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आपराधिक कानून
केरल राज्य बनाम के. अजित (2021)
«11-Sep-2025
परिचय
यह मामला इस मूलभूत प्रश्न पर केंद्रित है कि क्या विधान सभा के सदस्य (MLAs) विधायी कार्यवाही के दौरान लोक संपत्ति को नष्ट करने से संबंधित कृत्यों के लिये भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 194 के अधीन आपराधिक अभियोजन से प्रतिरक्षा का दावा कर सकते हैं।
- मुख्य विवाद्यक आपराधिक विधि के अधीन विधायी विशेषाधिकारों और जवाबदेही के बीच संतुलन का था, विशेष रूप से यह जांचना कि न्यायालय आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 321 के अधीन आपराधिक मामलों को वापस लेने के अभियोजक के अनुरोध को कब अस्वीकार कर सकती हैं।
तथ्य
- 13 मार्च 2015 को केरल विधानसभा में केरल के वित्त मंत्री द्वारा बजट प्रस्तुत किये जाने के दौरान विपक्षी पार्टी के छह विधायकों (प्रतिवादियों) ने अध्यक्ष के मंच पर चढ़कर हंगामा खड़ा कर दिया।
- विधायकों ने निदेशक की कुर्सी, कंप्यूटर, माइक्रोफोन, इलेक्ट्रॉनिक पैनल और आपातकालीन लैंप सहित विभिन्न वस्तुओं को नुकसान पहुँचाया, जिससे अनुमानित 2,20,093 रुपए का नुकसान हुआ।
- प्रतिवादियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 34 (सामान्य आशय), भारतीय दण्ड संहिता की धारा 447 (आपराधिक अतिचार) और 427 (क्षति कारित करने वाली रिष्टि) तथा लोक संपत्ति क्षति निवारण अधिनियम, 1984 की धारा 3(1) के अधीन आपराधिक मामला दर्ज किया गया।
- अंतिम रिपोर्ट (आरोप पत्र) दायर की गई और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM), एर्नाकुलम द्वारा संज्ञान लिया गया।
- 21 जुलाई 2018 को, लोक अभियोजक ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के अधीन एक याचिका दायर की, जिसमें सभी प्रतिवादियों के विरुद्ध मामला वापस लेने का अनुरोध किया गया, जिसमें दावा किया गया कि उनके कार्यों को संविधान के अनुच्छेद 194 (3) के अधीन उन्मुक्ति और विशेषाधिकारों द्वारा संरक्षित किया गया था।
- मामला तिरुवनंतपुरम मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) के न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया, जिसने 22 सितंबर 2020 के आदेश द्वारा अभियोजक के मामले को वापस लेने के आवेदन को मंजूरी देने से इंकार कर दिया।
- केरल राज्य ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM) की अस्वीकृति पर पुनर्विचार की मांग करते हुए केरल उच्च न्यायालय के समक्ष एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की, लेकिन 12 मार्च 2021 को उच्च न्यायालय ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के निर्णय को बरकरार रखते हुए याचिका को खारिज कर दिया।
- इसके बाद, केरल राज्य और प्रतिवादियों दोनों ने उच्चतम न्यायालय में अलग-अलग विशेष अनुमति याचिकाएँ दायर कीं।
विवाद्यक
- क्या न्यायालय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 321 के अंतर्गत अभियोजन पक्ष के मामले को वापस लेने के अनुरोध को अस्वीकार कर सकता है।
- क्या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 194 के अधीन विधान सभा सदस्यों (MLAs) की उन्मुक्ति और विशेषाधिकार लोक संपत्ति के विनाश तक विस्तारित हैं।
- क्या विधान सभा सत्रों के दौरान विधायकों द्वारा किये गए विध्वंस के कृत्य अनुच्छेद 194(2) के अधीन संरक्षित विधानसभा की "कार्यवाही" का गठन करते हैं।
- क्या विधायी कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग को अध्यक्ष की मंजूरी के बिना साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के अधीन अभियोजन वापस लेना:
- न्यायालय ने कहा कि धारा 321 के अधीन वापसी की अनुमति देने की शक्ति, धारा 320 के अधीन अपराध को शमन करने की शक्ति के समान है, जिसमें न्यायालय की भूमिका केवल निगरानी और पर्यवेक्षण तक ही सीमित है।
- यद्यपि धारा 321 में वापसी के लिये स्पष्ट आधार नहीं बताया गया है, किंतु स्वीकार्य कारणों में लोक नीतिगत विचार, प्रशासनिक हित, अभियोजन जारी रखने में अव्यावहारिकता और साक्ष्य का अभाव सम्मिलित हैं।
- न्यायालय को यह सत्यापित करना होगा कि क्या अभियोजक ने वैध आधार पर वापसी को उचित ठहराया है, मूल्यांकन करना होगा कि क्या आवेदन सद्भावनापूर्वक दायर किया गया था, तथा यह सुनिश्चित करना होगा कि वापसी से विधिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप न हो।
विधायी विशेषाधिकार और आपराधिक विधि:
- न्यायालय ने दोहराया कि विधानमंडल के सदस्य, अनुच्छेद 105(1) और 194(1) के अधीन विरोध करने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के होते हुए भी, आपराधिक विधि से ऊपर नहीं हैं।
- विधायी विशेषाधिकार विधायकों को आपराधिक कृत्य, विशेष रूप से लोक संपत्ति को नष्ट करने के लिये अभियोजन से छूट नहीं देते हैं।
- विधायी सदन में विध्वंस के कृत्यों को विधायी विशेषाधिकारों के अंतर्गत संरक्षित नहीं किया जाता है तथा उन्हें आपराधिक विधि के अधीन रहना पड़ता है।
- विधानसभा में हुए हंगामे को विधानसभा की "कार्यवाही" नहीं माना गया, जिसके लिये अनुच्छेद 194(2) के अधीन संरक्षण प्राप्त हो।
लोक न्याय और जवाबदेही:
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि वापसी की अनुमति देने से लोक न्याय और यह सिद्धांत कमजोर होगा कि निर्वाचित अधिकारी विधि के अधीन जवाबदेह हैं।
- लोक अभियोजक का अभियोजन वापस लेने का आवेदन सांविधानिक प्रावधानों की गलत धारणा पर आधारित था और उसे सही तरीके से अस्वीकार कर दिया गया।
- मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने अभियोजन वापस लेने की सहमति देने से इंकार करके सही निर्णय लिया, क्योंकि विध्वंसकारी कृत्यों को विधायी उन्मुक्ति द्वारा संरक्षित नहीं किया जा सकता।
साक्ष्य के रूप में वीडियो रिकॉर्डिंग की अग्राह्यता:
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के अधीन आवेदनों में, न्यायालय साक्ष्य के प्रश्नों का निर्धारण करने या साक्ष्य की ग्राह्यता या पर्याप्तता की जांच करने के लिये बाध्य नहीं हैं।
- वीडियो रिकॉर्डिंग के लिये स्पीकर की मंजूरी की आवश्यकता के बारे में अभियोजक का तर्क वापसी आवेदन के लिये विसंगत माना गया, क्योंकि न्यायालय को इस स्तर पर साक्ष्य की जांच करने की आवश्यकता नहीं है।
आपराधिक कृत्यों के लिये कोई उन्मुक्ति न होने का सिद्धांत:
- न्यायालय ने यह स्थापित किया कि विधायी विशेषाधिकार वैध संसदीय कार्यों की रक्षा के लिये हैं, न कि आपराधिक गतिविधियों की रक्षा के लिये।
- लोक संपत्ति को नष्ट करना, भले ही वह विधायी परिसर के भीतर किया गया हो, सांविधानिक उन्मुक्ति के दायरे से बाहर है।
- यह सिद्धांत कि कोई भी विधि से ऊपर नहीं है, निर्वाचित प्रतिनिधियों पर भी समान रूप से लागू होता है, जिससे लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित होती है।
विधायी स्वतंत्रता और विधि के शासन के बीच संतुलन:
- न्यायालय ने यह संतुलन स्थापित किया कि यद्यपि वैध विधायी विशेषाधिकार मान्य हैं, परन्तु ऐसे विशेषाधिकार आपराधिक कृत्यों तक नहीं बढ़ाए जा सकते।
- इस निर्णय से यह बात पुष्ट हुई कि विधायी उन्मुक्ति लोकतांत्रिक संवाद की रक्षा के लिये है, न कि विधिविरुद्ध आचरण के लिये पूर्ण संरक्षण प्रदान करने के लिये।