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आपराधिक कानून
अवैध गिरफ्तारी के पश्चात् अंतरिम जमानत अमान
24-Sep-2025
प्रवीण राज बनाम केरल राज्य "यदि गिरफ्तारी अवैध है, तो अभियुक्त गिरफ्तारी-पूर्व चरण में स्वतंत्र है, और अंतरिम जमानत को पूर्णतः गलत बनाना गलत है और इसका कोई विधिक प्रभाव नहीं है।" न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन |
स्रोत: केरल उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन ने कहा कि किसी गिरफ्तारी को अवैध घोषित करने के बाद अंतरिम जमानत को पूर्ण घोषित करने का कोई विधिक प्रभाव नहीं है, क्योंकि इससे वैध पुनः गिरफ्तारी पर रोक लग जाएगी। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे आदेश गलत हैं और अन्वेषण अभिकरण को उचित गिरफ्तारी करने से नहीं रोकते।
- केरल उच्च न्यायालय ने प्रवीण राज बनाम केरल राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
प्रवीण राज बनाम केरल राज्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- उद्योग विस्तार अधिकारी प्रवीण राज ने 2021-22 के दौरान स्वरोजगार योजना के अधीन 1.14 करोड़ रुपए के दुर्विनियोग से संबंधित सतर्कता एवं भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (VACB) अपराध के लिये केरल उच्च न्यायालय में गिरफ्तारी पूर्व जमानत याचिका दायर की।
- उन्होंने कथित तौर पर सह-अभियुक्तों के साथ मिलकर 38 अयोग्य लाभार्थियों को सब्सिडी देने के लिये उनका साक्षात्कार लिये बिना या दस्तावेज़ों की प्रामाणिकता की पुष्टि किये बिना, स्थापित प्रक्रियाओं का उल्लंघन करते हुए षड्यंत्र रचा।
- अभियोजन पक्ष के मामले में कहा गया है कि उन्होंने तिरुवनंतपुरम निगम परियोजना संख्या SO 760/22 के अधीन फर्जी समूहों को 3-3 लाख रुपए वितरित किये, जिससे सरकार को सदोष हानि हुई।
- उन पर कुल 6 करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार के कई मामले हैं और उन्हें पहले भी गिरफ्तार किया गया था, किंतु गिरफ्तारी में प्रक्रियागत अनियमितताओं के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया था।
- आरोपों में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और भारतीय दण्ड संहिता में आपराधिक न्यासभंग, छल, कूटरचना और आपराधिक षड्यंत्र की धाराएँ सम्मिलित हैं।
- उनके अधिवक्ता ने तर्क दिया कि अनधिकृत लाभार्थियों का कोई सबूत नहीं है तथा केवल विभागीय मानदंडों के उल्लंघन का दावा किया गया, जबकि अभियोजन पक्ष ने प्रथम दृष्टया मामला स्थापित किया।
- विशेष न्यायाधीश ने पहले उनकी गिरफ्तारी को अवैध पाया था और पूर्ण जमानत दे दी थी, जिससे अन्वेषण अभिकरण को उचित प्रक्रियाओं के बाद पुनः गिरफ्तारी की स्वतंत्रता मिल गई थी।
- याचिकाकर्त्ता ने निर्दोष होने तथा फरार होने के जोखिम के बिना अन्वेषण में सहयोग करने की इच्छा का दावा करते हुए अग्रिम जमानत की मांग की।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि गंभीर भ्रष्टाचार के अपराधों में अग्रिम जमानत केवल असाधारण परिस्थितियों में ही दी जा सकती है, जब अभियुक्त को मिथ्या फंसाया गया हो या आरोप राजनीति से प्रेरित या तुच्छ हों।
- न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध 1.14 करोड़ रुपए के दुर्विनियोग के लिये प्रथम दृष्टया ठोस सबूत पाए तथा एक लोक अधिकारी के रूप में भ्रष्टाचार के कई मामलों में उसकी संलिप्तता का उल्लेख किया।
- न्यायालय ने कहा कि कोई असाधारण परिस्थितियाँ स्थापित नहीं हुई थीं और अभियोजन पक्ष का मामला तुच्छ नहीं था, जिससे वह अग्रिम जमानत देने के लिये अनुपयुक्त हो।
- न्यायालय ने विशेष न्यायाधीश के दिनांक 31.07.2025 के आदेश में स्पष्ट अवैधताओं की पहचान की, जिसमें गिरफ्तारी को अवैध पाते हुए अंतरिम जमानत को पूर्ण बना दिया गया था।
- न्यायालय ने कहा कि जब गिरफ्तारी अवैध पाई जाती है, तो अभियुक्त स्वतः ही अभिरक्षा से मुक्त हो जाता है और जमानत बंधपत्र का निष्पादन नहीं होता, जिससे पूर्ण जमानत अनावश्यक हो जाती है।
- न्यायालय ने पाया कि जमानत को पूर्ण बना देने से अन्वेषण अभिकरण के लिये, न्यायालय द्वारा दी गई स्वतंत्रता के होते हुए भी, जमानत रद्द किये बिना पुनः गिरफ्तारी करना विधिक रूप से असंभव हो जाता है।
- न्यायालय ने कहा कि विशेष न्यायाधीश द्वारा अंतरिम जमानत को पूर्णतः अनिवार्य बनाने का आदेश गलत था और इसका कोई विधिक प्रभाव नहीं था, क्योंकि अभियुक्त गिरफ्तारी से पहले ही स्वतंत्र था।
- न्यायालय ने गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपों और बड़ी मात्रा में लोक धन की संलिप्तता को देखते हुए अग्रिम जमानत आवेदन को पूरी तरह से निराधार बताते हुए खारिज कर दिया।
- न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता को तत्काल आत्मसमर्पण करने और अन्वेषण में सहयोग करने का निदेश दिया, अन्यथा अन्वेषण अधिकारी उचित गिरफ्तारी प्रक्रियाओं के साथ विधि के अनुसार आगे बढ़ सकते हैं।
संदर्भित विधिक प्रावधान क्या हैं?
- भ्रष्टाचार निवारण (संशोधन) अधिनियम, 2018
- धारा 13(1)(क)
- एक लोक सेवक द्वारा आपराधिक कदाचार
- किसी लोक सेवक को आपराधिक कदाचार का अपराध करने वाला कहा जाता है, यदि वह अपने लिये या किसी अन्य व्यक्ति के लिये धारा 7 में उल्लिखित उद्देश्य या पुरस्कार के रूप में वैध पारिश्रमिक के सिवाय किसी परितोषण को आदतन स्वीकार करता है या प्राप्त करता है या स्वीकार करने के लिये सहमत होता है या प्राप्त करने का प्रयास करता है।
- धारा 13(2)
- आपराधिक कदाचार के लिये दण्ड
- जो कोई भी आपराधिक कदाचार करेगा, उसे कम से कम चार वर्ष के कारावास से दण्डित किया जाएगा, किंतु उसे दस वर्ष तक का कारावास हो सकेगा, तथा वह जुर्माने से भी दण्डित किया जा सकेगा।
- धारा 13(1)(क)
- भारतीय दण्ड संहिता के उपबंध
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34
- सामान्य आशय को अग्रसर करने में कई व्यक्तियों द्वारा किये गए कार्य
- जब कि कोई आपराधिक कार्य कई व्यक्तियों द्वारा अपने सब के सामान्य आशय को अग्रसर करने में किया जाता है, तब ऐसे व्यक्तियों में से हर व्यक्ति उस कार्य के लिये उसी प्रकार दायित्त्व के अधीन है, मानो वह कार्य अकेले उसी ने किया हो।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120(ख)
- आपराधिक षड्यंत्र का दण्ड
- जो कोई मृत्युदण्ड, आजीवन कारावास या दो वर्ष या उससे अधिक अवधि के कठिन कारावास से दण्डनीय अपराध करने के आपराधिक षड्यंत्र में शरीक होगा, यदि ऐसे षड्यंत्र के दण्ड के लिये इस संहिता में कोई अभिव्यक्त उपबंध नहीं है, तो वह उसी प्रकार दण्डित किया जाएगा, मानो उसने ऐसे अपराध का दुष्प्रेरण किया था।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 408
- लिपिक या सेवक द्वारा आपराधिक न्यासभंग
- जो कोई लिपिक या सेवक होते हुए, लिपिक या सेवक के रूप में नियोजित होते हुए, और इस नाते किसी प्रकार संपत्ति, या संपत्ति पर कोई अख्त्यार अपने में न्यस्त होते हुए, उस संपत्ति के विषय में आपराधिक न्यासभंग करेगा, वह दोनों में से किस भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से दण्डनीय होगा।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420
- छल करना और संपत्ति परिदत्त करने के लिये बेईमानी से उत्प्रेरित करना
- जो कोई छल करेगा, और तद्द्वारा उस व्यक्ति को, जिसे प्रवंचित किया गया है, बेईमानी से उत्प्रेरित करेगा कि वह कोई संपत्ति किसी व्यक्ति को परिदत्त कर दे, या किसी भी मूल्यवान प्रतिभूति को, या किसी चीज को, जो हस्ताक्षरित या मुद्रांकित है, और जो मूल्यवान प्रतिभूति में सम्परिवर्तित किये जाने योग्य है, पूर्णतः या अंशतः रच दे, परिवर्तित कर दे, या नष्ट कर दे, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी दण्डनीय होगा।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 468
- छल के प्रयोजन से कूटरचना
- जो कोई कूटरचना इस आशय से करेगा कि वह दस्तावेज़ या इलेक्ट्रानिक अभिलेख, जिसकी कूटरचना की जाती है, छल के प्रयोजन से उपयोग में लाई जाएगी, वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने से भी, दण्डनीय होगा।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 471
- कूटरचित दस्तावेज़ या इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख का असली के रूप में उपयोग लाना
- जो कोई किसी ऐसी दस्तावेज़ या इलेक्ट्रानिक अभिलेख को, जिसके बारे में वह यह जानता या विश्वास करने का कारण रखता हो कि वह कूटरचित दस्तावेज़ या इलेक्ट्रानिक अभिलेख है, कपटपूर्वक या बेईमानी से असली के रूप में उपयोग में लाएगा, वह उसी प्रकार दण्डित किया जाएगा, मानो उसने ऐसी दस्तावेज़ या इलेक्ट्रानिक अभिलेख की कूटरचना की हो।
- भारतीय दण्ड संहिता की धारा 34
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS)
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 35(3)
- सूचना उपबंध
- यह दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के स्थान पर लागू नई दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत सूचना की आवश्यकताओं से संबंधित है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 35(3)
पारिवारिक कानून
वैवाहिक घर से अनुपस्थिति क्रूरता के समान है
24-Sep-2025
एक्स. बनाम वाई. (दाण्डिक अपील 4523/2022) "यह स्वयंसिद्ध है कि सहवास और वैवाहिक कर्त्तव्यों का निर्वहन विवाह का आधार है; उनका निरंतर इंकार न केवल विवाह के अपूरणीय विघटन को दर्शाता है, अपितु क्रूरता को भी दर्शाता है जिसके लिये न्यायिक हस्तक्षेप आवश्यक है।" न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अनिल क्षेत्रपाल और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर ने निर्णय दिया कि पत्नी का ससुराल से बार-बार अनुपस्थित रहना, वैवाहिक संबंधों से इंकार करना और अपने पति और उसके परिवार के विरुद्ध कई परिवाद दर्ज करना क्रूरता के समान है, इस प्रकार हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1) (i-क) के अधीन तलाक के आदेश को बरकरार रखा गया।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक्स.बनाम वाई. (दाण्डिक अपील 4523/2022) (2025) के मामले में यह निर्णय दिया।
एक्स. बनाम वाई. (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी?
- धनवती और सतीश कुमार का विवाह 3 मार्च 1990 को हिंदू रीति-रिवाजों से हुआ। उनके पुत्र राहुल का जन्म 3 अक्टूबर 1997 को हुआ।
- पति ने अपनी पत्नी पर निरंतर क्रूरता का आरोप लगाते हुए कहा कि वह संयुक्त परिवार में रहने से इंकार करती है और बिना सम्मति के वर्ष में 7-8 महीने अपने मायके में रहती है। उसे वापस लाने के लिये कई पंचायतों का गठन करना पड़ा।
- वर्ष 2008 से, विशेषकर करवा चौथ के बाद, पत्नी ने कथित तौर पर वैवाहिक संबंधों से दूरी बना ली तथा उसे अपमानित करना शुरू कर दिया, जिसमें जूते फेंकना, घर का काम करने के लिये मजबूर करना तथा उसकी माता को थप्पड़ मारना सम्मिलित था।
- पति ने दावा किया कि उसकी पत्नी ने परिवार पर संपत्ति अपने नाम पर स्थानांतरित करने के लिये दबाव डाला, मना करने पर मिथ्या आपराधिक मामलों में फंसाने की धमकी दी, तथा उसके माता-पिता के प्रति उदासीनता दिखाई।
- 2009 में तलाक की अर्जी देने के बाद पत्नी ने पति और उसके परिवार के विरुद्ध मारपीट, दहेज उत्पीड़न और लैंगिक उत्पीड़न सहित भारतीय दण्ड संहिता की विभिन्न धाराओं के अधीन तीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज कराईं।
- पत्नी ने दहेज प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए दावा किया कि उसे घर बनवाने के लिये 5 लाख रुपए का इंतजाम करने के लिये मजबूर किया गया। उसने पति के परिवार पर आदतन शराब पीने, उसके रूप-रंग पर फब्तियाँ कसने और मारपीट करने का आरोप लगाया।
- कुटुंब न्यायालय ने पति के कथन को स्वीकार कर लिया और क्रूरता के आधार पर हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(i-क) के अधीन तलाक दे दिया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि विवाह के लिये सहवास आवश्यक है और बिना किसी उचित कारण के लैंगिक संबंधों से निरंतर इंकार करना मानसिक क्रूरता माना जाता है। पत्नी द्वारा 2008 से शारीरिक अंतरंगता से दूर रहने और करवा चौथ का पालन न करने की स्वीकृति को मानसिक क्रूरता के रूप में लंबे समय तक इंकार माना गया।
- न्यायालय ने कहा कि तीनों प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) पति की तलाक की अर्जी के पश्चात् ही दर्ज की गईं और उनकी टाइमिंग को संदिग्ध माना। इन परिवादों को वास्तविक परिवादों के बजाय तलाक की कार्यवाही का प्रतिकार माना गया।
- न्यायालय ने पाया कि पत्नी का आचरण - सहवास से इंकार, वैवाहिक संबंधों से इंकार, वैवाहिक घर से बार-बार अनुपस्थित रहना, तथा अनेक परिवाद - मानसिक पीड़ा पहुँचाने वाला जानबूझकर किया गया आचरण है, जो हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(i-क ) के अधीन क्रूरता की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
- न्यायालय ने यह अवलोकन किया कि पति को उसके पुत्र से मिलने के अधिकार में व्यवस्थित रूप से बाधा उत्पन्न करना, गंभीर मानसिक क्रूरता की श्रेणी में आता है। वैवाहिक विवाद में किसी बालक का हथियार के रूप में उपयोग करना न केवल प्रभावित माता-पिता को आहत करता है, अपितु बालक के भावनात्मक कल्याण को भी क्षीण करता है।
- पत्नी की अपनी सास की स्वास्थ्य स्थितियों के बारे में पूर्ण अज्ञानता, जिसमें चलने में असमर्थता और कूल्हे की रिप्लेसमेंट सर्जरी शामिल थी, भारतीय पारिवारिक संदर्भ में आवश्यक वैवाहिक दायित्त्वों के प्रति उपेक्षा को दर्शाती है।
- न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पत्नी के व्यवहार का संचयी प्रभाव वैवाहिक उत्तरदायित्त्वों की निरंतर उपेक्षा को दर्शाता है, जिससे उसे काफी भावनात्मक पीड़ा हुई, जो हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(i-क) के अधीन विवाह विच्छेद को उचित ठहराने के लिये पर्याप्त है।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(i-क) क्रूरता को तलाक के आधार के रूप में कैसे मान्यता देती है?
- विधिक ढाँचा:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13(1)(i-क) में उपबंध है कि किसी भी विवाह को तलाक की डिक्री द्वारा इस आधार पर भंग किया जा सकता है कि दूसरे पक्षकार ने विवाह संपन्न होने के पश्चात् याचिकाकर्त्ता के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया है।
- आवश्यक तत्त्व:
- क्रूरता विवाह संपन्न होने के पश्चात् ही घटित होनी चाहिये, क्योंकि विवाह-पूर्व आचरण इस उपबंध के अधीन तलाक का आधार नहीं बन सकता।
- प्रत्यर्थी ने याचिकाकर्त्ता के साथ शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों में क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया होगा।
- यदि पति-पत्नी में से किसी एक के साथ दूसरे पक्षकार द्वारा क्रूरता की जाती है तो दोनों में से किसी को भी इस आधार पर तलाक के लिये आवेदन करने का अधिकार है।
- शारीरिक क्रूरता घटक:
- शारीरिक क्रूरता में याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध वास्तविक शारीरिक हिंसा या हमला सम्मिलित है।
- इसमें शारीरिक नुकसान पहुँचाने या डराने-धमकाने की धमकियाँ है।
- इस उपबंध के अधीन पति/पत्नी को शारीरिक क्षति कारित करने वाला कोई भी आचरण शारीरिक क्रूरता माना जाएगा।
- मानसिक क्रूरता के मापदंड:
- मानसिक क्रूरता में याचिकाकर्त्ता को मानसिक पीड़ा और कष्ट कारित करने वाला आचरण सम्मिलित है। इसमें ऐसा व्यवहार सम्मिलित है जिससे पीड़ित पक्षकार के लिये दूसरे पति/पत्नी के साथ उचित रूप से रहना असंभव हो जाता है।
- याचिकाकर्त्ता के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला निरंतर आचरण इस श्रेणी में आता है।