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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483

 05-Sep-2025

फिरेराम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य 

उन्होंने कहा, "लोक अभियोजकों द्वारा न्यायालयों से यह आग्रह करना कि वे साक्षियों को धमकाने या डराने वाले अभियुक्तों के विरुद्ध जमानत रद्द करने की मांग करने के बजाय साक्षियों या परिवादकर्त्ताओं को साक्षी संरक्षण योजना के अधीन आवेदन करने के लिये निदेशित करें, इसे अत्यधिक अनुचित बताया।" 

न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति संदीप मेहता 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय  

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवालाऔरन्यायमूर्ति संदीप मेहता नेइलाहाबाद उच्च न्यायालय के कई आदेशों पर चिंता व्यक्त की, जिनमें साक्षी संरक्षण योजना को जमानत रद्द करने के विकल्प के रूप में गलत तरीके से माना गया था और इसे एक वैकल्पिक उपचार बताया गया था। न्यायालय ने कहा कि पिछले वर्ष कम से कम चालीस ऐसे समान, साइक्लोस्टाइल आदेश पारित किये गए थे, जो दो वर्षों से भी अधिक समय से जारी हैं, और इस दृष्टिकोण की कड़ी निंदा की।  

  • उच्चतम न्यायालय ने फिरेराम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025)मामले में यह निर्णय दिया । 

फिरेराम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • फिरेराम ने अभियुक्तों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 302 (हत्या), 201 (साक्ष्यों का विलोपन), 364 (व्यपहरण), 120-ख (आपराधिक षड्यंत्र) के साथ धारा 34 (सामान्य आशय) के अधीन अपराधों के लिये उत्तर प्रदेश के जिला गौतम बुद्ध नगर के सूरजपुर पुलिस थाने में प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) संख्या 137/2022 दर्ज की। 
  • अभियुक्तों कोगिरफ्तार किया गया और बाद में 29 अप्रैल 2024 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित शर्तों के साथ जमानत दे दी गई: 
  • साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ न करना, साक्षियों या परिवादकर्त्ता को धमकी न देना, न्यायालय की कार्यवाही में उपस्थित होना, जमानत की स्वतंत्रता का दुरुपयोग न करना, तथा मामले के तथ्यों से परिचित किसी भी व्यक्ति को न डराना। 
  • जमानत के बाद, दूसरे प्रत्यर्थी ने कथित तौर पर कमंत की शर्तों का उल्लंघन करते हुए साक्षियों को धमकाया। साक्षी चाहत राम ने सूरजपुर पुलिस थाने में दो नई प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) (संख्या 262/2024 और संख्या 740/2024) दर्ज कराईं, जिनमें अभियुक्तों द्वारा धमकाने का आरोप लगाया गया। 
  • फिरेराम ने साक्षियों को डराने-धमकाने के माध्यम से जमानत शर्तों के उल्लंघन के कारण जमानत रद्द करने की मांग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 439(2) के अधीन आपराधिक विविध जमानत रद्दीकरण आवेदन संख्या 93/2025 दायर किया। 
  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 11 अप्रैल 2025 कोआवेदन का निपटारा करते हुएपरिवादकर्त्ता को जमानत रद्द करने की योग्यता की परीक्षा करने के बजाय साक्षी संरक्षण योजना, 2018 के अधीन उपचार तलाशने का निदेश दिया। 
  • इस आदेश से व्यथित होकर, फिरेराम ने उच्च न्यायालय के दृष्टिकोण को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) संख्या 9082/2025 दायर की। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि साक्षी संरक्षण योजना, 2018 उपचारात्मक प्रकृति की है और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 और 439 के अधीन जमानत रद्द करने के प्रावधानों का विकल्प नहीं है। यह योजना साक्षियों की भेद्यता की मनोवैज्ञानिक जटिलताओं का समाधान करती है, जिनका समाधान केवल जमानत विधि नहीं कर सकती 
  • न्यायालय ने इस बात में अंतर किया कि साक्षियों की सुरक्षा राज्य का एक उपचारात्मक दायित्त्व है, जबकिजमानत रद्द करना एक निवारक न्यायिक कार्य है।साक्षी संरक्षण योजना का अस्तित्व जमानत रद्द करने से इंकार करने का आधार नहीं हो सकता, जब साक्षियों को धमकाने का प्रथम दृष्टया साक्ष्य हो। 
  • न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि जमानत शर्तसहित स्वतंत्रता है, न कि असीमित अथवा निरंकुश स्वतंत्रता। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 437(3) अथवा धारा 439(2) [भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483] के अंतर्गत आरोपित शर्तें वास्तविक दायित्त्व का स्वरूप रखती हैं। न्यायालयों पर यह पर्यवेक्षी दायित्त्व निहित है कि शर्तों के उल्लंघन की स्थिति में जमानत निरस्त की जा सके। 
  • जमानत की शर्तों का उल्लंघन न्यायिक कर्त्तव्य के रूप में जमानत रद्द करने का आधार बनता है। न्यायालय साक्षी संरक्षण योजनाओं के अस्तित्व के बहाने इस भूमिका से बच नहीं सकतीं। 
  • उच्चतम न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के चालीस हालिया आदेशों की पड़ताल की, जिनमें साक्षी संरक्षण योजना को जमानत रद्द करने के विकल्प के रूप में माना गया था। ये शब्दशः साइक्लोस्टाइल्ड टेम्पलेट (cyclostyled template) आदेश थे, जो दो वर्षों से चली आ रही एक गलत प्रथा का प्रतिनिधित्व करते थे। 
  • न्यायालय ने इस बात पर गौर किया कि लोक अभियोजकों ने न्यायालयों से अनुरोध किया था कि वे परिवादकर्त्ताओं को साक्षी संरक्षण योजनाओं के अंतर्गत भेज दें, न कि अभियुक्त द्वारा साक्षियों को डरा-धमकाकर जमानत की शर्तों का उल्लंघन करने पर जमानत रद्द करने की जांच करें। 
  • न्यायालय ने कहा कि जब निष्पक्ष विचारण में बाधा डालने वाले कारक हों, तो जमानत रद्द करने के लिये गंभीर परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। विशिष्ट आधारों में साक्षियों को धमकाना, साक्ष्यों से छेड़छाड़, अन्वेषण में हस्तक्षेप और जमानत की छूट का दुरुपयोग सम्मिलित हैं। 
  • न्यायालय ने बल देते हुए कहा कि निष्पक्ष विचारण के लिये राज्य की पहल और न्यायिक सतर्कता, दोनों की आवश्यकता होती है। न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने के लिये प्रहरी की भूमिका निभानी चाहिये कि विचारण बिना किसी भय के आगे बढ़ें। जमानत के स्पष्ट उल्लंघनों की अनदेखी करते हुए साक्षियों से वैकल्पिक उपचार अपनाने के लिये कहना घोर अन्यायपूर्ण और स्थापित विधिक सिद्धांतों के विपरीत होगा। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483 क्या है? 

  • उच्च न्यायालय और सेशन न्यायालय के पासधारा 480 की उपधारा (3) के अधीन निर्दिष्ट अपराधों के लिये आवश्यक शर्तें अधिरोपित करने के अधिकार के साथ, अभिरक्षा में किसी भी अभियुक्त व्यक्ति को जमानत पर छोड़ने का निदेश देने की विशेष शक्तियां हैं। 
  • इन उच्च न्यायालयों के पास किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ते समय मजिस्ट्रेट द्वारा पूर्व में अधिरोपित की गई किसी भी जमानत शर्त को अपास्त करने या संशोधित करने की विवेकाधीन शक्ति है। 
  • सेशन न्यायालय द्वारा विशेष रूप से विचारणीय या आजीवन कारावास से दण्डनीय अपराधों के लिये जमानत देने से पहले, उच्च न्यायालय या सेशन न्यायालय को लोक अभियोजक को नोटिस देना होगा, जब तक कि वह लिखित रूप में यह अभिलिखित न कर दे कि ऐसा नोटिस देना अव्यावहारिक है। 
  • भारतीय न्याय संहिता की धारा 65 या धारा 70 की उपधारा (2) के अधीन अपराधों के लिये, न्यायालय को जमानत आवेदन प्राप्त होने के पंद्रह दिनों के भीतर लोक अभियोजक को नोटिस देना होगा। 
  • भारतीय न्याय संहिता, 2023  की धारा 65 या धारा 70 की उपधारा (2) के अंतर्गत अपराधों के लिए जमानत की सुनवाई के दौरान सूचना देने वाले या उसके अधिकृत प्रतिनिधि की उपस्थिति अनिवार्य है। 
  • उच्च न्यायालय और सेशन न्यायालय को इस अध्याय के अधीन पहले जमानत पर छोड़े गए किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी और अभिरक्षा में सौंपने का निदेश देने की निरंतर अधिकारिता बनाए रखते हैं 
  • यह उपबंध एक पर्यवेक्षी तंत्र स्थापित करता है, जिसके अधीन उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा तय किये गए जमानत मामलों में संशोधन या रद्द करने की शक्तियों के माध्यम से हस्तक्षेप कर सकते हैं। 
  • यह धारा गंभीर अपराधों के लिये विशिष्ट प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय बनाती है, जिसमें अभियोजन पक्ष की सूचना और जमानत कार्यवाही के दौरान इत्तिलाकर्त्ता की उपस्थिति को अनिवार्य किया गया है, जिससे राज्य के हितों और पीड़ितों की चिंताओं का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है। 

पारिवारिक कानून

विदेशी विधि से परे हिंदू विवाह अधिनियम

 05-Sep-2025

एक्स. बनाम वाई. 

"भारत में धार्मिक संस्कारों और रीति-रिवाजों के अनुसार अनुष्ठित हिंदू विवाह सदैव हिंदू विवाह अधिनियम के उपबंधों द्वारा शासित होगा और किसी अन्य विधि द्वारा शासित नहीं हो सकता, भले ही पक्षकारों ने विश्व के किसी भी देश का नया निवास या नागरिकता प्राप्त कर ली हो।" 

न्यायमूर्ति ए.वाई. कोग्जे और न्यायमूर्ति एन.एस. संजय गौड़ा 

स्रोत: गुजरात उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति ए.वाई. कोगजे और न्यायमूर्ति एन.एस. संज्या गौड़ा की खंडपीठ नेएक्स. बनाम वाई. (2025)के मामले में यह निर्णय दिया कि भारत में विवाह करने वाले दो हिंदुओं के बीच वैवाहिक विवाद केवल हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) के अधीन ही सुना जा सकता है और विदेशी पारिवारिक विधि उस पर लागू नहीं होगी, भले ही दंपत्ति किसी विदेशी देश के निवासी हों या उनके पास वहाँ की नागरिकता हो। 

एक्स. बनाम वाई. (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • इस दंपति ने 2008 मेंअहमदाबाद में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अधीन हिंदू रीति-रिवाजों और संस्कारों के अनुसार विवाह किया। 
  • वे ऑस्ट्रेलिया चले गए जहाँ उनके पति स्थायी निवासी थे और 2013 में उनका एक बच्चा भी हुआ। 
  • 2014 में वैवाहिक मतभेद उत्पन्न हो गए और पति 2015 में OCI कार्ड प्राप्त कर भारत लौट आया।  
  • पत्नी ऑस्ट्रेलिया में ही रही और 2015 में उसने ऑस्ट्रेलियाई नागरिकता प्राप्त कर ली। 
  • 10 सितम्बर 2015 को उनकी पत्नी अपने पुत्र के साथ भारत लौट आईं। 
  • 2016 में, पति नेसिडनी स्थित ऑस्ट्रेलिया के संघीय सर्किट न्यायालय मेंतलाक के लिये अर्जी दायर की। 
  • 23 सितंबर, 2016 को पत्नी ने अहमदाबाद के कुटुंब न्यायालय में दांपत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापन की मांग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन एक याचिका और हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के अधीन एक वाद दायर किया। 
  • 24 नवंबर 2016 को सिडनी स्थित ऑस्ट्रेलिया के संघीय सर्किट न्यायालय ने तलाक को मंजूरी दे दी; पत्नी की पुनर्विचार याचिका भी खारिज कर दी गई। 
  • 5 जुलाई 2017 को पत्नी को OCI कार्ड प्रदान किया गया। 
  • 11 जुलाई, 2018 को पत्नी ने एक पारिवारिक वाद दायर कर यह घोषित करने की मांग की कि सिडनी स्थित ऑस्ट्रेलिया के संघीय सर्किट न्यायालय द्वारा पारित आदेश शून्य है। 
  • 31 मार्च, 2023 को कुटुंब न्यायालय नेउनकी याचिका खारिज कर दी, जिसके कारण यह अपील दायर की गई। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

मुख्य अवलोकन: 

  • गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि भारत में किये गए हिंदू विवाहों में नागरिकता का "बिल्कुल कोई महत्त्व नहीं"है, केवल पक्षकारों की हिंदू आस्था ही सुसंगत है। 
  • न्यायालय ने कहा कि ऐसे विवाहों को विदेशी विधि के अधीन संचालित करने की अनुमति देने से "असंगत परिणाम" उत्पन्न होंगे और पाया कि पति ने हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों से बचने के लिये आस्ट्रेलियाई तलाक की मांग की थी। 
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि आस्ट्रेलियाई न्यायालय को भी भारत में अपने निर्णय को मान्यता दिये जाने के संबंध में अधिकारिता संबंधी संदेह था। 

स्थापित विधिक सिद्धांत: 

  • न्यायालय ने यह स्थापित किया कि भारत में अनुष्ठित हिंदू विवाह, बाद में नागरिकता या निवास स्थान में परिवर्तन के होते हुए भी, विशेष रूप से हिंदू विवाह अधिनियम द्वारा शासित होते हैं, जिससे विदेशी विधि का अनुप्रयोग "अनुचित" हो जाता है। 
  • वाई. नरसिम्हा राव मामले में उच्चतम न्यायालय के पूर्व निर्णय के अनुसार, वैवाहिक विवादों पर केवल वही विधि लागू होती है जिसके अधीन पक्षकार विवाहित होते हैं। 
  • न्यायालय नेफोरम शॉपिंग(न्यायालय-चयन) पर भी प्रतिबंध लगा दिया, जहाँ पक्षकार भारतीय वैवाहिक विधियों से बचने के लिये विदेशी अधिकारिता की मांग करते हैं। 

न्यायालय के निदेश: 

  • गुजरात उच्च न्यायालय ने पत्नी की याचिका को खारिज करने केकुटुंब न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दियातथा कुटुंब न्यायालय को निदेश दिया कि वह उसके मामले पर विधि के अनुसार निर्णय करे तथा उसकी वैध कार्यवाही को मान्यता दे। 
  • पति के अधिवक्ता के अनुरोध पर न्यायालय ने अपने आदेश पर दो सप्ताह के लिये रोक लगा दी। 

हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत विवाह के संबंध में सुसंगत विधिक प्रावधान क्या हैं? 

परिचय: 

  • विवाह हिंदू विधि के अधीन एक पवित्र संस्कार है और आवश्यक संस्कारों में से एक है। 
  • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) हिंदू विवाहों को नियंत्रित करता है और हिंदू विवाह विधि में सुधार करता है। 
  • यह नियम बौद्ध, सिख और जैन सहित सभी हिंदुओं पर लागू होता है। 

विवाह का अनुष्ठान (धारा 7): 

  • विवाह तभी वैध है जब वह किसी भी पक्षकार के पारंपरिक संस्कार और रीति-रिवाजों के अनुसार अनुष्ठित हो। 
  • सप्तपदी (पवित्र अग्नि के चारों ओर सात कदम) में सातवाँ कदम उठाने पर विवाह पूर्ण और बंधनकारी हो जाता है। 
  • प्रथागत संस्कार समुदाय के अनुसार अलग-अलग होते हैं - साधारण माला विनिमय से लेकर विस्तृत यज्ञ अनुष्ठान तक। 

वैध विवाह के लिये आवश्यक शर्तें (धारा 5): 

एकपत्नीत्व (Monogamy) (धारा 5(i)):  

  • दोनों पक्षकारों में में से किसी का पति या पति विवाह के समय जीवित नहीं होना चाहिये 
  • इसका उल्लंघन विवाह को शून्य एवं अकृत बना देता है 
  • द्विविवाह भारतीय दण्ड संहिता की धारा 494-495 और हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 17 के अधीन दण्डनीय है। 

पक्षकारों की सम्मति (धारा 5(ii)): 

  • दोनों पक्षकारों को स्वतंत्र एवं सूचित सहमति देनी होगी। 
  • यदि किसी भी पक्षकार को मानसिक बीमारी के कारण सम्मति देने के लिये विवश किया जाता है या वह सम्मति देने में असमर्थ है तो विवाह शून्यकरणीय हो जाता है। 

आयु आवश्यकताएँ (धारा 5(iii)): 

  • वर्तमान न्यूनतम आयु: वर के लिये 21 वर्ष, वधू के लिये 18 वर्ष। 
  • मूलतः लड़कों के लिये 18 वर्ष, लड़कियों के लिये 15 वर्ष; 1978 में संशोधित। 
  • दण्ड: 2 वर्ष तक का कठोर कारावास या ₹1 लाख तक का जुर्माना, या दोनों (धारा 18)। 

प्रतिषिद्ध नातेदारी की डिग्रियाँ (धारा 5(iv)):  

निम्नलिखित के बीच प्रतिषिद्ध विवाह: 

  • अग्रपुरुष/वंशज। 
  • अग्रपुरुष/वंशजों के पूर्व पति-पत्नी।  
  • विनिर्दिष्ट ससुराल संबंध (भाई की पत्नी, चाचा की पत्नी, आदि) 
  • भाई-बहन, चाचा-भतीजी, चाची-भतीजा, भाई-बहन के बच्चे 
  • दण्ड: 1 मास तक का साधारण कारावास या ₹1,000 का जुर्माना, या दोनों (धारा 18())। 

सपिण्ड नातेदारी (धारा 5(v)): 

  • प्रतिषिद्ध का विस्तार: माता की ओर से तीसरी पीढ़ी तक, पिता की ओर से पाँचवीं पीढ़ी तक 
  • दण्ड : 1 मास तक का कारावास या ₹1,000 का जुर्माना, या दोनों (धारा 18())। 

विवाह रजिस्ट्रीकरण (धारा 8): 

  • राज्य सरकारों को रजिस्ट्रीकरण नियम बनाने का अधिकार दिया गया। 
  • राज्य सार्वभौमिक रूप से या विनिर्दिष्ट क्षेत्रों/मामलों के लिये रजिस्ट्रीकरण को अनिवार्य कर सकता है। 
  • उल्लंघन पर जुर्माना: ₹25 तक 

वाणिज्यिक विधि

माध्यस्थम् पंचाटों में ब्याज के उपबंध

 05-Sep-2025

ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम मेसर्स जी. एंड टी. बेकफील्ड ड्रिलिंग सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड 

किसी भी विलंबित संदाय/विवादित दावे पर ONGC द्वारा कोई ब्याज देय नहीं होगा।” 

न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और मनोज मिश्रा 

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने यह निर्णय दिया कि यदि किसी संविदा में स्पष्ट रूप से निषेध न हो, तो माध्यस्थम् अधिकरण वादकालीन ब्याज प्रदान कर सकता है। न्यायालय ने यह भी प्रतिपादित किया कि विलंबित संदायों पर ब्याज को निषिद्ध करने वाली संविदात्मक धारा, इस अधिकार को प्रतिबंधित नहीं करती। इस संदर्भ में ओ.एन.जी.सी. (ONGC) की अपील को निरस्त कर दिया गया। 

  • उच्चतम न्यायालय ने ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम मेसर्स एसजी एंड टी बेकफील्ड ड्रिलिंग सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025)के मामले में यह निर्णय दिया 

ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम मेसर्स एस.जी. एंड टी बेकफील्ड ड्रिलिंग सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ? 

  • तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम लिमिटेड (ONGC) ने ड्रिलिंग सेवाओं के लिये मेसर्स जी. एंड टी. बेकफील्ड ड्रिलिंग सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड के साथ एक संविदा की। इस संविदा के अधीन, जी. एंड टी. बेकफील्ड ने प्रदान की गई सेवाओं के लिये कई चालान जारी किये, किंतु ONGC ने विभिन्न आधारों पर संदाय रोक दिया।   
  • संविदा में धारा 18.1 सम्मिलित थी, जिसमें निर्दिष्ट किया गया था कि ONGC उचित रूप से प्रमाणित चालान प्राप्त होने के 30 दिनों के भीतर संदाय की व्यवस्था करेगी। इस धारा में यह भी उपबंध था कि यदि ONGC किसी चालान में किसी भी मद पर प्रश्न उठाती है, तो वह विवादित राशि का संदाय मामले के समाधान तक रोक सकती है, किंतु विवादित न होने वाली राशि का संदाय निर्धारित अवधि के भीतर किया जाना था। महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इस धारा में कहा गया था: "किसी भी विलंबित संदाय/विवादित दावे पर ONGC द्वारा कोई ब्याज देय नहीं होगा।"  
  • जब लगभग 6,56,272.34 अमेरिकी डॉलर के अवैतनिक चालानों पर विवाद उत्पन्न हुआ, तो मामला 12 दिसंबर 1998 को तीन सदस्यीय माध्यस्थम् अधिकरण को सौंप दिया गया। जी. एंड टी. बेकफील्ड ने ड्रिलिंग कार्यों में खोए गए औजारों के लिये शुल्क, विमुद्रीकरण शुल्क सहित विभिन्न चालानों के लिये संदाय का दावा किया, और अनुचित रूप से काटे गए निष्पादित बंधपत्र की राशि को जारी करने की मांग की। 
  • माध्यस्थम् अधिकरण ने 21 नवंबर 2004 के अपने निर्णय में जी. एंड टी. बेकफील्ड के अधिकांश दावों को स्वीकार कर लिया, किंतु प्रत्येक वाद-हेतुक की तिथि से व्यक्तिगत चालानों पर ब्याज के दावों को खारिज कर दिया। यद्यपि, अधिकरण ने 12 दिसंबर 1998 (वह तिथि जब दावे का विवरण अधिकरण के समक्ष पुष्टि किया गया था) से वसूली तक कुल निर्धारित राशि पर 12% प्रति वर्ष की दर से ब्याज और 5 लाख रुपए का जुर्माना लगाया।  
  • ONGC ने माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अधीन जिला न्यायाधीश के समक्ष इस निर्णय को चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि यह निर्णय तर्कहीन था और धारा 18.1 किसी भी ब्याज संदाय पर रोक लगाती है। जिला न्यायाधीश ने ONGC की अर्जी स्वीकार कर ली और इन आधारों पर माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त कर दिया। 
  • इसके बाद जी. एंड टी. बेकफील्ड ने अधिनियम की धारा 37(1)(ग) के अधीन गुवाहाटी उच्च न्यायालय में अपील की, जिसने जिला न्यायाधीश के निर्णय को पलट दिया और माध्यस्थम् पंचाट को पूरी तरह से बरकरार रखा। इसके बाद ONGC ने एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय का रुख किया, जिसमें केवल इस प्रश्न तक सीमित सूचना दी गई थी कि क्या कुल दी गई राशि पर ब्याज दिया जा सकता है। 

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं? 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि माध्यस्थम् अधिकरण वादकालीन ब्याज (माध्यस्थम् के दौरान) प्रदान कर सकते हैं, जब तक कि संविदात्मक करार अभिव्यक्त रूप से या विवक्षित रूप से ऐसे पंचाटों को प्रतिबंधित न करें।  
  • माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 31(7) के अधीन, अधिकरणों को तीन अलग-अलग अवधियों के लिये ब्याज अधिनिर्णय देने का अधिकार है: पूर्व-संदर्भ (माध्यस्थम् से पहले), वादकालीन (माध्यस्थम् के दौरान), और पंचाट के पश्चात्। जबकि पूर्व-संदर्भ और वादकालीन ब्याज पक्षकारों के करारों के अधीन हैं, पंचाट के पश्चात् का ब्याज सांविधिक है और पक्षकार इससे बाहर नहीं निकल सकते। 
  • न्यायालय ने पाया कि धारा 18.1 केवल ONGC को विलंबित भुगतानों पर ब्याज देने से रोकती है, किंतु अधिकरण की लंबित ब्याज देने की सांविधिक शक्ति को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित नहीं करती। अधिकरण ने विभिन्न प्रकार के ब्याज के बीच उचित रूप से अंतर किया था - पूर्व-संदर्भ ब्याज को अस्वीकार करते हुए, किंतु दावा दायर करने की तिथि से लंबित ब्याज देना। 
  • न्यायालय ने इसे सईद अहमद एंड कंपनी और THDC जैसे मामलों जैसे पूर्व निर्णयों से अलग बताया, जहाँ व्यापक निषेधों में "किसी भी तरह से" या "किसी भी शीर्षक के अंतर्गत" जैसे वाक्यांशों का प्रयोग किया गया था। इन मामलों में केवल विलंबित भुगतान परिदृश्यों से परे स्पष्ट संविदात्मक प्रतिबंध सम्मिलित थे। 
  • न्यायालय ने कहा कि 12% ब्याज दर उचित थी, जो उस समय की 18% वार्षिक की सांविधिक दर से कम थी। अधिकरण द्वारा विवेकाधिकार का प्रयोग विधिक सीमाओं के भीतर पाया गया। 
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि माध्यस्थम् अधिकरणों को लंबित ब्याज देने के उनके अधिकार से तभी वंचित किया जा सकता है जब करारों में स्पष्ट रूप से या आवश्यक निहितार्थों के आधार पर ऐसे निर्णयों को प्रतिबंधित किया गया हो। केवल विलंबित संदयों पर ब्याज पर रोक लगाने वाले खण्ड को लंबित ब्याज पर रोक लगाने के रूप में आसानी से नहीं समझा जाएगा। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि धारा 18.1 में अधिकरण के सांविधिक विवेक को सीमित करने के लिये आवश्यक व्यापक निषेधात्मक भाषा का अभाव था, तथा इसमें माध्यस्थम् पंचाट में न्यायिक हस्तक्षेप की कोई त्रुटि नहीं पाई गई। 

माध्यस्थम् पंचाटों में ब्याज उपबंधक्या हैं ? 

  • बारे में : 
    • माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 31(7) मौद्रिक माध्यस्थम् पंचाटों में ब्याज देने के लिये व्यापक उपबंध स्थापित करती है, जिसमें पंचाट-पूर्व और पंचाट-पश्चात् ब्याज गणना दोनों सम्मिलित हैं। 
  • पंचाट-पूर्व- ब्याज [उपधारा 7()]: 
    • जब तक कि पक्षकार अन्यथा सहमत न हों, माध्यस्थम् अधिकरणों के पास धन संबंधी पंचाटों पर ब्याज सम्मिलित करने का विवेकाधीन अधिकार होता है। 
    • अधिकरण संपूर्ण राशि या उसके किसी भाग पर, जो वह उचित समझे, ब्याज दर पर, वाद-हेतुक उत्पन्न होने से लेकर निर्णय की तिथि तक की अवधि की बात करते हुए, ब्याज दे सकता है। 
    • यह उपबंध विवाद समाधान कार्यवाही के दौरान धन के समय मूल्य के लिये प्रतिकर को सुनिश्चित करता है। 
  • पंचाट-पश्चात ब्याज [उपधारा 7()]: 
    • एक बार माध्यस्थम् पंचाट हो जाने पर, किसी भी निदेशित भुगतान पर निर्णय की तिथि से लेकर वास्तविक भुगतान तक स्वचालित रूप से ब्याज लग जाता है, जब तक कि निर्णय में विशेष रूप से अन्यथा निदेश न दिया गया हो।  
    • ब्याज दर सांविधिक रूप से पंचाट तिथि पर प्रचलित वर्तमान ब्याज दर से दो प्रतिशत अधिक निर्धारित की गई है। 
    • यह अनिवार्य उप्बंह पंचाटों के शीघ्र अनुपालन को प्रोत्साहित करता है तथा विलंबित संदाय के लिये सफल पक्षकारों को प्रतिकर देता है। 
  • प्रमुख विशेषताएँ: 
    • पंचाट-पूर्व ब्याज विवेकाधीन है और इसके लिये अधिकरण के निर्णय की आवश्यकता होती है 
    • पंचाट के पश्चात् ब्याज स्वतः प्राप्त होता है जब तक कि स्पष्ट रूप से अपवर्जित न किया गया हो 
    • प्रत्येक चरण के लिये अलग-अलग दर तंत्र लागू होते हैं 
    • अधिकरणों को पंचाट-पूर्व ब्याज गणना में लचीलापन प्राप्त है 
    • पंचाट के पश्चात् की दरें मानकीकृत और बाजार से जुड़ी होती हैं।  
  • ये उपबंध न्यायिक विवेकाधिकार को सांविधिक निश्चितता के साथ संतुलित करते हैं, उचित प्रतिकर सुनिश्चित करते हुए समय पर निर्णय के अनुपालन को प्रोत्साहित करते हैं। यह दोहरा दृष्टिकोण कार्यवाही के दौरान प्रतिकर के लिये भिन्न-भिन्न नीतिगत विचारों और प्रवर्तन चरणों को मान्यता देता है।