होम / भारतीय साक्ष्य अधिनियम (2023) एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम (1872)
आपराधिक कानून
BSA के अंतर्गत सिद्ध न करने योग्य तथ्य
« »29-Aug-2024
परिचय:
सामान्य नियम यह है कि किसी वाद के पक्षकार को न्यायालय के समक्ष मौखिक रूप से अथवा भौतिक या इलेक्ट्रॉनिक रूप में दस्तावेज़ प्रस्तुत करके अपना पक्ष सिद्ध करना आवश्यक है।
- इस नियम का अपवाद भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 (BSA) के अध्याय III के अधीन दिया गया है, जहाँ पक्षों को अपने तथ्यों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है, ऐसे तथ्यों को सत्य माना जाता है।
- तथ्य: BSA की धारा 2 (f) में कहा गया है कि:
- तथ्य का अर्थ है और इसमें शामिल है—
- कोई भी चीज़, चीज़ों की स्थिति, या चीज़ों का संबंध, जो इंद्रियों द्वारा अनुभव किये जाने योग्य हो।
- कोई भी मानसिक स्थिति जिसके प्रति कोई व्यक्ति सचेत हो।
- तथ्य का अर्थ है और इसमें शामिल है—
तथ्य जिन्हें सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है:
- BSA की धारा 51 से 53 तक उन प्रावधानों को बताया गया है जहाँ अध्याय III के अधीन तथ्यों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है।
न्यायिक रूप से ध्यान देने योग्य तथ्यों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है:
- BSA की धारा 51 में कहा गया है कि कुछ तथ्य ऐसे होते हैं जिन पर न्यायिक रूप से ध्यान दिया जा सकता है और उन्हें सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है।
- न्यायिक रूप से ध्यान देने योग्य शब्द का अर्थ है, किसी तथ्य के अस्तित्व और सत्यता के बिना न्यायालय द्वारा उसकी स्वीकृति।
- यह माना जाता है कि ये तथ्य न्यायाधीश के संज्ञान में हैं और इन्हें सिद्ध करने से न्यायाधीश की योग्यता क्षीण हो जाएगी।
- इसे BSA की धारा 52 से और अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।
वे तथ्य जिन पर न्यायालय न्यायिक संज्ञान लेगा (BSA की धारा 52):
- न्यायालय निम्नलिखित तथ्यों का न्यायिक संज्ञान लेगा, अर्थात्:
- भारत के राज्यक्षेत्र में लागू सभी विधान, जिनमें क्षेत्राधिकार से बाहर भी प्रभाव डालने वाले विधान शामिल हैं।
- भारत द्वारा किसी देश या देशों के साथ अंतर्राष्ट्रीय संधि, समझौता या अभिसमय, अथवा अंतर्राष्ट्रीय संघों या अन्य निकायों में भारत द्वारा लिये गए निर्णय।
- भारत की संविधान सभा, भारत की संसद एवं राज्य विधानमंडलों की कार्यवाही का क्रम।
- सभी न्यायालयों और अधिकरणों की मुहरें।
- नौवाहनविभाग और समुद्री क्षेत्राधिकार के न्यायालयों एवं नोटरी पब्लिक की मुहरें, तथा वे सभी मुहरें जिनका उपयोग करने के लिये कोई व्यक्ति संविधान द्वारा, या संसद या राज्य विधानमंडलों के अधिनियम द्वारा, या भारत में विधि का बल रखने वाले विनियमों द्वारा प्राधिकृत है।
- किसी राज्य में किसी सार्वजनिक पद पर तत्समय आसीन व्यक्तियों का पदग्रहण, नाम, उपाधि, कार्य तथा हस्ताक्षर, यदि ऐसे पद पर उनकी नियुक्ति का तथ्य किसी राजपत्र में अधिसूचित किया गया हो।
- भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त प्रत्येक देश या संप्रभुता का अस्तित्व, उपाधि एवं राष्ट्रीय ध्वज।
- समय के विभाजन, विश्व के भौगोलिक विभाजन, तथा सरकारी राजपत्र में अधिसूचित सार्वजनिक त्योहार, व्रत और छुट्टियाँ।
- भारत का राज्यक्षेत्र
- भारत सरकार और किसी अन्य देश या व्यक्तियों के समूह के बीच शत्रुता का प्रारंभ, जारी रहना और समाप्ति।
- न्यायालय के सदस्यों एवं अधिकारियों तथा उनके उप और अधीनस्थ अधिकारियों और सहायकों के नाम तथा इसकी प्रक्रिया के निष्पादन में कार्यरत सभी अधिकारियों के नाम, तथा अधिवक्ताओं और अन्य व्यक्तियों के नाम जो इसके समक्ष उपस्थित होने या कार्य करने के लिये विधि द्वारा प्राधिकृत हैं।
- भूमि या समुद्र पर मार्ग का नियम।
- उपधारा (1) में निर्दिष्ट मामलों में तथा लोक इतिहास, साहित्य, विज्ञान या कला के सभी मामलों में न्यायालय अपनी सहायता के लिये उपयुक्त संदर्भ पुस्तकों या दस्तावेज़ों की सहायता ले सकेगा और यदि न्यायालय से किसी व्यक्ति द्वारा किसी तथ्य का न्यायिक संज्ञान लेने के लिये कहा जाता है तो वह ऐसा करने से तब तक प्रतिषेध कर सकेगा जब तक कि ऐसा व्यक्ति कोई ऐसी पुस्तक या दस्तावेज़ प्रस्तुत न कर दे जिसे वह ऐसा करने के लिये उसे समर्थ बनाने के लिये आवश्यक समझे।
स्वीकार किये गए तथ्यों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है (BSA की धारा 53)
- किसी भी कार्यवाही में कोई तथ्य सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है
- पक्षकार या उनके अभिकर्त्ता सुनवाई स्वीकार करने के लिये सहमत होते हैं।
- सुनवाई से पहले, वे अपने हस्ताक्षर से लिखित रूप में स्वीकारोक्ति देने के लिये सहमत होते हैं।
- उस समय लागू किसी भी अभिवचन नियम के अनुसार उन्हें उनके अभिवचनों द्वारा स्वीकार कर लिया गया माना जाता है।
- परंतु न्यायालय अपने विवेकानुसार, स्वीकृत तथ्यों को ऐसी स्वीकृतियों के अतिरिक्त किसी अन्य तरीके से सिद्ध करने की अपेक्षा कर सकेगा।
निर्णयज विधियाँ:
- ओंकार नाथ एवं अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन (1977): इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि तथ्यों की वह सूची, जिसका न्यायालय धारा 56 के अंतर्गत न्यायिक संज्ञान लेगा, जिसे धारा 57 के साथ पढ़ा जाए, संपूर्ण नहीं है और इसलिये, यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करेगा तथा तथा यह प्रस्तुत मामलों के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है।
- एस. नागराजन बनाम वसंत कुमार एवं अन्य (1987): इस मामले में उच्च न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 57 के अनुसार परिस्थितियों का न्यायिक संज्ञान लेते हुए अभियुक्त को दोषी ठहराया।
- सुभाष मारुति अवसारे बनाम महाराष्ट्र राज्य (2006): इस मामले में पोस्टमार्टम किया गया और मृत्यु का कारण 7 बाहरी चोटों और 5 आंतरिक चोटों को माना गया। इस मामले में न्यायालय ने तथ्यों और परिस्थितियों का न्यायिक संज्ञान लिया तथा आरोपी याचिकाकर्त्ता को दोषी ठहराया।
निष्कर्ष:
न्यायालयों द्वारा ध्यान दिये जाने वाले तथ्यों को वाद के पक्षकारों द्वारा सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। दोषसिद्धि के उद्देश्य के लिये, प्रावधान का सार पर्याप्त नहीं है, सटीक शब्दों का उच्चारण किया जाना चाहिये। जब तथ्यों को पक्षकारों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है तो उन्हें सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती है, ऐसी स्वीकारोक्ति में लिखित स्वीकारोक्ति भी शामिल है।