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वाणिज्यिक विधि
फर्म का रजिस्ट्रीकरण
«22-Apr-2025
परिचय
भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 के अधीन फर्म का रजिस्ट्रीकरण एक औपचारिक प्रक्रिया है जिसके अधीन भागीदार अपनी फर्म के अस्तित्व और विवरण को फर्म के नामित रजिस्ट्रार के पास दर्ज कराते हैं। यद्यपि, भागीदारी की वैधता के लिये रजिस्ट्रीकरण अनिवार्य नहीं है, किंतु यह अनुबंध संबंधी अधिकारों और सुरक्षा को लागू करने के लिये तीसरे पक्षकार पर वाद करने के अधिकार सहित महत्त्वपूर्ण विधिक लाभ प्रदान करता है।
भारतीय भागीदारी अधिनियम, 1932 के अंतर्गत फर्म के रजिस्ट्रीकरण से संबंधित प्रमुख प्रावधान क्या हैं?
धारा 57: रजिस्ट्रारों की नियुक्ति
- राज्य सरकार को फर्मों के रजिस्ट्रार नियुक्त करने तथा उनके अधिकार क्षेत्र को परिभाषित करने का अधिकार है।
- सभी नियुक्त रजिस्ट्रार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 21 के अंतर्गत लोक सेवक माने जाएंगे।
धारा 58: रजिस्ट्रीकरण के लिये आवेदन
- किसी भी समय रजिस्ट्रार को विहित प्ररूप तथा विहित फीस जमा कराकर रजिस्ट्रीकरण कराया जा सकता है।
- आवेदन में फर्म का नाम, कारबार का स्थान या मुख्य स्थान, अन्य कारबार स्थान, प्रत्येक भागीदार के शामिल होने की तिथि, भागीदारों के नाम और स्थायी पते तथा फर्म की अवधि शामिल होनी चाहिये।
- विवरण पर सभी भागीदारों या उनके अधिकृत अभिकर्त्ताओं द्वारा हस्ताक्षर किये जाने चाहिये तथा उसका उचित सत्यापन किया जाना चाहिये।
- फर्म के नाम में उचित सम्मति के बिना सरकारी संरक्षण का संकेत देने वाले शब्द नहीं रखे जा सकते।
धारा 59: रजिस्ट्रीकरण प्रक्रिया
- इस बात से संतुष्ट होने पर कि धारा 58 की आवश्यकताएँ पूरी कर दी गई हैं, रजिस्ट्रार फर्म के रजिस्टर में विवरण दर्ज करेगा और विवरण दाखिल करेगा।
धारा 60: परिवर्तनों का अभिलेख
- फर्म के नाम या कारबार के मुख्य स्थान में परिवर्तन को विहित फीस के साथ परिवर्तन को निर्दिष्ट करते हुए एक विवरण प्रस्तुत करके अभिलिखित किया जा सकता है।
- अनुपालन से संतुष्ट होने पर रजिस्ट्रार रजिस्टर प्रविष्टि में तदनुसार संशोधन करेगा।
धारा 61: शाखा में परिवर्तनों की टिप्पणी करना
- जब कोई रजिस्ट्रीकृत फर्म किसी स्थान पर अपना कारबार बंद कर देती है या किसी नए स्थान (मुख्य स्थान नहीं) पर चलाना आरंभ करती है, तो भागीदार या अभिकर्त्ता रजिस्ट्रार को सूचित कर सकते हैं, जो रजिस्टर में ऐसे परिवर्तनों को टिप्पण कर लेगा।
धारा 62: भागीदारों के विवरण में परिवर्तन
- जब भागीदार अपने नाम या स्थायी पते में परिवर्तन करते हैं, तो रजिस्ट्रार को उस परिवर्तन की प्रज्ञापना भेजी जा सकती है, जो ऐसे परिवर्तनों को अभिलिखित करेगा।
धारा 63: गठन में परिवर्तन और प्रत्याहरण का अभिलेखन
- फर्म के गठन या विघटन में किसी भी तब्दीली की सूचना अंदर जाने वाले, बने रहने वाले या बाहर जाने वाले भागीदारों द्वारा रजिस्ट्रार को दी जानी चाहिये, तथा ऐसे परिवर्तन की तारीख भी बतानी होगी।
- इसी प्रकार के उपबंध तब भी लागू होते हैं जब भागीदारी के फायदों में सम्मिलित कोई अप्राप्तवय, प्राप्तवय हो जाता है और ब्गादिदार बनने या न बनने का निर्वाचन करता है।
धारा 64: भूलों का परिशोधन
- रजिस्ट्रार के पास भूलों को सुधारने का अधिकार है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि रजिस्टर प्रविष्टियाँ फाइल किये गए दस्तावेज़ों के अनुरूप हों। संबंधित पक्षकारों द्वारा आवेदन करने पर भी सुधार किया जा सकता है।
धारा 65: न्यायालय के आदेश से रजिस्टर का संशोधन
- रजिस्ट्रीकृत फर्मों से संबंधित मामलों पर विनिश्चय करने वाला न्यायालय रजिस्ट्रार को रजिस्टर प्रविष्टियों में परिणामी संशोधन करने का निदेश दे सकती हैं।
धारा 66: रजिस्टर का निरीक्षण
- विहित फीस का संदाय करने पर फर्मों का रजिस्टर लोक निरीक्षण के लिये खुला है। सभी फाइल किये गए कथन, नोटिस और सूचनाएं निरीक्षण के लिये उपलब्ध हैं।
धारा 67: प्रतियों का दिया जाना
- रजिस्ट्रार आवेदन और विहित फीस के संदाय पर रजिस्टर प्रविष्टियों की प्रमाणित प्रतियाँ उपलब्ध कराएगा।
धारा 68: साक्ष्य के मूल्य
- रजिस्ट्रीकृत कथन, प्रज्ञापना या सूचना उसमें कथित किसी भी तथ्यों के संबंध में हस्ताक्षरकर्त्ताओं के विरुद्ध निश्चायक सबूत के रूप में काम करते हैं। रजिस्टर प्रविष्टियों की प्रमाणित प्रतियाँ रजिस्ट्रीकरण और उनकी विषय-वस्तु के सबूत के रूप में प्रस्तुत की जा सकती हैं।
धारा 69: रजिस्ट्री न कराने का प्रभाव
- रजिस्ट्री न कराने वाली फर्मों को महत्त्वपूर्ण सीमाओं का सामना करना पड़ता है:
- भागीदार संविदा से उद्भूत या इस अधिनियम द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रवृत्त करने के लिये फर्म या अन्य भागीदारों पर वाद नहीं कर सकते।
- फर्म संविदा से उद्भूत अधिकारों को प्रवृत्त करने के लिये पर-व्यक्ति पर वाद नहीं कर सकती।
- ये प्रतिबंध मुजरा या इसी तरह की कार्यवाही के दावों पर लागू होते हैं, किंतु विघटन के लिये वाद करने के अधिकार, विघटित फर्मों के लेखा या विघटित फर्म संपत्ति की वसूली को प्रभावित नहीं करते हैं।
धारा 70: मिथ्या विशिष्टियां देने के लिये दण्ड
- रजिस्ट्रीकरण दस्तावेज़ों में मिथ्या, अपूर्ण या असत्यापित जानकारी देने वाले व्यक्ति को तीन मास तक का कारावास या जुर्माना या दोनों से दण्डित किया जा सकता है।
निष्कर्ष
रजिस्ट्रीकरण प्रक्रिया भागीदारी की जानकारी का लोक प्रकटीकरण सुनिश्चित करती है, साथ ही फर्म को विधिक मान्यता भी प्रदान करती है। यद्यपि, रजिस्ट्रीकरण न होने से भागीदारी का अस्तित्व अमान्य नहीं होता, किंतु यह विधिक उपचारों के माध्यम से संविदात्मक अधिकारों को प्रवृत्त करने की फर्म की क्षमता को काफी हद तक सीमित कर देता है। रजिस्ट्रीकरण भागीदारों और फर्म के साथ कारबार करने वालों के लिये विनियामक और सुरक्षात्मक दोनों कार्य करता है।