिये गए उत्तरों पर उस जाँच या विचारण में विचार किया जा सकता है और किसी अन्य ऐसे अपराध की, जिसका उसके द्वारा किया जाना दर्शाने की उन उत्तरों की प्रवृत्ति हो, किसी अन्य जाँच या विचारण में ऐसे उत्तरों को उसके पक्ष में या उसके विरुद्ध साक्ष्य के तौर पर रखा जा सकता है।
(5) उन सुसंगत प्रश्नों को जिन्हें अभियुक्त से किया जाना है, तैयार करने में न्यायालय अभियोजक तथा प्रतिरक्षा पक्ष के अधिवक्ता की मदद ले सकता है तथा न्यायालय इस धारा के पर्याप्त अनुपालन के रूप में अभियुक्त द्वारा लिखित कथन के दाखिल करने की अनुमति दे सकता है।
मूल निर्णय
रवि ढींगरा बनाम राज्य हरियाणा
निर्णय/आदेश की तिथि – 01.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना- जे. संजय किशन कौल, जेबीवी नागरत्ना |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- वर्तमान अपील 5 आरोपियों द्वारा पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के उस फैसले के खिलाफ दायर की गई है जिसमें उन्हें भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 148, 149 और 364ए के तहत दोषी ठहराया गया था।
- स्कूल जाते समय एक 14 वर्षीय लड़के का अपहरण कर लिया गया था और थाना प्रभारी ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 364/34 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट मामला दर्ज किया था।
- अभियोजन पक्ष के एक गवाह के बयान के अनुसार, लड़के को सह-अभियुक्त रवि ढींगरा ने अपने स्कूटर पर पीछे की सीट पर बैठकर चलने के लिये डराया था और उसके इनकार करने पर उसे जबरन एक कार के अंदर डाल दिया गया था। जान बचाने के लिये चिल्लाने पर उसे धमकी दी गई कि चिल्लाने पर चाकू और पिस्तौल से मार दिया जाएगा।
- लड़के के पिता ने कहा कि उन्हें कई बार फोन किया गया, पुलिस को सूचित करने के बाद उन्होंने कुछ पैसे की व्यवस्था की और अपहरणकर्ताओं की मांगों पर काम किया।
- पुल के पास एक बैग में नकदी की डिलीवरी होने पर पता चला कि इंजीनियरिंग छात्र रवि दुहान के नाम पर पंजीकृत मोबाइल फोन से कॉल की गई थी।
- इसके बाद, चार आरोपियों रवि ढींगरा, बलजीत पाहवा, परवेज खान और रमन गोस्वामी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, सिवाय आरोपी लक्ष्मी नारायण के, जिसे बाद में पकड़ लिया गया।
- ट्रायल कोर्ट ने आरोपी अपीलकर्ताओं को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 148 के तहत तीन साल के कठोर कारावास, आजीवन कारावास की सजा और भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 149 के साथ पठित धारा 364 ए के तहत प्रत्येक को 2000/- रुपये का जुर्माना भरने की सजा सुनाई।
- अपीलकर्ताओं ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष दोषसिद्धि और सजा के आदेश के खिलाफ अपील की और अपीलकर्ताओं की याचिका खारिज कर दी गई।
- इसलिये वर्तमान अपील शीर्ष न्यायालय में दायर की गई थी।
- फैसला - उच्चतम न्यायालय ने माना कि केवल अपहृत बच्चे को मदद के लिये चिल्लाने से रोकने के लिये डराना धमकी के घटक को साबित नहीं करता है, जिसके परिणामस्वरूप यह उचित आशंका पैदा होती है कि ऐसे व्यक्ति को चोट पहुँचाई जा सकती है या मार दिया जा सकता है, जैसा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 364 ए के तहत दोषसिद्धि को बनाए रखने के लिये आवश्यक है। शीर्ष न्यायालय ने अपीलकर्ताओं को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 363 यानी अपहरण के तहत दोषी ठहराया और सात साल की कैद और 2000/- रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई।
प्रासंगिक प्रावधान -
भारतीय दंड संहिता,1860
- धारा 148 - घातक आयुध से सज्जित होकर बल्वा करना –
- जो कोई घातक आयुध से या किसी ऐसी चीज से जिससे आक्रामक आयुध के रूप में उपयोग किये जाने पर मृत्यु कारित होनी संभाव्य हो, सज्जित होते हुए बल्वा करने का दोषी होगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि तीन वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
- IPC की धारा 149 — विधिविरुद्ध जमाव का हर सदस्य, सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में किये गए अपराध का दोषी –
- यदि विधिविरुद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा उस जमाव के सामान्य उद्देश्य को अग्रसर करने में अपराध किया जाता है या कोई ऐसा अपराध किया जाता है, जिसका किया जाना उस जमाव के सदस्य उस उद्देश्य को अग्रसर करने में संभाव्य जानते थे, तो हर व्यक्ति, जो उस अपराध के किये जाने के समय उस जमाव का सदस्य है, उस अपराध का दोषी होगा।
- IPC की धारा 363 — व्यपहरण के लिये दण्ड –
- जो कोई भारत में से या विधिपूर्ण संरक्षकता में से किसी व्यक्ति का व्यपहरण करेगा, वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
- IPC की धारा 364A — मुक्ति-धन आदि के लिये व्यपहरण –
- जो कोई किसी व्यक्ति का व्यपहरण या अपहरण करेगा या ऐसे व्यपहरण या अपहरण के पश्चात् ऐसे व्यक्ति को निरोध में रखेगा और ऐसे व्यक्ति को मृत्यु कारित करने या उपहति करने के लिये धमकी देगा या अपने इस आचरण से ऐसी युक्तियुक्त आशंका पैदा करेगा कि ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है या उपहति की जा सकती है या कोई कार्य करने या कोई कार्य करने से प्रविरत रहने के लिये या मुक्ति धन देने के लिये सरकार या किसी विदेशी राज्य या अन्तरराष्ट्रीय अन्तर सरकारी संगठन या किसी अन्य व्यक्ति को विवश करने के लिये ऐसे व्यक्ति को उपहति करेगा या मृत्यु कारित करेगा, वह मृत्यु से या आजीवन कारावास से दंडित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
मूल निर्णय
बीएलएस इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड बनाम राजवंत सिंह
BLS Infrastructure Limited v. Rajwant Singh
निर्णय/आदेश की तिथि – 01.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना- जे. सुधांशु धूलिया, जे. मनोज मिश्रा |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- वर्तमान मामला दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ दायर एक एसएलपी (विशेष अनुमति याचिका) से उत्पन्न आपराधिक अपील से संबंधित है।
- परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत प्रतिवादियों के खिलाफ आठ शिकायतें दर्ज की गईं। तीन शिकायतें वर्ष 2011 में, तीन वर्ष 2013 में और शेष दो वर्ष 2017 में दर्ज की गईं।
- अपीलकर्ता के अनुसार लंबित मामले के दौरान, उसके वकील ने उसे यह विश्वास दिलाकर गुमराह किया कि उसकी उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है क्योंकि समझौते पर बातचीत चल रही है।
- अंततः, अपीलकर्ता उपस्थित नहीं हुआ और मजिस्ट्रेट ने शिकायतकर्ता का बयान दर्ज होने के बावजूद शिकायतकर्ता की गैर-उपस्थिति के कारण आपराधिक शिकायतों को खारिज कर दिया।
- उपरोक्त आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और उसे खारिज कर दिया गया।
- इसलिये, वर्तमान याचिका शीर्ष न्यायालय में दायर की गई थी।
- शीर्ष न्यायालय ने कहा:
- विशेष अनुमति याचिका में एक विशिष्ट कथन है कि अपीलकर्ता ने मामले में अपने साक्ष्य का नेतृत्व किया था और उसके बाद आगे के गवाहों को बुलाने और उनकी जाँच करने के लिये संहिता की धारा 311 के तहत एक आवेदन दायर किया था जिसे स्वीकार नहीं किया गया था।
- यह कि अधीनस्थ न्यायालय और उच्च न्यायालय धारा 256 की उप-धारा (1) के प्रावधान के आलोक में मामले के तथ्यों पर विचार करने में विफल रहे हैं, जहाँ न्यायालय शिकायतकर्ता की उपस्थिति से छूट के बाद मामले पर आगे बढ़ सकती है।
- यह कि यदि शिकायतकर्ता संहिता की धारा 311 के तहत आवेदन पर दबाव डालने के लिये उपस्थित नहीं हुआ होता, तो मजिस्ट्रेट आवेदन को खारिज कर सकता था, लेकिन वर्तमान मामले में धारा 311 के संबंध में बयान दिये गए थे, इसलिये मजिस्ट्रेट के लिये सीधे तौर पर खारिज करना उचित नहीं था। शिकायत(ओं) और उच्च न्यायालय भी उपरोक्त पहलुओं पर ध्यान देने में विफल रहा।
- फैसला - शीर्ष न्यायालय ने माना कि जहाँ शिकायतकर्ता से पहले ही मामले में गवाह के रूप में पूछताछ की जा चुकी है, न्यायालय के लिये केवल शिकायतकर्ता की गैर-उपस्थिति पर बरी करने का आदेश पारित करना उचित नहीं होगा, जिससे न्यायालय ने अपील की अनुमति दे दी।
प्रासंगिक प्रावधान –
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 256 — परिवादी का हाजिर न होना या उसकी मृत्यु —
(1) यदि परिवाद पर समन जारी कर दिया गया हो और अभियुक्त की हाजिरी के लिये नियत दिन या उसके पश्चात्वर्ती किसी दिन, जिसके लिये सुनवाई स्थगित की जाती है, परिवादी हाजिर नहीं होता है, तो मजिस्ट्रेट इसमें इसके पूर्व किसी बात के होते हुए भी, अभियुक्त को दोषमुक्त कर देगा जब तक कि वह किन्हीं कारणों से किसी अन्य दिन के लिये मामले की सुनवाई स्थगित करना ठीक न समझे :
परन्तु जहाँ परिवादी का प्रतिनिधित्व प्लीडर द्वारा या अभियोजन का संचालन करने वाले अधिकारी द्वारा किया जाता है या जहाँ मजिस्ट्रेट की यह राय है कि परिवादी की वैयक्तिक हाजिरी आवश्यक नहीं है, वहाँ मजिस्ट्रेट उसकी हाजिरी से उसे अभिमुक्ति दे सकता है और मामले में कार्यवाही कर सकता है।
(2) उपधारा (1) के उपबंध, जहाँ तक हो सके, उन मामलों को भी लागू होंगे, जहाँ परिवादी के हाजिर न होने का कारण उसकी मृत्यु है।
दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 311 –आवश्यक साक्षी को समन करने या उपस्थित व्यक्ति की परीक्षा करने की शक्ति —
कोई न्यायालय इस संहिता के अधीन किसी जाँच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी प्रक्रम में किसी व्यक्ति को साक्षी के तौर पर समन कर सकता है या किसी ऐसे व्यक्ति की, जो हाजिर हो, यद्यपि वह साक्षी के रूप में समन न किया गया हो, परीक्षा कर सकता है, किसी व्यक्ति को, जिसकी पहले परीक्षा की जा चुकी है पुनः बुला सकता है और उसकी पुनः परीक्षा कर सकता है; और यदि न्यायालय को मामले के न्यायसंगत विनिश्चय के लिये किसी ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक प्रतीत होता है तो वह ऐसे व्यक्ति को समन करेगा और उसकी परीक्षा करेगा या उसे पुनः बुलाएगा और उसकी पुनः परीक्षा करेगा।
मूल निर्णय
आशुतोष सामंत बनाम रंजन बाला दासी और अन्य
Ashutosh Samanta v. Ranjan Bala Dasi & Ors
फैसले/आदेश की तिथि- 14.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना- जे.एस. रवींद्र भट्ट, जे. हिमा कोहली |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- वर्तमान अपील विशेष अनुमति द्वारा कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले से उत्पन्न हुई है।
- यह मामला एक गोसाईदास सामंत (इसके बाद, "वसीयतकर्ता") से संबंधित है, जिनके तीन बेटे थे - उपेन्द्र, अनुकूल और महादेव।
- उनकी मृत्यु हो गई, उनके तीन बेटे और भगवती दास नाम की एक विधवा जीवित रहीं और वे अपने पीछे 16.11.1929 की एक वसीयत छोड़ गए।
- वसीयतकर्ता ने अपनी संपत्ति तीन उत्तराधिकारियों अर्थात् अपने पुत्रों अनुकूल और महादेव तथा अपने पोते शिबू, जो कि उपेन्द्र का पुत्र है (जिसे कोई हिस्सा नहीं दिया गया था) के बीच वसीयत कर दी।
- इसके बाद 1945 में, इन तीन सह-हिस्सेदारों के बीच एक विभाजन विलेख-पत्र (Partition Deed) तैयार किया गया। इस व्यवस्था को उपेन्द्र ने स्वीकार कर लिया, जिन्होंने शिबू द्वारा अपने हिस्से में से बेची गई संपत्तियों के एक हिस्से के संबंध में एक अस्वीकरण दस्तावेज़ भी निष्पादित किया।
- यह आरोप लगाते हुए कि वह वसीयतकर्ता के स्वामित्व वाली संपत्तियों के एक हिस्से का मालिक था और उसने उन्हें उपेंद्र से खरीदा था, वर्तमान अपीलकर्ता ने 1952 में विभाजन और कब्जे के लिये मुकदमा दायर किया।
- मुकदमा खारिज कर दिया गया था और न्यायालय ने इस तथ्य पर भरोसा किया कि वर्तमान अपीलकर्ता के पास संपत्ति का कोई स्वामित्व नहीं था, हालांकि अपीलीय न्यायालय ने फैसले को उलट दिया था।
- उच्च न्यायालय में अपील करने पर, यह नोट किया गया कि जिस वसीयत पर भरोसा किया गया था, उसके साथ न तो प्रोबेट जुड़ा था, न ही इस संबंध में प्रशासन के पत्र मांगे गए थे।
- प्रोबेट के संबंध में, प्रतिवादियों ने ट्रायल कोर्ट से संपर्क किया। ट्रायल कोर्ट ने दर्ज किया कि प्रतिवादी प्रोबेट का हकदार था। उस फैसले के खिलाफ अपील खारिज कर दी गई।
- इसलिये, शीर्ष न्यायालय में वर्तमान अपील दायर की गई।
- फैसला - सुप्रीम कोर्ट ने एम.बी. रमेश और अन्य (2013) में माना कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 90 के तहत 30 वर्ष से अधिक पुराने दस्तावेज़ों की सत्यता के बारे में धारणा वसीयत के साक्ष्य के मामले में लागू नहीं होती है, क्योंकि वसीयत को केवल उनकी उम्र के आधार पर साबित नहीं किया जा सकता है। उन्हें 1925 उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63(C) और साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 के अनुसार स्थापित किया जाना चाहिये।
प्रासंगिक प्रावधान -
धारा 68 भारतीय साक्ष्य अधिनियम – ऐसे दस्तावेज़ के निष्पादन का साबित किया जाना जिसका अनुप्रमाणित होना विधि द्वारा अपेक्षित है —
यदि किसी दस्तावेज़ का अनुप्रमाणित होना विधि द्वारा अपेक्षित है, तो उसे साक्ष्य के रूप में उपयोग में नहीं लाया जाएगा, जब तक कि कम से कम एक अनुप्रमाणक साक्षी, यदि कोई अनुप्रमाणक साक्षी जीवित और न्यायालय की आदेशिका के अध्यधीन हो तथा साक्ष्य देने के योग्य हो, उसका निष्पादन साबित करने के प्रयोजन से न बुलाया गया हो:
परन्तु ऐसे किसी दस्तावेज़ के निष्पादन को साबित करने के लिये, जो विल नहीं है और जो भारतीय रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 का 16) के उपबन्धों के अनुसार रजिस्ट्रीकृत है, किसी अनुप्रमाणक साक्षी को बुलाना आवश्यक न होगा, जब तक कि उसके निष्पादन का प्रत्याख्यान उस व्यक्ति द्वारा जिसके द्वारा उसका निष्पादित होना तात्पर्यित है, विनिर्दिष्टतः न किया गया हो।
धारा 69 भारतीय साक्ष्य अधिनियम – जब किसी भी अनुप्रमाणक साक्षी का पता न चले, तब सबूत–
यदि ऐसे किसी अनुप्रमाणक साक्षी का पता न चल सके अथवा यदि दस्तावेज़ का यूनाइटेड किंगडम में निष्पादित होना तात्पर्यित हो तो यह साबित करना होगा कि कम से कम एक अनुप्रमाणक साक्षी का अनुप्रमाण उसी के हस्तलेख में है तथा यह कि दस्तावेज़ का निष्पादन करने वाले व्यक्ति का हस्ताक्षर उसी व्यक्ति के हस्तालेख में है।
धारा 90 भारतीय साक्ष्य अधिनियम – तीस वर्ष पुरानी दस्तावेज़ों के बारे में उपधारणा —
जहाँ कि कोई दस्तावेज़, जिसका तीस वर्ष पुरानी होना तात्पर्यित है या साबित किया गया है, ऐसी किसी अभिरक्षा में से, जिसे न्यायालय उस विशिष्ट मामले में उचित समझता है, पेश की गई है, वहाँ न्यायालय यह उपधारित कर सकेगा कि ऐसी दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर और उसका हर अन्य भाग, जिसका किसी विशिष्ट व्यक्ति के हस्तलेख में होना तात्पर्यित है, उस व्यक्ति के हस्तलेख में है, और निष्पादित या अनुप्रमाणित दस्तावेज़ होने की दशा में यह उपधारित कर सकेगा कि वह उन व्यक्तियों द्वारा सम्यक् रूप से निष्पादित और अनुप्रमाणित की गई थी जिनके द्वारा उसका निष्पादित और अनुप्रमाणित होना तात्पर्यित है।
स्पष्टीकरण — दस्तावेज़ों का उचित अभिरक्षा में होना कहा जाता है, यदि वे ऐसे स्थान में और उस व्यक्ति की देख-रेख में है, जहाँ और जिसके पास वे प्रकृत्या होनी चाहिये, किन्तु कोई भी अभिरक्षा अनुचित नहीं है, यदि यह साबित कर दिया जाए कि अभिरक्षा का उद्गम विधिसम्मत था या यदि उस विशिष्ट मामले की परिस्थितियाँ ऐसी हों, जिनसे ऐसा उद्गम अधिसंभाव्य हो जाता है।
यह स्पष्टीकरण धारा 81 को भी लागू है|
उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 - धारा 63 विशेषाधिकार रहित विलों का निष्पादन-प्रत्येक वसीयतकर्ता, जो किसी अभियान में नियोजित या वास्तविक लड़ाई में लगा हुआ सैनिक 1[या इस प्रकार नियोजित या लगा हुआ वायु सैनिक] या समुद्र पर कोई जहाज़ी नहीं है अपने विल निम्नलिखित नियमों के अनुसार निष्पादित करेगा: -
(क) वसीयतकर्ता विल पर अपने हस्ताक्षर करेगा या अपना चिह्न लगाएगा या उस पर किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसकी उपस्थिति में और उसके निदेशानुसार हस्ताक्षर किया जाएगा;
(ख) वसीयतकर्ता के हस्ताक्षर या चिह्न या उसके लिये हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति के हस्ताक्षर ऐसे किये जाएँगे या लगाए जाएँगे कि उससे यह प्रकट हो कि उसके द्वारा लेख को विल के रूप में प्रभावी करने का आशय था;
(ग) वसीयत को ऐसे दो या अधिक साक्षियों द्वारा अनुप्रमाणित किया जाएगा, जिसमें से प्रत्येक ने वसीयतकर्ता को विल पर हस्ताक्षर करते हुए या चिह्न लगाते हुए देखा है या वसीयतकर्ता की उपस्थिति में और उसके निदेशानुसार किसी अन्य व्यक्ति को विल पर हस्ताक्षर करते हुए देखा है या वसीयतकर्ता से उसके हस्ताक्षर या चिह्न की या ऐसे अन्य व्यक्ति के हस्ताक्षर की वैयक्तिक अभिस्वीकृति प्राप्त की है; और प्रत्येक साक्षी वसीयतकर्ता की उपस्थिति में विल पर हस्ताक्षर करेगा किन्तु यह आवश्यक नहीं होगा कि एक से अधिक साक्षी एक ही समय पर उपस्थित हों और अनुप्रमाणन का कोई विशेष प्ररूप आवश्यक नहीं होगा।
मूल निर्णय
अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ
Anoop Baranwal v. Union of India
निर्णय/आदेश की तिथि – 02.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 5 जज पीठ की संरचना- जे. के. एम. जोसेफ, जे. अजय रस्तोगी, जे. अनिरुद्ध बोस, जे. हृषिकेश रॉय, जे. सी. टी. रविकुमार |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- शीर्ष न्यायालय की 5 न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ अनुच्छेद 324(2) के वास्तविक सार को तय करने के लिये भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत दायर कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी।
- दायर की गई रिट याचिका (2015 की संख्या 104) में निम्नलिखित सिफारिशें शामिल थीं:
i) प्रतिवादी को आदेश देते हुए एक परमादेश या उचित रिट, आदेश या निर्देश जारी करें: भारत के संविधान के अनुच्छेद 324(2) के तहत चुनाव आयोग में सदस्य की नियुक्ति के लिये नाम की सिफारिश करने के लिये एक तटस्थ और स्वतंत्र कॉलेजियम/चयन समिति का गठन करके चयन की निष्पक्ष, पूर्वाग्रह रहित और पारदर्शी प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिये कानून बनाएं;
ii) चुनाव आयोग को सदस्य के रिक्त पद पर नियुक्ति के लिये नामों की सिफारिश करने के लिये एक अंतरिम तटस्थ और स्वतंत्र कॉलेजियम/चयन समिति का गठन करने वाला परमादेश या उचित रिट, आदेश या निर्देश जारी करना;
iii) चुनाव आयोग को सदस्यों के नामों की सिफारिश करने के लिये स्वतंत्र और तटस्थ कॉलेजियम/ चयन समिति का गठन करके निष्पक्ष और पारदर्शी चयन प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिये एक कानून बनाने के लिये याचिकाकर्ता की याचिका दिनांक 03.12.2014 पर निर्णय लेने के लिये प्रतिवादी को आदेश देने के लिये एक परमादेश या उचित रिट, आदेश या निर्देश जारी करना। - रिट याचिका (सिविल) में (2017 का क्रमांक 1043) श्री अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर, जो एक जनहित याचिका भी है, निम्नलिखित राहतें मांगी गई थीं:
क) केंद्र सरकार को दोनों चुनाव आयुक्तों को समान और बराबर सुरक्षा प्रदान करने के लिये उचित कदम उठाने का निर्देश दें ताकि उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त के समान तरीके और समान आधारों के अलावा उनके पद से हटाया न जाए;
ख) केंद्र सरकार को भारत के चुनाव आयोग को स्वतंत्र सचिवालय प्रदान करने के लिये उचित कदम उठाने और लोकसभा/ राज्यसभा सचिवालय की तर्ज पर भारत की समेकित निधि पर प्रभारित व्यय की घोषणा करने का निर्देश देना;
ग) भारत के उच्चतम न्यायालय में निहित नियम बनाने के अधिकार की तर्ज पर भारत के चुनाव आयोग को चुनाव संबंधी नियम और आचार संहिता बनाने के लिये सशक्त बनाने हेतु नियम बनाने का अधिकार प्रदान करने के लिये केंद्र सरकार को उचित कदम उठाने का निर्देश देना;
घ) ऐसे अन्य कदम उठाएं जो माननीय न्यायालय भारत के चुनाव आयोग को मजबूत करने के लिये उचित समझे और याचिकाकर्ता को याचिका की लागत की अनुमति दें। - एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा दायर रिट याचिका (सिविल) (संख्या 569/2021) में, मांगी गई राहतें इस प्रकार थीं:
क) मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति केवल कार्यपालिका द्वारा करने की प्रथा को भारत के संविधान के अनुच्छेद 324(2) और 14 का उल्लंघन घोषित करते हुए एक उचित रिट, आदेश या निर्देश जारी करें।
ख) द्वितीय. प्रतिवादी को निम्नलिखित के आधार पर चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिये एक स्वतंत्र प्रणाली लागू करने का निर्देश दें।- मार्च 2015 में विधि आयोग की 255वीं रिपोर्ट में की गई सिफारिशें,
- दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की जनवरी 2007 की चौथी रिपोर्ट में डॉ. दिनेश गोस्वामी समिति की सिफारिशों और
- 1975 में न्यायमूर्ति तारकुंडे समिति की अपनी रिपोर्ट में की गई सिफारिशें।
- डॉ. जया ठाकुर द्वारा दायर नवीनतम और आखिरी रिट याचिका (सिविल) (नंबर 998/2022) में, मांगी गई राहत है - “(क) मई 1990 की चुनाव सुधार समिति की रिपोर्ट द्वारा अनुशंसित तर्ज पर चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के लिये एक स्वतंत्र और पारदर्शी प्रणाली लागू करने के लिये प्रतिवादियों को परमादेश की प्रकृति में एक रिट आदेश या निर्देश जारी करें।
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सत्ता हासिल करना अक्सर राजनीतिक दलों का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। हालाँकि, सरकार का आचरण निष्पक्ष होना चाहिये, और लोकतंत्र में, साध्य साधन को उचित नहीं ठहरा सकता। इस प्रकार, यह धारणा बनी कि चुनाव आयोग को स्वतंत्र होना होगा।
- फैसला - उच्चतम न्यायालय की एक संविधान पीठ ने आदेश दिया है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता (या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता) की एक समिति की सलाह पर की जाएगी और भारत के मुख्य न्यायाधीश के अनुसार, यह प्रथा तब तक लागू रहेगी जब तक कि संसद द्वारा इस संबंध में एक कानून नहीं बनाया जाता है।
प्रासंगिक प्रावधान -
भारत का संविधान, 1950 - अनुच्छेद 32 - इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को लागू करने के उपाय। -
2(1): इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिये समुचित कार्यवाहियों द्वारा उच्चतम न्यायालय में समावेदन करने का अधिकार प्रत्याभूत किया जाता है।
32(2): इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी को प्रवर्तित कराने के लिये उच्चतम न्यायालय को ऐसे निदेश या आदेश या रिट, जिनके अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा और उप्रेषण रिट हैं, जो भी समुचित हो, निकालने की शक्ति होगी।
32(3): उच्चतम न्यायालय को खंड (1) और खंड (2) द्वारा प्रदत्त शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद, उच्चतम न्यायालय द्वारा खंड (2) के अधीन प्रयोक्तव्य किन्हीं या सभी शक्तियों का किसी अन्य न्यायालय को अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर प्रयोग करने के लिये विधि द्वारा सशक्त कर सकेगी।
32(4): इस संविधान द्वारा अन्यथा उपबंधित के सिवाय, इस अनुच्छेद द्वारा प्रत्याभूत अधिकार निलंबित नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 324 - चुनावों का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण एक चुनाव आयोग में निहित किया जाएगा।
- इस संविधान के अधीन संसद और प्रत्येक राज्य के विधान-मंडल के लिये कराए जाने वाले सभी निर्वाचनों के लिये तथा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पदों के लिये निर्वाचनों हेतु निर्वाचक-नामावली तैयार कराने का और उन सभी निर्वाचनों के संचालन का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण,* एक आयोग में निहित होगा (जिसे इस संविधान में निर्वाचन आयोग कहा गया है)।
- निर्वाचन आयोग मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों से, यदि कोई हों, जो राष्ट्रपति समय-समय पर नियत करे, से मिलकर बनेगा तथा मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति, संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
- जब कोई अन्य निर्वाचन आयुक्त इस प्रकार नियुक्त किया जाता है तब मुख्य निर्वाचन आयुक्त निर्वाचन आयोग के अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा।
- लोकसभा के और प्रत्येक राज्य की विधानसभा के प्रत्येक साधारण निर्वाचन से पहले तथा विधान परिषद वाले प्रत्येक राज्य की विधान परिषद के लिये प्रथम साधारण निर्वाचन से पहले और उसके पश्चात् प्रत्येक द्विवार्षिक निर्वाचन से पहले, राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग से परामर्श करने के पश्चात्, खंड (1) द्वारा निर्वाचन आयोग को सौंपे गए कृत्यों के पालन में आयोग की सहायता के लिये उतने प्रादेशिक आयुक्तों की भी नियुक्ति कर सकेगा जितने वह आवश्यक समझे।
- संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, निर्वाचन आयुक्तों और प्रादेशिक आयुक्तों की सेवा की शर्तें और पदावधि ऐसी होंगी जो राष्ट्रपति नियम द्वारा अवधारित करे:
परन्तु मुख्य निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से उसी रीति से और उन्हीं आधारों पर ही हटाया जाएगा, जिस रीति से और जिन आधारों पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाता है अन्यथा नहीं और मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सेवा की शर्तों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसके लिये अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा :
परन्तु यह और कि किसी अन्य निर्वाचन आयुक्त या प्रादेशिक आयुक्त को मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश पर ही पद से हटाया जाएगा, अन्यथा नहीं। - जब निर्वाचन आयोग ऐसा अनुरोध करे तब, राष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल** निर्वाचन आयोग या प्रादेशिक आयुक्त को उतने कर्मचारिवृन्द उपलब्ध कराएगा जितने खंड (1) द्वारा निर्वाचन आयोग को सौंपे गए कृत्यों के निर्वहन के लिये आवश्यक हों।
मूल निर्णय
विजयालक्ष्मी झा बनाम भारत संघ
निर्णय/आदेश की तिथि – 03.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 3 न्यायाधीश पीठ की संरचना- मुख्य न्यायाधीश डॉ. डीवाई चंद्रचूड़, जे. पमिदिघनतम श्री नरसिम्हा, जे.जे.बी. पारदीवाला |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- वर्तमान रिट याचिका का उद्देश्य भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट क्षेत्राधिकार को लागू करना है।
- इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम मनोहरलाल (2020) मामले के फैसले को खारिज करने के लिये यह याचिका दायर की गई थी, जिसमें शीर्ष न्यायालय की संविधान पीठ ने भूमि अधिग्रहण पुनर्वास में उचित मुआवजे और पारदर्शिता के अधिकार अधिनियम की धारा 24(2) की व्याख्या दी थी।
- फैसला - उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि "इस न्यायालय के बाध्यकारी फैसले को चुनौती देने के लिये संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत कोई याचिका दायर नहीं की जा सकती। इसलिये, हम याचिका पर विचार करने से इनकार करते हैं। तदनुसार याचिका खारिज की जाती है ".
प्रासंगिक प्रावधान -
भारत का संविधान - अनुच्छेद 32 - इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को लागू करने के उपाय —
(1) इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिये उचित कार्यवाही द्वारा उच्चतम न्यायालय में जाने के अधिकार की गारंटी है।
(2) उच्चतम न्यायालय के पास प्रदत्त अधिकारों में से किसी के प्रवर्तन के लिये निर्देश या आदेश या रिट जारी करने की शक्ति होगी, जिसमें बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, यथा वारंटो और सर्टिओरारी की प्रकृति की रिट, जो भी उचित हो, शामिल हैं।
(3) खंड (1) और (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद कानून द्वारा किसी न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर खंड (2) के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रयोग की जाने वाली सभी या किसी भी शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार दे सकती है।
(4) इस अनुच्छेद द्वारा गारंटीकृत अधिकार को इस संविधान द्वारा अन्यथा प्रदान किये जाने के अलावा निलंबित नहीं किया जाएगा।
भूमि अधिग्रहण पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम में उचित मुआवजे और पारदर्शिता का अधिकार - धारा 24(2) - 1894 के अधिनियम संख्या 1 के तहत भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को कुछ मामलों में समाप्त माना जाएगा - उपधारा (1) में किसी भी बात के बावजूद भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के तहत शुरू की गई भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही के मामले में, जहाँ उक्त धारा 11 के तहत एक पुरस्कार इस अधिनियम के शुरू होने से पाँच साल या उससे अधिक पहले दिया गया है, लेकिन भूमि का भौतिक कब्जा नहीं लिया गया है या मुआवजे का भुगतान नहीं किया गया है, उक्त कार्यवाही समाप्त मानी जाएगी और उपयुक्त सरकार, यदि वह चाहे, तो इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार ऐसी भूमि अधिग्रहण की कार्यवाही नए सिरे से शुरू करेगी: बशर्ते कि जहाँ एक पुरस्कार दिया गया हो किया गया है और अधिकांश भूमि जोत के संबंध में मुआवजा लाभार्थियों के खाते में जमा नहीं किया गया है, तो, उक्त भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धारा 4 के तहत अधिग्रहण के लिये अधिसूचना में निर्दिष्ट सभी लाभार्थी, तदनुसार मुआवजे के हकदार होंगे।
मूल निर्णय
गोवा राज्य बनाम समिट ऑनलाइन ट्रेड सॉल्यूशंस (प्रा.) लिमिटेड और अन्य
फैसले/आदेश की तिथि- 14.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना- जे.एस रवींद्र भट्ट, जे. दीपांकर दत्ता; |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- शीर्ष न्यायालय सिक्किम उच्च न्यायालय के एक फैसले के खिलाफ गोवा राज्य द्वारा दायर अपील पर विचार कर रहा था कि गोवा राज्य सरकार द्वारा जारी अधिसूचना को चुनौती देने वाली एक कंपनी द्वारा दायर याचिका पर विचार करना उसके अधिकार क्षेत्र में है।
- यह मामला केंद्रीय वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम, 2017 के तहत गोवा सरकार द्वारा जारी अधिसूचना को चुनौती देने वाली एक लॉटरी कंपनी द्वारा दायर रिट याचिका से संबंधित है।
- याचिकाकर्ता फर्म का कार्यालय गंगटोक, सिक्किम में है और उसने कंपनी द्वारा गोवा राज्य में किये जाने वाले व्यवसाय के लिये गोवा राज्य द्वारा लगाए गए कर के लिये सिक्किम उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।
- याचिकाकर्ता का तर्क यह था कि कार्रवाई का कारण सिक्किम राज्य में उत्पन्न हुआ था, इसलिये सिक्किम उच्च न्यायालय के पास मामले को सुनने और निर्णय लेने का अधिकार क्षेत्र है।
- उच्च न्यायालय ने रिट याचिकाओं को इस आधार पर स्वीकार कर लिया कि याचिकाकर्ता सीजीएसटी अधिनियम के तहत केंद्र द्वारा जारी एक अधिसूचना को भी चुनौती दे रहे हैं।
- इसके बाद गोवा राज्य ने प्रतिवादियों की सूची से हटाने के लिये एक आवेदन दायर किया, उच्च न्यायालय ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, जिसके खिलाफ राज्य ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
- फोरम कन्वेनिएन्स के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए रिट पर विचार नहीं करना चाहिये। न्यायालय को अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने से इंकार करने और मामले को किसी अन्य फोरम में स्थानांतरित करने का अधिकार है, जहाँ कार्रवाई की जा सकती है, ताकि वादियों और गवाहों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए और उनके हित में विवादों का निपटारा किया जा सके।
- फैसला- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान में 'कार्रवाई का कारण' शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि, कुक बनाम गिल (1873) में लॉर्ड ब्रेट द्वारा दी गई 'कार्रवाई के कारण' की क्लासिक परिभाषा यह है कि "कार्रवाई के कारण का मतलब हर वह तथ्य है जिसे वादी के लिये साबित करना आवश्यक होगा, यदि उसका पता लगाया जाए, ताकि अदालत के फैसले के उसके अधिकार का समर्थन किया जा सके। शीर्ष न्यायालय ने माना कि सिक्किम उच्च न्यायालय को गोवा राज्य के खिलाफ रिट याचिकाओं पर विचार नहीं करना चाहिये था।
प्रासंगिक प्रावधान -
भारत का संविधान - अनुच्छेद 226 - कुछ रिट जारी करने की उच्च न्यायालयों की शक्ति - (1) अनुच्छेद 32 में किसी बात के बावजूद, प्रत्येक उच्च न्यायालय के पास उन सभी क्षेत्रों में, जिनके संबंध में वह अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करता है, किसी भी व्यक्ति को जारी करने की शक्ति होगी या प्राधिकारी, जिसमें उचित मामलों में, किसी भी सरकार, उन क्षेत्रों के भीतर निर्देश, आदेश या रिट शामिल हैं, जिनमें बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, यथा वारंटो और सर्टिओरारी की प्रकृति में रिट या उनमें से किसी के प्रवर्तन के लिये रिट शामिल हैं।
(2) खंड (1) द्वारा किसी भी सरकार, प्राधिकारी या व्यक्ति को निर्देश, आदेश या रिट जारी करने की शक्ति का प्रयोग उन क्षेत्रों के संबंध में क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने वाले किसी भी उच्च न्यायालय द्वारा भी किया जा सकता है, जिसके भीतर कार्रवाई का कारण, पूरी तरह से या में है। भाग, ऐसी शक्ति के प्रयोग के लिये उत्पन्न होता है, भले ही ऐसी सरकार या प्राधिकरण की सीट या ऐसे व्यक्ति का निवास उन क्षेत्रों के भीतर नहीं है।
(3) जहाँ कोई भी पक्ष जिसके खिलाफ अंतरिम आदेश, चाहे निषेधाज्ञा या रोक के माध्यम से या किसी अन्य तरीके से, खंड (1) के तहत याचिका पर या उससे संबंधित किसी भी कार्यवाही में दिया जाता है, बिना- (ए) प्रस्तुत किये ऐसे पक्ष को ऐसी याचिका की प्रतियां और ऐसे अंतरिम आदेश के लिये याचिका के समर्थन में सभी दस्तावेज़; और
(b) ऐसे पक्ष को सुनवाई का अवसर देते हुए, ऐसे आदेश को रद्द करने के लिये उच्च न्यायालय में आवेदन करता है और ऐसे आवेदन की एक प्रति उस पक्ष को देता है जिसके पक्ष में ऐसा आदेश दिया गया है या ऐसे पक्ष के वकील को देता है, उच्च न्यायालय आवेदन का निपटान उस तारीख से दो सप्ताह की अवधि के भीतर करेगा जिस तारीख को वह प्राप्त हुआ है या उस तारीख से जिस दिन ऐसे आवेदन की प्रति प्रस्तुत की गई है, जो भी बाद में हो, या जहाँ उच्च न्यायालय उस दिन बंद है उस अवधि का अंतिम दिन, उसके अगले दिन की समाप्ति से पहले जिस दिन उच्च न्यायालय खुला है और यदि आवेदन का निपटारा इस प्रकार नहीं किया जाता है, तो अंतरिम आदेश, उस अवधि की समाप्ति पर या जैसा भी मामला हो, उक्त अगले दिन की समाप्ति पर, रद्द हो जाएगा।
(4) इस अनुच्छेद द्वारा उच्च न्यायालय को प्रदत्त शक्ति अनुच्छेद 32 के खंड (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्ति का अनादर नहीं होगा।
मूल निर्णय
अजय कुमार राधेश्याम गोयनका बनाम टूरिज्म फाइनेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड
निर्णय/आदेश की तिथि – 03.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 3 न्यायाधीश पीठ की संरचना- जे. संजय किशन कौल, जे. अभय एस ओका और जे. जेबी पारदीवाला |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- वर्तमान मामले में, मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के समक्ष एनआई अधिनियम के तहत कार्यवाही के लंबित होने के दौरान, आरोपी कंपनी (मैसर्स रेनबो पेपर्स लिमिटेड) के खिलाफ एक तीसरे पक्ष द्वारा दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 (IBC) की धारा 9 के तहत दिवाला कार्यवाही भी शुरू की गई थी।
- नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) ने धारा 9 के तहत याचिका स्वीकार कर ली और तदनुसार, IBC की धारा 14 के संदर्भ में रोक प्रभावी हो गई।
- इसके बाद अपीलकर्ता ने शिकायत मामले से मुक्ति के लिये एक आवेदन दायर किया, जिसे मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने खारिज कर दिया।
- अपीलकर्ता द्वारा उच्च न्यायालय में प्रस्तुत आपराधिक पुनरीक्षण याचिका भी रुपये के जुर्माने के साथ खारिज कर दी गई। अपीलकर्ता द्वारा प्रतिवादी को 20,000/- का भुगतान किया जाना है।
- इसके बाद वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
- शीर्ष न्यायालय के समक्ष सवाल यह था कि क्या दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 के तहत लंबित कार्यवाही परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के तहत कार्यवाही को एक साथ जारी रखने की अनुमति देती है।
- फैसला - उच्चतम न्यायालय की एक खंडपीठ ने माना कि दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता 2016 के तहत एक कॉर्पोरेट देनदार की समाधान योजना की मंज़ूरी नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 की धारा 138 के तहत इसके पूर्व निदेशक की आपराधिक देनदारी को समाप्त नहीं करेगी।
प्रासंगिक प्रावधान -
परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 - धारा 138 -खातों में अपर्याप्त निधियों आदि के कारण चेक का अनादरण--जहाँ किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णतः या भागत: उन्मोचन के लिये किसी बैंककार के पास अपने द्वारा रखे गए खाते में से किसी अन्य व्यक्ति को किसी धनराशि के संदाय के लिये लिखा गया कोई चेक बैंक द्वारा संदाय किये बिना या तो इस कारण लौटा दिया जाता है कि उस खाते में जमा धनराशि उस चेक का आदरण करने के लिये अपर्याप्त है या वह उस रकम से अधिक है जिसका बैंक के साथ किये गए कराकर द्वारा उस खाते में से संदाय करने करने का ठहराव किया गया है, वहाँ ऐसे व्यक्ति के बारे में यह समझा जाएगा कि उसने अपराध किया है और वह, इस अधिनियम के किसी अन्य उपबंध पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, कारावास से, जिसकी अवधि /[दो वर्ष] तक की हो सकेगी या जुर्माने से, जो चेक की रकम का दुगुना तक हो सकेगा, या दोनों से, दंडनीय होगा :
परन्तु इस धारा में अंतर्विष्ट कोई बात तब तक लागू नहीं होगी जब तक--
छह मास की अवधि के भीतर या उसकी विधिमान्यता की अवधि के
(क) वह चेक उसके, लिखे जाने की तारीख के भीतर जो भी पूर्वतर हो, बैंक को प्रस्तुत न किया गया हो;
(ख) चेक का पाने वाला या धारक, सम्यक् अनुक्रम में चेक के लेखीवाल को, असंदत्त चेक के लौटाए जाने की बाबत बैंक से उसे सूचना की प्राप्ति के (तीस दिन] के भीतर, लिखित रूप में सूचना देकर उक्त धनराशि के संदाय के लिये मांग नहीं करता है; और
(ग) ऐसे चेक का लेखीवाल, चेक के पाने वाले को या धारक को उक्त सूचना की प्राप्ति के पंद्रह दिन के भीतर उक्त धनराशि का संदाय सम्यक् अनुक्रम में करने में असफल नहीं रहता है।
स्पष्टीकरण-
दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता 2016 - धारा 9 - प्रचालन लेनदार द्वारा निगमित दिवाला समाधान प्रक्रिया आरंभ करने के लिये आवेदन (1) धारा 8 की उपधारा (।) के अधीन मांग संदाय सूचना या बीजक के परिदान की तारीख से दस दिन की अवधि की समाप्ति के पश्चात्, यदि प्रचालन लेनदार निगमित ऋणी से संदाय प्राप्त नहीं करता है या धारा 8 की उपधारा (2) के अधीन विवाद की सूचना प्राप्त नहीं करता है तो प्रचालन लेनदार किसी निगमित दिवाला समाधान प्रक्रिया आरंभ करने के लिये न्यायनिर्णायक प्राधिकारी के समक्ष कोई आवेदन फाइल कर सकेगा।
(2) उपधारा (1) के अधीन आवेदन ऐसे प्ररूप और ऐसी रीति में फाइल किया जाएगा और उसके साथ ऐसी फीस होगी जो विहित की जाए।
(3) प्रचालन लेनदार आवेदन के साथ निम्नलिखित देगा--
(क) निगमित ऋणी को प्रचालन लेनदार द्वारा परिदत्त मांग संदाय की बीजक या सूचना की प्रति:
(ख) इस प्रभाव का शपथपत्र कि असदंत्त प्रचालन ऋण के किसी विवाद से संबंधित निगमित ऋणी द्वारा कोई सूचना नहीं दी गई है;
(ग) प्रचालन लेनदार के लेखों का अनुरक्षण करने वाली वित्तीय संस्था से प्रमाणपत्र की प्रति इस बात की पुष्टि करने के लिये कि '[निगमित ऋणी, यदि उपलब्ध हो, द्वारा] असंदत्त प्रचालन ऋण का संदाय नहीं किया गया है; और
(घ) सूचना उपयोगिता के किसी अभिलेख की कोई प्रति, जो वह पुष्टि करती हो कि निगमित ऋणी, यदि उपलब्ध हो, द्वारा किसी असंदत्त प्रचालन ऋण का कोई संदाय नहीं किया गया है; और
(ड) यह पुष्टि करने वाला कोई अन्य सबूत कि निगमित ऋणी द्वारा किसी असंदत्त प्रचालन ऋण का कोई संदाय नहीं किया गया है या ऐसी कोई अन्य जानकारी, जो विहित की जाए।
(4) इस धारा के अधीन निगमित दिवाला समाधान प्रक्रिया आरंभ करने वाला कोई प्रचालन लेनदार किसी समाधान वृत्तिक को अंतरिम समाधान वृत्तिक के रूप में कार्य करने के लिये प्रस्ताव कर सकेगा।
(5) न्यायनिर्णायक प्राधिकारी उपधारा (2) के अधीन आवेदन की प्राप्ति के चौदह दिन के भीतर आदेश द्वारा-
आवेदन को स्वीकार करेगा और इस विनिश्चय से प्रचालन लेनदार तथा निगमित ऋणी को संसूचित करेगा,
यदि-
(क) उपधारा (2) के अधीन किया गया आवेदन पूर्ण है;
(ख) असंदत्त प्रचालन ऋण का कोई संदाय नहीं किया गया है;
(ग) निगमित ऋणी को संदाय के लिये बीजक या सूचना प्रचालन लेनदार द्वारा परिदत्त करें दीं गई है;
(घ) विवाद की कोई सूचना प्रचालन लेनदार द्वारा प्राप्त नहीं हुई है और सूचना उपयोगिता में विवाद का (ड) उपधारा (4) के अधीन प्रस्तावित किसी समाधान वृत्तिक के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही, यदि कोई हो, लंबित नहीं है;
(ड) आवेदन को अस्वीकार करेगा और ऐसे विनिश्वय से प्रचालन लेनदार तथा निगमित ऋणी को संसूचित करेगा,
यदि-
(क) उपधारा (2) के अधीन किया गया आवेदन अपूर्ण है;
(ख) असंदत्त प्रचालन ऋण का '[संदाय] किया गया है;
(ग) लेनदार ने निगमित ऋणी को संदाय के लिये बीजक या सूचना का परिदान नहीं किया है;
(व) प्रचालन लेनदार ने विवाद की सूचना प्राप्त की है या सूचना उपयोगिता में विवाद का कोई अभिलेख है या
(ड) किसी प्रस्तावित समाधान वृत्तिक के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही लंबित है:
परन्तु न्यायनिर्णावक प्राधिकारी, खंड (४) के उपखंड (क) के अधीन आवेदन को अस्वीकार करने से पूर्व, न्यायनिर्णायक प्राधिकारी से ऐसी सूचना प्राप्त करने के सात दिन के भीतर आवेदक को उसके आवेदन में इस त्रुटि को सुधारने के लिये सूचना देगा।
(6) निगमित दिवाला समाधान प्रक्रिया इस धारा की उपधारा (5) के अधीन आवेदन के स्वीकार होने की तारीख से प्रारंभ होगी।
धारा- 14 अधिस्थगन--(।) उपधारा (2) और उपधारा (3) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, दिवाला प्रारंभ की तारीख को, न्यायनिर्णायक प्राधिकारी आदेश द्वारा निम्नलिखित सभी को प्रतिपिद्ध करने के लिये अधिस्थगन की घोषणा करेगा, अर्थात्
(क) निगमित ऋणी के विरुद्ध वाद को संस्थित करने या लम्बित वादों और कार्यवाहियों को जारी रखने, जिसके अंतर्गत किसी न्यायालय, अधिकरण, माध्यस्थम्, पैनल या अन्य प्राधिकारी के किसी निर्णय, डिक्री या आदेश का निष्पादन भी है;
(ख) निगमित ऋणी द्वारा उसकी किसी आस्ति या किसी विधिक अधिकार या उसमें किसी फायदाग़ाही हित का अंतरण, विल्लंगम, अन्य संक्रामण या व्ययन करना;
(ग) अपनी संपत्ति के संबंध निगमित ऋणी द्वारा सुजित किसी प्रतिभूति हित के पुरोबंध, वसूली या प्रवूत्त करने की कोई कार्रवाई जिसके अंतर्गत वित्तीय आस्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम, 2000 (2002 का 54) के अधीन कोई कार्रवाई भी है;
(घ) किसी स्वामी या पट्टाकर्ता द्वारा किसी संपत्ति की वसूली जहाँ ऐसी संपत्ति निगमित ऋणी के अधिभोग में है या उसके कब्जे में है।
(2) निगमित ऋणी को आवश्यक वस्तुओं या सेवाओं की आपूर्ति, जैसा विनिर्दिप्ट किया जाए, को अधिस्थगन कालावधि के दौरान समाप्त या निलंबित या बाधित नहीं किया जाएगा।
(3) उपधारा (।) के उपबंध निम्नलिखित को लागू नहीं होंगे.--
(क) ऐसे संव्यवहार, करार, अन्य ठहराव, जो केंद्रीय सरकार द्वारा, किसी वित्तीय सेक्टर विनियामक या किसी अन्य प्राधिकारी के परामर्श से अधिसूचित किये जाएं।
(ख) किसी निगमित ऋणी को गारंटी की संबिदा में प्रतिभू।
(4) अधिस्थगन का आदेश, ऐसे आदेश की तारीख से निगमित दिवाला समाधान प्रक्रिया के पूरा होने तक प्रभावी रहेगा:
परन्तु जहाँ निगमित दिवाला समाधान प्रक्रिया अवधि के दौरान किसी समय, यदि न्यायनिर्णायक प्राधिकारी धारा 3 की उपधारा (2) के अधीन सम्यक् रूप से जमा समाधान योजना का अनुमोदन कर देता है या ध्वारा 33 के अधीन निगसित ऋणी के परिसमापन का आदेश पारित कर देता है, तो अधिस्थगल, यथास्थिति, ऐसे अनुमोदन या परिसमापन आदेश की तारीख से प्रभाव में नहीं रहेगा।
मूल निर्णय
शंकर बनाम महाराष्ट्र राज्य
निर्णय/आदेश की तिथि – 15.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना- जे. अजय रस्तोगी, जेसीटी रविकुमार |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- शीर्ष न्यायालय बॉम्बे हाई कोर्ट द्वारा दिये गए फैसले की अपील पर सुनवाई कर रहा था।
- मृतक अपने एक दोस्त के साथ इंदिरा गांधी वार्ड के बंदहरा में गया था, जहाँ चिंतामन गिद्दू गेटी (अभियोजन गवाह) का घर स्थित है।
- मृतक अपनी मोपड बाईक खड़ी करने के बाद अपने दोस्त को गाड़ी के पास छोड़कर घर के अंदर चला गया।
- ऐसा कहा गया है कि मृतक ने अपने दोस्त के साथ मिलकर अपीलकर्ता के भाई पर हमला किया, हालांकि मृतक ने हमले से इनकार किया।
- बाहर इंतजार कर रहा मृतक का दोस्त घर के अंदर आया और उसे बाहर आने के लिये कहा, मना करने पर उसका दोस्त वहाँ से चला गया।
- इसके बाद मृतक को ड्रिंक करने के लिये आमंत्रित किया गया और वह चिंतामन गिद्दू गेटी के घर से चला गया।
- इसके करीब एक घंटे बाद मृतक का शव मिला।
- ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्ताओं को दोषी पाया और परिस्थितिजन्य साक्ष्य के आधार पर उन्हें दोषी ठहराया।
- उच्च न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट द्वारा अपीलकर्ताओं पर लगाई गई दोषसिद्धि और सजा की पुष्टि करते हुए कहा कि कुछ सिद्ध परिस्थितियाँ भौतिक परिस्थितियाँ हैं।
- इसलिये शीर्ष न्यायालय में वर्तमान अपील।
- न्यायालय ने शरद बिरधीचंद सारदा बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में दिये गए पाँच सुनहरे सिद्धांतों पर ध्यान दिया जो हैं:
- जिन परिस्थितियों से अपराध का निष्कर्ष निकाला जाना है, उन्हें पूरी तरह से स्थापित किया जाना चाहिये।
- इस प्रकार स्थापित तथ्य केवल अभियुक्त के अपराध की परिकल्पना के अनुरूप होने चाहिये, अर्थात, उन्हें किसी अन्य परिकल्पना पर व्याख्यायित नहीं किया जाना चाहिये सिवाय इसके कि अभियुक्त दोषी है।
- परिस्थितियाँ निर्णायक प्रकृति एवं प्रवृत्ति की होनी चाहिये।
- उन्हें सिद्ध की जाने वाली परिकल्पना को छोड़कर हर संभावित परिकल्पना को बाहर कर देना चाहिये।
- साक्ष्यों की एक शृंखला इतनी पूर्ण होनी चाहिये कि अभियुक्त की बेगुनाही के अनुरूप निष्कर्ष के लिये कोई उचित आधार न छूटे और यह दर्शाया जाए कि सभी मानवीय संभावनाओं में कार्य अभियुक्त द्वारा ही किया गया होगा।
- फैसला - न्यायमूर्ति रविकुमार द्वारा लिखित निर्णय पाँच सुनहरे और आखिरी बार देखे जाने के सिद्धांत पर निर्भर था। न्यायालय ने माना कि "हमारे विचार में, अभियोजन पक्ष द्वारा भरोसा की गई शेष परिस्थितियाँ और नीचे की अदालतों द्वारा साबित की गईं, अपीलकर्ताओं के अपराध की ओर इशारा नहीं करेंगी"। इसलिये खंडपीठ ने अपीलकर्ताओं को बरी करने का आदेश दिया।
प्रासंगिक प्रावधान -
भारतीय दंड संहिता 1860 - धारा 34 - सामान्य इरादे को आगे बढ़ाने में कई व्यक्तियों द्वारा किया गया कार्य। भारतीय दंड संहिता की धारा 34 के अनुसार यदि किसी आपराधिक कार्य को एक से अधिक व्यक्तियों द्वारा उन सभी के सामान्य आशय को अग्रसर बनाने में किया जाता है, ऐसे अपराध में सभी अपराधियों के इरादे एक सामान होते हैं, और वे अपने कार्य को अंजाम देने के लिये पहले से ही आपस में उचित योजना बना चुके हों, तो ऐसे व्यक्तियों में से हर एक व्यक्ति उस आपराधिक कार्य को करने के लिये सभी लोगों के साथ अपना दायित्व निभाता है, तो ऐसी स्थिति में अपराध में शामिल प्रत्येक व्यक्ति सजा का कुछ इस प्रकार हकदार होता है, मानो वह कार्य अकेले उसी व्यक्ति ने किया हो।
धारा 302 - हत्या के लिये सज़ा . - जो कोई भी हत्या करेगा उसे मौत या आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी और जुर्माना भी देना होगा।
भारत का संविधान, 1950
अनुच्छेद 136 - उच्चतम न्यायालय द्वारा अपील की विशेष अनुमति। - (1) इस अध्याय में किसी बात के होते हुए भी, उच्चतम न्यायालय अपने विवेकानुसार भारत के राज्यक्षेत्र में किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा किसी वाद या मामले में पारित किये गए या दिये गए किसी निर्णय, डिक्री, अवधारण, दंडादेश या आदेश की अपील के लिये विशेष इजाजत दे सकेगा।
(2) खंड (1) की कोई बात सशस्त्र बलों से संबंधित किसी विधि द्वारा या उसके अधीन गठित किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा पारित किये गए या दिये गए किसी निर्णय, अवधारण, दंडादेश या आदेश को लागू नहीं होगी।
मूल निर्णय
प्रेम किशोर एवं अन्य बनाम ब्रह्म प्रकाश और अन्य।
निर्णय/आदेश की तिथि – 29.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना- जे. सुधांशु धूलिया, जेजेबी पारदीवाला |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- वर्तमान मामला दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से दायर किया गया है।
- यहाँ प्रतिवादियों को 27.12.1987 को अपीलकर्ताओं के पिता द्वारा गाँव ढाका, किंग्सवे कैंप, दिल्ली में स्थित मकान नंबर 163 (पुराना नंबर 143) की संपत्ति के संबंध में किरायेदारों के रूप में शामिल किया गया था।
- अपीलकर्ताओं के अनुसार, किरायेदारी आवासीय उद्देश्यों के लिये थी। यह भी तर्क दिया गया कि किराया फरवरी, 1993 तक विधिवत भुगतान किया गया था।
- अपीलकर्ताओं के पिता ने प्रतिवादियों पर 27,800/- रुपये के बकाया किराए का दावा करते हुए दिनांक 04.03.1996 को एक डिमांड नोटिस भेजा। अपीलकर्ताओं के अनुसार, प्रतिवादियों को विधिवत नोटिस दिया गया था, लेकिन बकाया का भुगतान नहीं किया गया था।
- इसके बाद अपीलकर्ताओं के पिता ने बेदखली याचिका दायर की।
- किराया नियंत्रक ने आदेश पारित करते हुए कहा, “चूँकि मकान मालिक किरायेदार का रिश्ता विवाद में है और याचिकाकर्ता इस तथ्य को स्थापित करने के लिये कोई सबूत पेश करने में विफल रहा है, मेरी राय है कि आरई के लिये मामले को आगे तय करने का कोई मतलब नहीं है। इसलिये याचिका खारिज की जाती है क्योंकि याचिकाकर्ता अपना मामला साबित करने में विफल रहा है। फ़ाइल भेज दी जाए”।
- समी सिंह (मूल वादी) के निधन के बाद, हित में उत्तराधिकारी के रूप में दावा करने वाले अपीलकर्ताओं ने एक और बेदखली याचिका दायर की, जिसे पुनर्न्याय के सिद्धांतों द्वारा रोककर खारिज कर दिया गया था।
- इसके बाद अपील में अतिरिक्त किराया नियंत्रक ने ऐसी परिस्थितियों में यह विचार किया कि पुनर्निर्णय की दलील तर्कसंगत नहीं थी।
- उच्च न्यायालय ने अपील में सिविल पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार कर लिया और बेदखली याचिका की याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह पुनर्न्याय के सिद्धांतों से प्रभावित थी।
- शीर्ष न्यायालय ने कहा कि यहाँ विवादास्पद सवाल यह है कि क्या बेदखली की याचिका डिफ़ॉल्ट रूप से खारिज कर दी गई थी और यदि उसी कारण से कार्रवाई शुरू की जाती है तो कौन-सी बर्खास्तगी निश्चित रूप से एक नए मुकदमे को रोक देगी। जिन शब्दों को हमने ऊपर उद्धृत किया है, उनका मतलब निश्चित रूप से योग्यता या चूक के आधार पर बर्खास्तगी नहीं है।
- फैसला - शीर्ष न्यायालय ने अपील की अनुमति दी और माना कि दावा पूर्व न्यायिक द्वारा वर्जित नहीं है।
प्रासंगिक प्रावधान
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 - धारा 11 - न्यायिक न्याय। -कोई भी न्यायालय किसी ऐसे मुकदमे या मुद्दे की सुनवाई नहीं करेगा जिसमें विवादग्रस्त मामला सीधे और पर्याप्त रूप से उन्हीं पक्षों के बीच, या उन पक्षों के बीच, जिनके तहत वे या उनमें से कोई दावा करता है, उसी के तहत मुकदमा करते हुए पूर्व मुकदमे में सीधे और पर्याप्त रूप से विवादग्रस्त रहा हो। शीर्षक, किसी न्यायालय में ऐसे बाद के मुकदमे की सुनवाई करने के लिये सक्षम या वह मुकदमा जिसमें ऐसा मुद्दा बाद में उठाया गया है और ऐसे न्यायालय द्वारा सुना गया है और अंततः निर्णय लिया गया है।
स्पष्टीकरण I-अभिव्यक्ति "पूर्व वाद" एक ऐसे वाद को सूचित करेगा जिसका निर्णय संबंधित वाद से पहले किया जा चुका है, चाहे वह उससे पहले संस्थित किया गया हो या नहीं।
स्पष्टीकरण II—इस धारा के प्रयोजनों के लिये, किसी न्यायालय की क्षमता ऐसे न्यायालय के निर्णय के खिलाफ अपील के अधिकार के किसी भी प्रावधान के बावजूद निर्धारित की जाएगी।
स्पष्टीकरण III- ऊपर उल्लिखित मामला पूर्व मुकदमे में एक पक्ष द्वारा आरोपित किया गया होगा और दूसरे द्वारा, स्पष्ट रूप से या निहित रूप से, इनकार किया गया होगा या स्वीकार किया गया होगा।
स्पष्टीकरण IV - कोई भी मामला जिसे ऐसे पूर्व मुकदमे में बचाव या हमले का आधार बनाया जा सकता था और बनाया जाना चाहिये था, ऐसे मुकदमे में सीधे और महत्वपूर्ण रूप से विवादग्रस्त मामला माना जाएगा।
स्पष्टीकरण V- वादपत्र में दावा की गई कोई भी राहत, जो डिक्री द्वारा स्पष्ट रूप से प्रदान नहीं की गई है, इस धारा के प्रयोजनों के लिये, अस्वीकार कर मानी जाएगी।
स्पष्टीकरण VI -जहाँ व्यक्ति किसी सार्वजनिक अधिकार या निजी अधिकार के संबंध में अपने और दूसरों के लिये सामान्य रूप से दावा करते हुए वास्तविक रूप से मुकदमा करते हैं, ऐसे अधिकार में रुचि रखने वाले सभी व्यक्तियों को, इस धारा के प्रयोजनों के लिये, इस प्रकार मुकदमा करने वाले व्यक्तियों के तहत दावा करने के लिये समझा जाएगा।
स्पष्टीकरण VII -इस धारा के प्रावधान किसी डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही पर लागू होंगे और इस धारा में किसी भी मुकदमे, मुद्दे या पूर्व मुकदमे के संदर्भ को क्रमशः डिक्री के निष्पादन के लिये कार्यवाही के संदर्भ के रूप में माना जाएगा, प्रश्न उठना ऐसी कार्यवाही में और उस डिक्री के निष्पादन के लिये पूर्व कार्यवाही में।
स्पष्टीकरण VIII - कोई मुद्दा सीमित क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा सुना गया और अंतिम रूप से तय किया गया, जो ऐसे मुद्दे पर निर्णय लेने में सक्षम है, बाद के मुकदमे में पूर्व न्यायिक के रूप में कार्य करेगा, भले ही सीमित क्षेत्राधिकार वाला ऐसा न्यायालय ऐसे बाद वाले मुकदमे या उस मुकदमे की सुनवाई करने में सक्षम नहीं था जिसमें ऐसा मुद्दा बाद में उठाया गया है।
मूल निर्णय
प्रशांत कुमार साहू एवं अन्य बनाम चारुलता साहू एवं अन्य।
निर्णय/आदेश की तिथि- 29.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना- न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना और जे.बी. पारदीवाला |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- 1969 में श्री कुमार साहू का निधन हो गया और उनके तीन बच्चे, सुश्री चारुलता (बेटी), सुश्री शांतिलता (बेटी) और श्री प्रफुल्ल (पुत्र) जीवित रहे।
- 12.1980 को, प्रतिवादी नंबर 1 (सुश्री चारुलता) ने वादपत्र में निर्धारित संपत्तियों 'ए' से 'एफ' में 1/3 हिस्सेदारी का दावा करते हुए विभाजन के लिये मुकदमा दायर किया।
- ट्रायल कोर्ट ने 30.12.1986 को एक प्रारंभिक डिक्री पारित की और माना कि सुश्री चारुलता और सुश्री शांतिलता स्वर्गीय कुमार साहू की पैतृक संपत्तियों में 1/6 हिस्सा और स्व-अर्जित संपत्तियों में 1/3 हिस्सा पाने की हकदार हैं। न्यायालय ने माना कि श्री प्रफुल्ल पैतृक संपत्ति में 4/6 हिस्सा और स्व-अर्जित संपत्ति में 1/3 हिस्सा पाने के हकदार हैं।
- प्रफुल्ल ने निर्णय के विरुद्ध प्रथम अपील दायर की। बाद में, सुश्री शांतिलता के साथ एक समझौता विलेख में प्रवेश किया, जिन्होंने 50,000 रुपये के बदले में अपना हिस्सा छोड़ दिया, हालांकि विलेख पर सुश्री चारुलता द्वारा हस्ताक्षर नहीं किये गए थे।
- हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने सेटलमेंट डीड को अमान्य कर दिया।
- इसके बाद श्री प्रफुल्ल ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
- फैसला: संयुक्त संपत्ति के बंटवारे का मुकदमा, केवल कुछ पक्षों की सहमति से की गई डिक्री को कायम नहीं रखा जा सकता। जब किसी संयुक्त संपत्ति के संबंध में समझौता विलेख निष्पादित किया गया है, तो ऐसे निपटान में वैधता प्राप्त करने के लिये 'सभी' पक्षों की लिखित सहमति और हस्ताक्षर दर्ज होने चाहिये। बेंच ने ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच द्वारा किये गए शेयर आवंटन को बरकरार रखा और पार्टियों के शेयरों को फिर से निर्धारित किया। सेटलमेंट डीड को खंडपीठ द्वारा अमान्य कर दिया गया है और श्री प्रफुल्ल सुश्री शांतिलता के हिस्से का दावा नहीं कर सकते हैं।
प्रासंगिक प्रावधान -
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXII नियम 3, कई वादी या एकमात्र वादी में से एक की मृत्यु के मामले में प्रक्रिया।-
(1) जहाँ दो या दो से अधिक वादी में से एक की मृत्यु हो जाती है और मुकदमा करने का अधिकार जीवित वादी या अकेले वादी के पास नहीं रहता है या एकमात्र वादी या एकमात्र जीवित वादी की मृत्यु हो जाती है और मुकदमा चलाने का अधिकार जीवित रहता है, तो न्यायालय, उस संबंध में किये गए एक आवेदन के आधार पर, मृत वादी के कानूनी प्रतिनिधि को एक पक्ष बनाएगा और मुकदमे के साथ आगे बढ़ेगा।
(2) जहाँ कानून द्वारा सीमित समय के भीतर उप-नियम (1) के तहत कोई आवेदन नहीं किया जाता है, जहाँ तक मृत वादी का संबंध है, मुकदमा समाप्त हो जाएगा और प्रतिवादी के आवेदन पर, न्यायालय फैसला सुना सकता है। मुकदमे का बचाव करने में जो लागत उसने खर्च की होगी, वह मृत वादी की संपत्ति से वसूल की जाएगी।
मूल निर्णय
अफजल अली शा @ अबजल शौकत बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और अन्य
निर्णय/आदेश की तिथि - 17.03.2023 पीठ में न्यायाधीशों की संख्या - 2 न्यायाधीश पीठ की संरचना- न्यायमूर्ति सूर्यकांत और जे. के. माहेश्वरी |
मामले का संक्षिप्त ब्यौरा
- मृतक को कथित तौर पर 'कुछ अज्ञात बाहुबलियों और गुंडों' ने गर्दन में गोली मार दी थी जब वह एक राजनीतिक दल के कार्यालय में काम कर रहा था।
- हालाँकि उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया, लेकिन वहाँ पहुँचने पर उन्हें मृत घोषित कर दिया गया।
- अगले दिन, जाहर नामक एक व्यक्ति की शिकायत के बाद प्रतिवादी नंबर 2 के खिलाफ भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 120B के साथ पठित धारा 302 और शस्त्र अधिनियम, 1959 की धारा 25 और 27 के तहत एक प्राथमिकी दर्ज की गई।
- मुकदमे के लंबित रहने के दौरान, पश्चिम बंगाल सरकार के न्यायिक विभाग के कानूनी सलाहकार और पदेन सचिव ने राज्यपाल के एक आदेश द्वारा 2021 में एक अधिसूचना जारी कर लोक अभियोजक को दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 321 के तहत आवेदन करने और वापस लेने का निर्देश दिया। ट्रायल कोर्ट की सहमति के अधीन, प्रतिवादी संख्या 2 से 11 के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही। इस अधिसूचना को कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी।
- उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि इस बीच राज्य सरकार की अधिसूचना के अनुसार की गई कोई भी कार्रवाई, जिसमें मामला वापस लेने की अनुमति देने वाला आदेश भी शामिल है, रद्द की जा सकती है। अपील पर, डिवीजन बेंच ने आदेश को रद्द कर दिया और मामले को नए सिरे से निर्णय के लिये वापस भेज दिया
- इस बीच, मृतक के भाई ने आपराधिक मुकदमे को असम में स्थानांतरित करने की मांग करते हुए शीर्ष न्यायालय का रुख किया और दावा किया कि पश्चिम बंगाल में निष्पक्ष सुनवाई संभव नहीं होगी।
- मामले पर विचार करने से पहले उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 406 के तहत मामलों को स्थानांतरित करने की शक्ति के साथ-साथ याचिकाकर्ता के अधिकार क्षेत्र पर प्रतिवादियों द्वारा उठाई गई प्रारंभिक आपत्ति पर भी चर्चा की।
- न्यायालय ने लोकस के खिलाफ चुनौती को इस आधार पर खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता, मृतक का सगा भाई होने के नाते, निष्पक्ष सुनवाई में बेहद दिलचस्पी रखता है ताकि मृतक और उसके परिवार को न्याय मिल सके।
- फैसला: “इस न्यायालय ने इस तथ्य पर विचार करते हुए केवल असाधारण मामलों में तबादलों की अनुमति दी है कि तबादलों से राज्य न्यायपालिका और अभियोजन एजेंसी पर अनावश्यक आरोप लग सकते हैं। इस प्रकार, पिछले कुछ वर्षों में, इस न्यायालय ने कुछ दिशानिर्देश और स्थितियाँ निर्धारित की हैं जिनमें ऐसी शक्ति का उचित उपयोग किया जा सकता है।
प्रासंगिक प्रावधान:
दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 406— मामलों और अपीलों को अंतरित करने की उच्चतम न्यायालय की शक्ति —
(1) जब कभी उच्चतम न्यायालय को यह प्रतीत कराया जाता है कि न्याय के उद्देश्यों के लिये यह समीचीन है कि इस धारा के अधीन आदेश किया जाए, तब वह निदेश दे सकता है कि कोई विशिष्ट मामला या अपील एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को या एक उच्च न्यायालय के अधीनस्थ दण्ड न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ समान या वरिष्ठ अधिकारिता वाले दूसरे दण्ड न्यायालय को अंतरित कर दी जाए।
(2) उच्चतम न्यायालय भारत के महान्यायवादी या हितबद्ध पक्षकार के आवेदन पर ही इस धारा के अधीन कार्य कर सकता है और ऐसा प्रत्येक आवेदन समावेदन द्वारा किया जाएगा जो उस दशा में सिवाय, जबकि आवेदक भारत का महान्यायवादी या राज्य का महाधिवक्ता है, शपथपत्र या प्रतिज्ञान द्वारा समर्थित होगा।
(3) जहाँ इस धारा द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करने के लिये कोई आवेदन खारिज कर दिया जाता है वहाँ, यदि उच्चतम न्यायालय की यह राय है कि आवेदन तुच्छ या तंग करने वाला था तो वह आवेदक को आदेश दे सकता है कि वह एक हजार रुपए से अनधिक इतनी राशि, जितनी वह न्यायालय उस मामले की परिस्थितियों में समुचित समझे, प्रतिकर के तौर पर उस व्यक्ति को दे जिसने आवेदन का विरोध किया था।