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आपराधिक कानून
जमानत आदेश प्रबंधन प्रणाली (BOMS)
05-Nov-2025
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सोहराब उर्फ सोराब अली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य "एक बार जमानत मंजूर हो जाने पर, विचाराधीन कैदी या दोषी को तुरंत सूचित किया जाना उसका अधिकार बन जाता है।" न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल |
स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति अरुण कुमार सिंह देशवाल ने जमानत आदेश प्रबंधन प्रणाली (BOMS) के माध्यम से जमानत आदेशों के तत्काल इलेक्ट्रॉनिक प्रसारण का निदेश दिया, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि जमानत दिये जाने के बाद कोई भी व्यक्ति जेल में न रहे, जिससे उच्चतम न्यायालय के 2023 जमानत नीति के निर्णय के होते हुए भी जमानत आदेशों के निष्पादन में विलंब देखा जा रहा था।
- इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सोहराब उर्फ सोराब अली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया।
सोहराब उर्फ सोराब अली बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- आवेदक सोहराब उर्फ सोराब अली ने पुलिस थाने सैनी जिला कौशाम्बी में भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 137 (2) और 87 के अधीन पंजीकृत मुकदमा अपराध संख्या 314/2025 में विचारण लंबित रहने के दौरान रिहाई की मांग करते हुए जमानत याचिका दायर की।
- आवेदक के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि यद्यपि प्रथम सूचना रिपोर्ट में सूचनाकर्त्ता की पुत्री को बहला-फुसलाकर भगा ले जाने के आरोप थे, फिर भी पीड़िता ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 183 के अधीन दिये गए अपने कथन में स्वयं कहा है कि वह अपनी इच्छा से घर से गई थी। अतः आवेदक को इस अपराध में मिथ्या फंसाया गया है।
- आवेदक 25 सितंबर, 2025 से जेल में बंद था। आरोपपत्र पहले ही दाखिल किया जा चुका था, जिससे अभिरक्षा में पूछताछ की कोई आवश्यकता नहीं रह गई। आवेदक का एक आपराधिक इतिहास था, किंतु उसने न्यायालय को आश्वासन दिया कि वह जमानत की छूट का दुरुपयोग नहीं करेगा और विचारण की कार्यवाही में सहयोग करेगा।
- कार्यवाही के दौरान, न्यायालय ने जमानत आदेशों के क्रियान्वयन में व्यवस्थागत विलंब का न्यायिक संज्ञान लिया। रजिस्ट्रार (अनुपालन) ने न्यायालय को सूचित किया कि जमानत आवेदनों में जेल का विवरण न होने के कारण, जमानत आदेशों की प्रतियाँ सीधे जेल अधीक्षक को भेजना मुश्किल हो रहा था। परिणामस्वरूप, आदेश महानिरीक्षक (कारागार) और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेटों के माध्यम से भेजे जा रहे थे, जिससे अधिक विलंब हो रहा था।
- उच्च न्यायालय के कंप्यूटर प्रोग्रामर समन्वयक (Computer Programmer Coordinator (CPC)) द्वारा न्यायालय को यह भी अवगत कराया गया कि राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (NIC) द्वारा जमानत अनुभाग और आपराधिक अपील अनुभाग को समर्पित पहचान के माध्यम से ई-जेल पोर्टल तक सीधी पहुँच प्रदान नहीं की गई है, जिससे संबंधित जेलों को जमानत आदेशों का सीधा प्रसारण नहीं हो पा रहा है।
- न्यायालय ने कहा कि उसके सामने ऐसे कई मामले आए हैं जहाँ अभियुक्त या दोषी व्यक्ति जमानत मिलने के बाद भी जेल में बंद रहे, मुख्यतः प्रतिभूओं के सत्यापन में विलंब के कारण। न्यायालय ने पाया कि राजस्व और पुलिस विभाग के कुछ अधिकारी प्रतिभूओं के सत्यापन के नाम पर कथित रूप से भ्रष्ट आचरण में लिप्त थे, जो न्याय प्रशासन के लिये एक ख़तरा बन गया।
- इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी कहा कि दोपहर के भोजन से पहले के सत्रों के दौरान इलेक्ट्रॉनिक रूप से रिहाई आदेश भेजने के लिये जमानत आदेश प्रबंधन प्रणाली (BOMS) की शुरुआत के होते हुए भी, जेल मैनुअल के प्रावधानों के विपरीत, रिहाई आदेशों के भौतिक संग्रह के बाद जेल कैदियों को केवल शाम को रिहा किया जा रहा था।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन दैहिक स्वतंत्रता को प्रशासनिक ढिलाई के कारण सीमित नहीं किया जा सकता है, तथा एक बार जमानत दिये जाने के बाद, विचाराधीन कैदी या दोषी को तुरंत सूचित किया जाना और रिहा किया जाना उसका अधिकार बन जाता है।
- न्यायालय ने कहा कि कुछ राजस्व और पुलिस अधिकारियों द्वारा कथित रूप से किये जा रहे भ्रष्ट आचरण को रोकने के लिये इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से न्यायालय परिसर में प्रतिभूओं का सत्यापन किया जाना चाहिये, तथा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि जमानत दिये जाने के बाद अभियुक्त व्यक्ति एक दिन भी जेल में न रहें।
- न्यायालय ने कहा कि रिहाई आदेश प्राप्त करने के बाद कैदियों को केवल शाम को रिहा करने की प्रथा का जेल मैनुअल में कोई स्थान नहीं है, क्योंकि उत्तर प्रदेश जेल मैनुअल, 2002 के नियम 91 में कहा गया है कि रिहाई आदेशों का शीघ्र पालन किया जाना चाहिये और कैदियों को सामान्यतः उसी दिन रिहा कर दिया जाना चाहिये।
- न्यायालय ने निदेश दिया कि 1 दिसंबर, 2025 से सभी जमानत आवेदनों में जेल का विवरण अवश्य दिया जाना चाहिये, तथा राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (NIC), केंद्रीय कंप्यूटर प्रोग्रामर समन्वयक (CPC), महानिदेशक (कारागार) और अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) सहित विभिन्न प्राधिकारियों को निदेश दिया कि वे जमानत आदेश प्रबंधन प्रणाली (BOMS) के माध्यम से जमानत आदेशों का सीधा इलेक्ट्रॉनिक प्रसारण सुनिश्चित करें तथा इलेक्ट्रॉनिक रिहाई आदेश प्राप्त होने पर कैदियों की तत्काल रिहाई सुनिश्चित करें।
जमानत प्रदान करने की नीतिगत रणनीति में उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी किये गए न्यायालय निदेश क्या हैं?
- अधिवक्ताओं को जमानत आवेदन में उस जेल का विवरण देना चाहिये जहाँ अभियुक्त, आवेदक या दोषी कारावास में रहा है, जिससे इस न्यायालय का कार्यालय/जमानत अनुभाग विचाराधीन/दोषी-आवेदक को तुरंत जमानत आदेश भेज सके।
- उच्च न्यायालय का रिपोर्टिंग अनुभाग 01.12.2025 के बाद इस न्यायालय या लखनऊ स्थित इसकी पीठ में दायर किसी भी जमानत आवेदन को मंजूरी नहीं देगा, जब तक कि जमानत आवेदन में उस जेल के संबंध में विवरण का उल्लेख न किया जाए जहाँ आवेदक वर्तमान में कारावास में है।
- इस निदेश की सूचना बार एसोसिएशन, उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के माध्यम से अधिवक्ताओं को भी दी जानी चाहिये और इस तरह की सूचना इलाहाबाद उच्च न्यायालय की आधिकारिक वेबसाइट पर अधिसूचित करने के अलावा रिपोर्टिंग अनुभाग के बाहर भी चिपकाई जानी चाहिये।
- कंप्यूटर प्रोग्रामर समन्वयक (CPC), उच्च न्यायालय, इलाहाबाद संबंधित आपराधिक धाराओं में समर्पित पहचान (dedicated ID) के माध्यम से ई-जेल पोर्टल तक सीधी पहुँच प्राप्त करने के लिये राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (NIC) के साथ समन्वय करेगा जिससे उच्च न्यायालय से जमानत आदेश आवेदक (विचाराधीन या दोषी) को जेल अधीक्षक के माध्यम से बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के तुरंत भेजा जा सके, जो ई-मेल के माध्यम से संभव है।
- राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र (NIC) उपरोक्त विवाद्यक पर कंप्यूटर प्रोग्रामर समन्वयक (CPC), उच्च न्यायालय, इलाहाबाद के साथ सहयोग करेगा।
- अपर मुख्य सचिव (गृह), सचिवालय, उत्तर प्रदेश सरकार, लखनऊ को निदेश दिया जाता है कि वे संबंधित अधिकारियों को निदेश जारी करें कि वे संबंधित जिला न्यायाधीश के समन्वय से जिला न्यायालय परिसर में ही प्रतिभूओं के इलेक्ट्रॉनिक सत्यापन की स्थापना सुनिश्चित करें।
- महानिदेशक (कारागार) को यह भी निदेश दिया गया है कि वे सभी जेल प्राधिकारियों को आवश्यक निदेश जारी करें कि वे न्यायालयों से रिहाई आदेश प्राप्त करने के बजाय जमानत आदेश प्रबंधन प्रणाली (BOMS) के माध्यम से इलेक्ट्रॉनिक रिहाई आदेश प्राप्त होने के तुरंत बाद जेल कैदियों को रिहा करें और फिर शाम को जेल कैदियों को रिहा करें।
सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 18
05-Nov-2025
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दीनानाथ और चंद्रहास एवं अन्य “सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश 18 नियम 1 और 3, वादी को सामान्यतः पहले साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहिये, तथापि वह प्रतिवादी के साक्ष्य के बाद खंडन का अनुरोध कर सकता है; यद्यपि, प्रतिवादी यह निर्णय लेता है कि उसे शुरू करना है या नहीं।” न्यायमूर्ति एस. विश्वजीत शेट्टी |
स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, न्यायमूर्ति एस. विश्वजीत शेट्टी ने स्पष्ट किया कि कई विवाद्यकों वाले वादों में, वादी को पहले साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहिये, भले ही कुछ विवाद्यकों का भार प्रतिवादी पर हो, यद्यपि वादी प्रतिवादी के साक्ष्य के बाद खंडन करने का अधिकार सुरक्षित रख सकता है।
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने दीनानाथ और चंद्रहास एवं अन्य (2025) के मामले में यह निर्णय दिया ।
दीनानाथ और चंद्रहास एवं अन्य (2025) की पृष्ठभूमि क्या थी ?
- वर्तमान मामला भाई-बहनों के बीच पारिवारिक संपत्ति विवाद से उत्पन्न हुआ था। लगभग 65 वर्षीय श्री दीनानाथ याचिकाकर्त्ता और प्रतिवादी थे, जबकि उनके भाई-बहन चंद्रहास, थुकाराम, श्रीमती जलजाक्षी और श्रीमती यशवंती प्रत्यर्थी और वादी थे। सभी पक्षकार स्वर्गीय के. आनंद के बच्चे थे।
- प्रत्यर्थियों ने मंगलुरु के प्रधान वरिष्ठ सिविल न्यायाधीश एवं DCJM के समक्ष मूल वाद संख्या 193/2019 दायर कर अनुसूची 'A' की संपत्ति के विभाजन और पृथक् कब्जे की मांग की। वादीगण ने अपने दिवंगत पिता के. आनंद द्वारा छोड़ी गई अनुसूची 'A' की संपत्ति में से प्रत्येक के लिये 1/5 अंश का दावा किया।
- याचिकाकर्त्ता/प्रतिवादी ने एक विस्तृत लिखित कथन दाखिल करके वाद के दावे का विरोध किया, जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि उनके पिता के. आनंद ने 11.11.2007 को एक वसीयतनामा निष्पादित किया था, जिसमें वादपत्र मद संख्या 3 की संपत्ति उनके पक्ष में दी गई थी।
- विचारण न्यायालय ने अभिवचनों पर विचार करने के बाद चार विवाद्यक विरचित किये। विवाद्यक संख्या 1 यह था कि क्या वादी अलग-अलग कब्ज़े के साथ 1/5 अंश के अपने अधिकार को साबित कर सकते हैं। विवाद्यक संख्या 2 यह था कि क्या प्रतिवादी 11.11.2007 की कथित वसीयत को साबित करने के अपने दायित्त्व का निर्वहन कर सकता है। विवाद्यक संख्या 3 यह था कि क्या वादी यह साबित कर सकते हैं कि प्रतिवादी संपत्तियों से होने वाली आय का सही और सटीक विवरण देने और वादियों को उनका 1/5 अंश देने के लिये उत्तरदायी है। विवाद्यक संख्या 4 यह था कि क्या वादी मांगे गए अनुतोष के हकदार हैं।
- विवाद्यक संख्या 2 के सिवाय सभी विवाद्यकों को साबित करने का भार वादी पर था, जबकि वसीयत की वैधता और निष्पादन के संबंध में विवाद्यक संख्या 2 को साबित करने का भार प्रतिवादी पर था।
- प्रक्रियागत विवाद तब उत्पन्न हुआ जब वादी ने 27.09.2021 को एक ज्ञापन दायर किया जिसमें कहा गया कि उनके पास वर्तमान में पेश करने के लिये कोई सबूत नहीं है और उन्होंने खंडन साक्ष्य को पेश करने का अपना अधिकार सुरक्षित रखा है, और अनुरोध किया कि प्रतिवादी को पहले सबूत पेश करने के लिये कहा जाए।
- प्रतिवादी ने इस ज्ञापन पर आपत्ति जताते हुए तर्क दिया कि विवाद्यक संख्या 1 और 3 के लिये साक्ष्य प्रस्तुत करने का भार वादी पर है, और केवल विवाद्यक संख्या 2 के लिये प्रतिवादी को अपना भार वहन करना आवश्यक है। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि वादी को विवाद्यक संख्या 1 और 3 पर साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहिये था, और वे केवल विवाद्यक संख्या 2 के संबंध में खंडनात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति मांग सकते थे।
- विचारण न्यायालय ने दिनांक 10.11.2021 के आदेश के अधीन वादी के ज्ञापन को स्वीकार कर लिया और उनके साक्ष्य को, खंडन साक्ष्य प्रस्तुत करने के उनके अधिकार के अधीन, फिलहाल 'शून्य' मान लिया, और प्रतिवादी को साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिये कहा। इस आदेश से व्यथित होकर, याचिकाकर्त्ता/प्रतिवादी ने कर्नाटक उच्च न्यायालय में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत रिट याचिका संख्या 796/2022 दायर की, जिसमें विचारण न्यायालय के निदेश को चुनौती दी गई।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 18 नियम 1 में यह मान्यता दी गई है कि सामान्यतः वादी को ही अपना साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार है। एकमात्र अपवाद तब होता है जब प्रतिवादी वादी द्वारा आरोपित तथ्यों को स्वीकार कर लेता है और तर्क देता है कि विधि के आधार पर या प्रतिवादी द्वारा आरोपित कुछ अतिरिक्त तथ्यों के आधार पर, वादी मांगे गए अनुतोष के किसी भी भाग का हकदार नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में, प्रतिवादी को आरंभ करने का अधिकार है।
- न्यायालय ने कहा कि कई विवाद्यकों से जुड़े मामलों में, आदेश 18 नियम 3 लागू होता है, जो वादी को या तो उन विवाद्यकों पर साक्ष्य प्रस्तुत करने का विकल्प देता है जहाँ भार प्रतिवादी पर है, या दूसरे पक्षकार द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य के उत्तर के रूप में इसे सुरक्षित रखने का विकल्प देता है।
- न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण विधिक सिद्धांत स्थापित किया कि जब किसी मामले में कई विवाद्यक हों, तो उस विवाद्यक के संबंध में जहाँ साबित करने का भार प्रतिवादी पर है, वादी नियम 1 के अधीन दिये गए विकल्प का प्रयोग कर सकता है। यद्यपि, अन्य विवाद्यकों के संबंध में, साक्ष्य पेश करने का अधिकार सदैव वादी के पास होता है।
- न्यायालय ने कहा कि यद्यपि वादी प्रतिवादी द्वारा साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद खंडन में साक्ष्य प्रस्तुत करने के अपने अधिकार को सुरक्षित रखने का अनुरोध कर सकता है, किंतु यह प्रतिवादी पर निर्भर है कि वह साक्ष्य के साथ शुरुआत करना चाहता है या नहीं।
- इस सिद्धांत को वर्तमान मामले में लागू करते हुए, न्यायालय ने कहा कि विवाद्यक संख्या 2 के सिवाय, अन्य विवाद्यकों को साबित करने का भार वादियों पर था। इसलिये, वादियों को विवाद्यक संख्या 1 और 3 पर अपने साक्ष्य प्रस्तुत करने चाहिये थे, और केवल विवाद्यक संख्या 2 के संबंध में ही वे खंडन साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति मांग सकते थे। न्यायालय ने माना कि विचारण न्यायालय इस पहलू को समझने में असफल रहा और वादियों के ज्ञापन में की गई प्रार्थना को स्वीकार करने में त्रुटि हुई।
- न्यायालय ने भागीरथ शंकर सोमानी बनाम रमेशचंद्र दाऊलाल सोनी (2007) के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय के निर्णय पर विश्वास किया, जिसमें कहा गया था कि आदेश 18 के नियम 1 के अधीन ऐसा कुछ भी नहीं है जो न्यायालय को प्रतिवादी को पहले साक्ष्य प्रस्तुत करने का निदेश देने की कोई शक्ति प्रदान करता हो, यदि प्रतिवादी ने स्वयं ऐसे अधिकार का दावा नहीं किया है।
- न्यायालय ने कहा कि नियम 1 एक सक्षमकारी उपबंध है जो प्रतिवादी को आरंभ करने का अधिकार देता है तथा इसका यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि न्यायालय प्रतिवादी को वादी के समक्ष कठघरे में प्रवेश करने के लिये बाध्य कर सकता है।
- परिणामस्वरूप, न्यायालय ने रिट याचिका को अनुमति दे दी, विचारण न्यायालय के 10.11.2021 के आदेश को अपास्त कर दिया, और निदेश दिया कि वादी विवाद्यक संख्या 2 के सिवाय सभी विवाद्यकों पर अपना साक्ष्य प्रस्तुत करना आरंभ करेंगे। न्यायालय ने आगे निदेश दिया कि यदि वादी प्रतिवादी द्वारा साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद विवाद्यक संख्या 2 पर खंडन साक्ष्य प्रस्तुत करने का अनुरोध करते हैं, तो विचारण न्यायालय आदेश में की गई टिप्पणियों के आलोक में इस पर विचार करेगा।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 18 क्या है?
आदेश 18 वाद की सुनवाई और साक्षियों की परीक्षा से संबंधित है
- नियम 1 - आरंभ करने का अधिकार:
- सिविल वादों में सामान्य नियम के अनुसार वादी को पहले साक्ष्य प्रस्तुत करके कार्यवाही आरंभ करने का अधिकार है।
- अपवाद तब होता है जब प्रतिवादी वादी द्वारा आरोपित तथ्यों को स्वीकार कर लेता है और तर्क देता है कि या तो विधि के आधार पर या कुछ अतिरिक्त तथ्यों के आधार पर, वादी मांगे गए अनुतोष के किसी भी भाग का हकदार नहीं है।
- जब ये दोनों शर्तें पूरी हो जाती हैं, तो प्रतिवादी को कार्यवाही आरंभ करने का अधिकार है।
- नियम 1 एक सक्षमकारी उपबन्ध है जो प्रतिवादी को केवल निर्दिष्ट परिस्थितियों में ही इस अधिकार का प्रयोग करने की अनुमति देता है।
- नियम 3 – जहाँ कई विवाद्यक है वहाँ साक्ष्य:
- नियम 3 तब लागू होता है जब कई विवाद्यक तैयार किये गए हों और कुछ विवाद्यकों को साबित करने का भार अलग-अलग पक्षकारों पर हो।
- आरंभ करने वाले पक्षकार के पास या तो उन विवाद्यकों पर साक्ष्य प्रस्तुत करने का विकल्प होता है जहाँ दायित्त्व दूसरे पक्षकार पर होता है, या फिर वह दूसरे पक्षकार के साक्ष्य के जवाब के रूप में इसे सुरक्षित रख सकता है।
- जब साक्ष्य सुरक्षित रखा जाता है, तो आरंभ करने वाला पक्षकार, दूसरे पक्षकार द्वारा सभी साक्ष्य प्रस्तुत कर दिये जाने के बाद खंडन साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता है।
- इसके बाद दूसरा पक्षकार विशेष रूप से प्रस्तुत खंडन साक्ष्य पर उत्तर दे सकता है।
- यद्यपि, आरंभ करने वाला पक्षकार पूरे मामले पर सामान्य रूप से जवाब देने का हकदार होगा।
- नियम 3 एक प्रक्रियात्मक ढाँचा प्रदान करता है जो दोनों पक्षकारों के अधिकारों को संतुलित करता है, जब विभिन्न विवाद्यकों के लिये साक्ष्य का भार अलग-अलग हो।