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सिविल कानून
प्रतिपादन
« »17-Jun-2024
परिचय:
प्रतिपादन मुकदमेबाजी प्रक्रिया की नींव होता है, जो संबंधित पक्षों के दावों एवं बचावों को रेखांकित करके विचारण के लिये मंच तैयार करता है। प्रतिपादन का प्राथमिक उद्देश्य विवाद से संबंधित मुद्दों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना है, जिससे न्यायालय प्रभावी रूप से निर्णय ले सके।
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) का आदेश VI विशेष रूप से प्रतिपादन से संबंधित है, जो इसकी संरचना, विषय-वस्तु एवं संशोधन के लिये नियम स्थापित करता है।
परिभाषा: आदेश VI का नियम 1
- शब्द "प्रतिपादन" का अर्थ वादपत्र या लिखित कथन होगा।
प्रतिपादन के मूल नियम: आदेश VI का नियम 2
- CPC के आदेश VI नियम 2 में प्रतिपादन के संबंध में कुछ सामान्य सिद्धांत निर्धारित किये गए हैं, जो इस प्रकार हैं:
- प्रतिपादन में तथ्य बताए जाने चाहिये, विधि नहीं।
- बताए गए तथ्य भौतिक तथ्य होने चाहिये, यानी फैक्टा प्रोबांडा
- बतावों में साक्ष्य नहीं बताए जाने चाहिये, यानी फैक्टा प्रोबांटिया
- तथ्यों को संक्षिप्त रूप में बताया जाना चाहिये।
आदेश VI में निहित प्रतिपादन के अन्य नियम
प्रतिपादन के प्रकार: नियम 3
- नियम 3 में कहा गया है कि CPC की पहली अनुसूची के परिशिष्ट A में दिये गए फॉर्म का उपयोग किया जाना चाहिये, जहाँ वे लागू हों।
- जहाँ वे लागू न हों, वहाँ समान प्रकृति के फॉर्म का उपयोग किया जाना चाहिये।
जहाँ आवश्यक हो वहाँ विवरण दिया जाए: नियम 4
- जहाँ कहीं भी दुर्व्यपदेशन, कपट, विश्वासभंग, स्वज्ञान में चूक या अनुचित प्रभाव डालने का आरोप लगाया गया हो, वहाँ तिथियों एवं मदों के साथ विवरण दिया जाना चाहिये।
पूर्वगामी शर्त: नियम 6
- किसी पूर्व शर्त के निष्पादन का तर्क देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह प्रतिपादन में निहित है।
- किसी पूर्व शर्त के गैर-निष्पादन का तर्क विशेष रूप से तथा स्पष्ट रूप से दिया जाना चाहिये।
प्रस्थान: नियम 7
- सामान्यतः संशोधन के अतिरिक्त प्रतिपादन से विचलन स्वीकार्य नहीं है।
- कोई भी पक्षकार दावे के किसी आधार से विमुख नही हो सकता या अपने पिछले प्रतिपादन से असंगत तथ्य का कोई आरोप नहीं लगा सकता।
संविदा का अस्वीकरण: नियम 8
- विपक्षी पक्ष द्वारा किसी संविदा को मात्र अस्वीकार करने को (संविदा के तथ्य तथा ऐसे संविदा की वैधता) वैधता को अस्वीकार करने के रूप में ही समझा जाएगा।
दस्तावेज़ का प्रभाव: नियम 9
- दस्तावेजों को विस्तार से प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है, जब तक कि उनमें लिखे शब्द महत्त्वपूर्ण न हों।
द्वेष, ज्ञान आदि: नियम 10
- जहाँ कहीं किसी व्यक्ति के मन में द्वेष, कपटपूर्ण आशय, ज्ञान या अन्य स्थिति का आरोप लगाना महत्त्वपूर्ण हो, वहाँ उन परिस्थितियों को बताए बिना, जिनसे उसका अनुमान लगाया जा सके, उसे तथ्य के रूप में आरोपित करना पर्याप्त होगा।
सूचना: नियम 11
- जब भी किसी व्यक्ति को नोटिस देना आवश्यक हो, तो दलीलों में केवल नोटिस देने के विषय में ही कहा जाना चाहिये, बिना यह बताए कि नोटिस देने का स्वरूप या परिस्थितियाँ क्या हैं, जब तक कि वे महत्त्वपूर्ण न हों।
निहित संविदा या संबंध: नियम 12
- ऐसे मामलों में जहाँ संविदा या संबंध पत्रों या वार्तालापों की एक शृंखला से निहित होता है, प्रतिपादन में ऐसे पत्रों या वार्तालापों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाना चाहिये।
विधि की धारणा: नियम 13
- ऐसे तथ्य जिसमें विधि, किसी पक्ष के हित में उपधारणा करती है या जिनके विषय में सिद्ध करने का भार दूसरे पक्ष पर है, उस पर बहस करने की आवश्यकता नहीं है।
हस्ताक्षर करने का प्रतिपादन: नियम 14
- प्रत्येक याचिका पर पक्षकार एवं उसके अधिवक्ता द्वारा हस्ताक्षर किये जाने चाहिये।
प्रतिवादन का सत्यापन: नियम 15
- प्रत्येक प्रतिपादन को पक्षकार या पक्षों में से किसी एक द्वारा या मामले के तथ्यों से परिचित व्यक्ति द्वारा शपथपत्र पर सत्यापित किया जाना चाहिये।
प्रतिपादन को खारिज करना: आदेश VI का नियम 16
- कार्यवाही के किसी भी चरण में न्यायालय निम्नलिखित मामलों में दलीलों को खारिज करने का आदेश दे सकता है:
- जहाँ ऐसा प्रतिपादन अनावश्यक, निंदनीय, महत्त्वहीन या परेशान करने वाला हो
- जहाँ ऐसा प्रतिपादन वाद के निष्पक्ष विचारण को प्रभावित या विलंबित करने वाला हो
- जहाँ ऐसा प्रतिपादन अन्यथा न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग हो
प्रतिपादन में संशोधन: आदेश VI का नियम 17-18
- न्यायालय कार्यवाही के किसी भी चरण में किसी भी पक्ष को, पक्षों के मध्य विवाद के वास्तविक प्रश्नों को निर्धारित करने के उद्देश्य से अपने प्रतिपादन को बदलने या संशोधित करने की अनुमति दे सकता है।
- विचारण प्रारंभ होने के बाद संशोधन के लिये कोई आवेदन स्वीकार नहीं किया जाएगा।
- यदि कोई पक्षकार जिसने संशोधन की अनुमति के लिये आदेश प्राप्त कर लिया है, न्यायालय द्वारा दिये गए समय के अंदर तद्नुसार संशोधन नहीं करता है, तो उसे ऐसे समय की समाप्ति के बाद संशोधन करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
- जहाँ आदेश में कोई समय निर्दिष्ट नहीं किया गया है, वहाँ पक्षकार को चौदह दिनों के भीतर अपने प्रतिपादन में संशोधन करना होगा।
निर्णयज विधियाँ:
- साथी विजय कुमार बनाम तोता सिंह (2006):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि पक्षकारों ने अपने कथनों या तर्कपूर्ण मुद्दों को उठाकर प्रतिपादन के नियमों का उल्लंघन नहीं किया है, तो न्यायालय प्रतिपादन को खारिज करने का आदेश नहीं देगा।
- किसनदास रूपचंद एवं अन्य बनाम राचप्पा विठोबा शिलवंत एवं अन्य (1909):
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि, सभी संशोधनों को अनुमति दी जानी चाहिये जो निम्नलिखित शर्तों को पूरा करते हों:
- दूसरे पक्ष के साथ अन्याय न करना।
- पक्षों के मध्य विवाद में वास्तविक प्रश्नों को निर्धारित करने के उद्देश्य से आवश्यक होना।
- गंगा बाई बनाम विजय कुमार (1974):
- उच्चतम न्यायालय ने कहा कि परिसीमा विधि के बावजूद, संशोधन की अनुमति देने की शक्ति निस्संदेह व्यापक है तथा न्याय के हित में किसी भी स्तर पर इसका उचित प्रयोग किया जा सकता है।
निष्कर्ष:
CPC का आदेश VI सिविल मुकदमेबाजी में प्रतिपादन के लिये एक व्यापक रूपरेखा तैयार करता है। स्पष्टता, संक्षिप्तता एवं विशिष्टता को अनिवार्य करके, इसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना, निष्पक्षता सुनिश्चित करना तथा न्याय के प्रभावी प्रशासन को सुविधाजनक बनाना है। इन नियमों को समझना और उनका पालन करना वादियों एवं विधिक व्यवसायियों के लिये अपने मामलों को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने एवं प्रक्रियात्मक कठिनाई से बचने के लिये महत्त्वपूर्ण है।