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वाणिज्यिक विधि
भागीदारी फर्मों का विघटन
«30-Apr-2025
परिचय
भागीदारी फर्म का विघटन, फर्म बनाने वाले सभी भागीदारों के बीच विधिक संबंधों की समाप्ति को दर्शाता है। भागीदारी अधिनियम का अध्याय 6 इस प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाला व्यापक विधिक ढाँचा प्रदान करता है। विघटन, फर्म के केवल पुनर्गठन से भिन्न होता है, क्योंकि पुनर्गठन की स्थिति में कुछ भागीदार फर्म से पृथक् हो सकते हैं जबकि कारबार जारी रहता है; परंतु विघटन की स्थिति में भगीदारी संबंध पूर्णतः समाप्त हो जाता है, जिसके पश्चात् मामलों का समापन (Winding up of affairs) तथा परिसंपत्तियों का वितरण (Distribution of assets) किया जाता है।
विघटन के तरीके
- करार द्वारा विघटन
- धारा 40 में उपबंध है कि भागीदारी फर्म को सभी भागीदारों की सम्मति से या भागीदारों के बीच की संविदा के अनुसार विघटित किया जा सकता है। यह विघटन का सबसे सौहार्दपूर्ण तरीका है, जहाँ भागीदार आपसी सम्मति से अपने कारबार संबंध समाप्त करने के लिये सहमत होते हैं।
- वैवश्यक विघटन
- धारा 41 के अंतर्गत, किसी फर्म को निम्नलिखित परिस्थितियों में वैवश्यक रूप से विघटित किया जाता है:
- जब सभी भागीदारों को या एक के सिवाय अन्य सब भागीदारों को दिवालिया न्यायनिर्णीत कर दिया जाता हैं।
- जब विदि या परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण फर्म का कारबार विधिविरुद्ध हो जाता है।
- विधि में यह सुरक्षा प्रदान की गई है कि यदि कोई फर्म कई पृथक् कारबारों का संचालन करती है, तो किसी एक कारबार की अवैधता के कारण आवश्यक रूप से फर्म के वैध संचालन को समाप्त नहीं किया जाएगा।
- धारा 41 के अंतर्गत, किसी फर्म को निम्नलिखित परिस्थितियों में वैवश्यक रूप से विघटित किया जाता है:
- किन्हीं आकस्मिकताओं के घटित होने पर विघटन
- धारा 42 में कहा गया है कि, भागीदारों के बीच संविदा के अध्यधीन, एक फर्म का विघटन हो जाता है:
- उस नियत अवधि के अवसान से जिसके लिये फर्म का गठन किया गया था।
- विशिष्ट प्रोद्यमों या उपक्रमों का पूर्ण होना जिसके लिये फर्म का गठन किया गया था।
- किसी भी भागीदार की मृत्यु हो जाने से
- किसी भी भागीदार के दिवालिया न्यायनिर्णीत किये जाने से
- धारा 42 में कहा गया है कि, भागीदारों के बीच संविदा के अध्यधीन, एक फर्म का विघटन हो जाता है:
- सूचना द्वारा विघटन
- इच्छाधीन भागीदारी में, धारा 43 किसी भी भागीदार को अन्य सभी भागीदारों को लिखित सूचना देकर फर्म को विघटित करने की अनुमति देती है। विघटन सूचना में निर्दिष्ट तिथि से प्रभावी होता है या, यदि कोई तिथि नहीं बताई गई है, तो सूचना की संसूचित की गई तिथि से प्रभावी होता है।
- न्यायालय द्वारा विघटन
- धारा 44 न्यायालय को किसी भागीदार के अनुरोध पर कई आधारों पर फर्म को विघटित करने का अधिकार देती है:
- भागीदार के विकृतचित्त होने पर
- भागीदार की स्थायी असमर्थता पर
- भागीदार का आचरण कारबार के लिये प्रतिकूल है
- भागीदारी करारों का लगातार उल्लंघन
- भागीदार के संपूर्ण हित का पर-व्यक्ति को अंतरण
- कारबार हानि उठाए बिना नहीं चलाया जा सकता है
- कोई अन्य न्यायसंगत और साम्यापूर्ण कारण
- धारा 44 न्यायालय को किसी भागीदार के अनुरोध पर कई आधारों पर फर्म को विघटित करने का अधिकार देती है:
विघटन के परिणाम
- सतत दायित्त्व
- धारा 45 में कहा गया है कि विघटन के हो जाने पर भी, भागीदार उन कार्यों के लिये पर-व्यक्तियों के प्रति उत्तरदायी बने रहेंगे जो विघटन से पूर्व फर्म के कार्य होते, जब तक कि विघटन की लोक सूचना नहीं दी जाती। यह उन पर-व्यक्तियों की रक्षा करता है जो फर्म की विघटित स्थिति से अनभिज्ञ हो सकते हैं।
- समापन का अधिकार
- धारा 46 प्रत्येक भागीदार को यह अधिकार देती है कि वह फर्म की संपत्ति का उपयोग ऋणों और दायित्त्वों के संदाय में कर सकता है, तथा अधिशेष को भागीदारों के बीच उनके अधिकारों के अनुसार वितरित किया जा सकता है।
- सतत प्राधिकार
- धारा 47 विघटन के पश्चात् फर्म को आबद्ध करने के लिये भागीदारों के अधिकार को बढ़ाती है, किंतु केवल आवश्यक कामकाज के परिसमापन और अधूरे रह गए संव्यवहार को पूरा करने के लिये। यह अधिकार परिसमापन से असंबंधित नए दायित्त्वों को बनाने तक विस्तारित नहीं होता है।
लेखाओं का परिनिर्धारण
- संदाय का क्रम
- धारा 48 लेखाओं के परिसमापन के नियम स्थापित करती है:
- हानि का संदाय प्रथमत: लाभ से, तत्पश्चात् पूंजी से और अंत में भागीदारों द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाता है
- आस्तियों को सबसे पहले पर-व्यति के ऋणों पर लागू किया जाता है, फिर भागीदारों द्वारा दिये गए अग्रिमों पर, फिर भागीदारों द्वारा योगदान की गई पूंजी पर
- अवशिष्ट, यदि कुछ रहे, तो वह भागीदारों में उस अनुपात में, जिसमें वे लाभों का अंश पाने के हकदार थे, बांट दिया जाएगा
- धारा 48 लेखाओं के परिसमापन के नियम स्थापित करती है:
- ऋणों का उपचार
- धारा 49, फर्म ऋणों के लिये फर्म संपत्ति को तथा व्यक्तिगत ऋणों के लिये व्यक्तिगत संपत्ति को प्राथमिकता देती है, जिससे ऋण निपटान के लिये एक स्पष्ट पदानुक्रम निर्मित होता है।
- विशेष अधिकार और प्रतिबंध
- धारा 50 परिसमापन के दौरान फर्म के अवसरों से वैयक्तिक लाभ पर रोक लगाती है।
- धारा 51 में समयपूर्व विघटन पर प्रीमियम की वापसी का उपबंध है।
- धारा 52 उन मामलों में अनुतोष प्रदान करती है जब भागीदारी संविदाओं में कपट सम्मिलित हो।
- धारा 53 विघटन के पश्चात् फर्म के नाम या संपत्ति के उपयोग को प्रतिबंधित करती है।
- धारा 54 उचित गैर-प्रतिस्पर्धा करारों को वैध बनाती है।
- धारा 55 गुडविल मूल्यांकन और विक्रय पर अधिकारों को संबोधित करती है।
निष्कर्ष
भागीदारी फर्म का विघटन एक महत्त्वपूर्ण विधिक घटना है, जिसके व्यापक प्रभाव भागीदारों, ऋणदाताओं तथा पर-व्यतियों पर पड़ते हैं। भारतीय भागीदारी अधिनियम एक व्यापक विधिक ढाँचा प्रदान करता है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि विघटन की प्रक्रिया सुनियोजित एवं विधिसम्मत ढंग से संपन्न हो, जिसमें कारोबारी मामलों के परिसमापन (Winding up of affairs) तथा लेखाओं के निपटान की स्पष्ट प्रक्रिया सम्मिलित है। ये उपबंध सभी हितधारकों के हितों की रक्षा करते हुए, भागीदारों को कारबार संबंधों से बाहर निकलने हेतु लचीलापन भी प्रदान करते हैं।