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सांविधानिक विधि
मौलिक अधिकार
« »18-Jul-2025
परिभाषा और प्रकृति
मौलिक अधिकार, भारतीय संविधान, 1950 (COI) द्वारा प्रदत्त मूलभूत मानवाधिकार हैं जो व्यक्तिगत गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा के लिये हैं। ये अधिकार संविधान के भाग 3 (अनुच्छेद 12-35) में निहित हैं और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव हैं। इन्हें "मौलिक" इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिये आवश्यक हैं और किसी भी सरकार द्वारा साधारण विधायन के माध्यम से इन्हें छीना या समाप्त नहीं किया जा सकता।
सांविधानिक संरक्षण और प्रवर्तन
- मौलिक अधिकार न्यायोचित हैं, अर्थात् उन्हें न्यायालयों के माध्यम से लागू किया जा सकता है। अनुच्छेद 32, जिसे "संविधान का हृदय" कहा जाता है, नागरिकों को अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में सीधे उच्चतम न्यायालय जाने का अधिकार देता है।
- उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों को इन अधिकारों की रक्षा के लिये बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, उत्प्रेषण और अधिकार पृच्छा जैसे रिट (विधिक आदेश) जारी करने की शक्ति प्राप्त है।
- यह न्यायिक संरक्षण सुनिश्चित करता है कि कोई भी प्राधिकारी - चाहे सरकार, विधायिका या कार्यपालिका - विधिक परिणामों का सामना किये बिना इन अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकता।
मौलिक अधिकारों का दायरा और श्रेणियाँ
- मौलिक अधिकारों में छह मुख्य श्रेणियाँ शामिल हैं जो मानव जीवन और गरिमा के विभिन्न पहलुओं की रक्षा करती हैं।
- समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) विधि के समक्ष समान व्यवहार सुनिश्चित करता है और भेदभाव का प्रतिषेध करता है।
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) भाषण, आवागमन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसी बुनियादी स्वतंत्रताओं की रक्षा करता है।
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) मानव के दुर्व्यापार और बलात् श्रम को रोकता है।
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28) धार्मिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता को प्रत्याभूत करता है।
- संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30) अल्पसंख्यक वर्गों के हितों और शैक्षिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं।
- अंततः, सांविधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) अन्य सभी अधिकारों को लागू करने का तंत्र प्रदान करता है।
मौलिक अधिकारों पर परिसीमाएँ और युक्तियुक्त प्रतिबंध
- यद्यपि मौलिक अधिकार सर्वोच्च हैं, वे निरपेक्ष नहीं हैं तथा लोक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य और राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में उन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं।
- संविधान राज्य को यह अधिकार देता है कि जब समग्र समाज के कल्याण के लिये आवश्यक हो तो वह इन अधिकारों पर परिसीमाएँ अधिरोपित कर सकता है।
- उदाहरण के लिये, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में दूसरों को बदनाम करने या हिंसा भड़काने का अधिकार सम्मिलित नहीं है।
- ये प्रतिबंध "युक्तियुक्त" और आनुपातिक होने चाहिये - वे अधिकार के सार को पूरी तरह नष्ट नहीं कर सकते।
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच संतुलन न्यायिक पुनर्विलोकन के माध्यम से बनाए रखा जाता है, जहाँ न्यायालय यह निर्धारित करता हैं कि मौलिक अधिकारों पर कोई प्रतिबंध उचित और सांविधानिक है या नहीं।
मौलिक अधिकारों से संबंधित महत्त्वपूर्ण न्यायिक निर्णय
- मेनका गाँधी बनाम भारत संघ (1978):
- उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत "जीवन के अधिकार" की व्याख्या का विस्तार करते हुए 'कानून द्वारा प्रक्रिया' की अवधारणा को सम्मिलित किया। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने वाली कोई भी प्रक्रिया न्यायसंगत, उचित और तर्कसंगत होनी चाहिये।
- मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985):
- न्यायालय ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को अपने पूर्व पति से भरण-पोषण का अधिकार प्रदान किया, जिससे धार्मिक निजी विधियों की वैधता को चुनौती मिली। इस निर्णय ने समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) पर राष्ट्रीय विमर्श को गति प्रदान की।
- इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992):
- उच्चतम न्यायालय ने अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को आरक्षण की संवैधानिकता को स्वीकार किया, साथ ही 'क्रीमी लेयर' की अवधारणा प्रस्तुत की। न्यायालय ने आरक्षण की सीमा 50% निर्धारित की और इसे केवल प्रारंभिक नियुक्तियों तक सीमित किया, पदोन्नति पर लागू नहीं माना।
- विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997):
- कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न को रोकने के लिये विधि के अभाव में दिशानिर्देश स्थापित किये गए। न्यायालय ने CEDAW जैसे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का सहारा लिया और भारत में लैंगिक उत्पीड़न की पहली आधिकारिक परिभाषा प्रदान की।
- अरुणा रामचंद्र शानबाग बनाम भारत संघ (2011):
- निष्क्रिय इच्छामृत्यु (Passive euthanasia) को सांविधानिक मान्यता प्राप्त है, जो गंभीर रूप से बीमार रोगियों के लिये जीवन रक्षक उपचार को वापस लेने की अनुमति देता है। बाद में 2018 में, 'लिविंग विल' की अवधारणा को भी उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।
- न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017):
- अनुच्छेद 21 के अधीन निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया। न्यायालय ने निजता के अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाली किसी भी राज्य कार्रवाई के लिये आनुपातिकता परीक्षण (proportionality test) निर्धारित किया और आधार योजना की वैधता को बरकरार रखा।
- नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018):
- न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 के कुछ हिस्सों को रद्द करते हुए समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया। निर्णय में कहा गया कि सहमति से वयस्कों के बीच समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध घोषित करना, निजता, समता और जीवन के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
- मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) और राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (DPSP) के बीच संघर्ष
- मौलिक अधिकारों (FR) और राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (DPSP) के बीच टकराव तब उत्पन्न होता है जब राज्य ऐसे राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों को लागू करने का प्रयास करता है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकते हैं। यह व्यक्तिगत अधिकारों और राज्य के नीतिगत उद्देश्यों के बीच एक व्यापक टकराव का प्रतिनिधित्व करता है।
- यद्यपि राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (DPSP) विधि द्वारा लागू नहीं होते और राज्य के लिये निदेश के रूप में कार्य करते हैं, किंतु इनके कार्यान्वयन से कभी-कभी समता (अनुच्छेद 14) या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 19) जैसे मौलिक अधिकार प्रतिबंधित हो सकते हैं। उच्चतम न्यायालय ने राज्य के निदेशों की तुलना में व्यक्तिगत अधिकारों को निरंतर बरकरार रखा है, और यह स्थापित किया है कि मौलिक अधिकारों को सामान्यतः प्राथमिकता दी जाती है।
- चंपकम दोराईराजन बनाम मद्रास राज्य (1952), केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973), और मिनर्वा मिल्स लिमिटेड बनाम भारत संघ (1980) जैसे ऐतिहासिक मामलों के माध्यम से, न्यायालयों ने एक सूक्ष्म दृष्टिकोण विकसित किया है। वर्तमान स्थिति अनुच्छेद 39(ख) और 39(ग) के अधीन राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (DPSP) को अनुच्छेद 14 और 19 पर वरीयता प्रदान करती है, जबकि अन्य राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (DPSP) पर मौलिक अधिकारों की सर्वोच्चता को बनाए रखती है।
- यह संघर्ष भारत के संविधान में व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं की रक्षा और साथ ही साथ राज्य को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के लक्ष्यों की पूर्ति हेतु सक्षम बनाने के सांविधानिक संतुलन को परिलक्षित करता है।