निर्णय लेखन कोर्स – 19 जुलाई 2025 से प्रारंभ | अभी रजिस्टर करें










होम / किशोर न्याय अधिनियम

आपराधिक कानून

प्रताप सिंह बनाम झारखंड राज्य एवं अन्य (2005)

    «
 07-Jul-2025

परिचय 

भारत के उच्चतम न्यायालय के इस ऐतिहासिक निर्णय में किशोर न्याय अधिनियम, 1986 के अधीन किशोर की स्थिति के निर्धारण और किशोर न्याय (बालकों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 की प्रयोज्यता के संबंध में दो महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को संबोधित किया गया। यह मामला किशोर न्याय विधि के परस्पर विरोधी निर्वचन से उत्पन्न हुआ और विधिक संदिग्धता (अस्पष्टता) का समाधान करने के लिये इसे संविधान पीठ को भेज दिया गया। 

तथ्य 

घटनाओं का कालक्रम: 

  • 31 दिसंबर, 1998: अपराध की कथित तारीख - प्रताप सिंह पर जहर देकर मौत के षड्यंत्र में सम्मिलित होने का अभिकथन किया गया था। 
  • 1 जनवरी, 1999: भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 364, 302/201 सहपठित धारा 120ख के अंतर्गत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई। 
  • 22 नवम्बर, 1999: अपीलकर्त्ता को गिरफ्तार कर लिया गया और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM), चास के समक्ष पेश किया गया, जिन्होंने उसकी आयु लगभग 18 वर्ष आंकी। 
  • 28 फरवरी, 2000: याचिका दायर की गई जिसमें दावा किया गया कि घटना के दिन अपीलकर्त्ता अवयस्क था। 
  • 3 मार्च, 2000: मामला किशोर न्यायालय को भेजा गया, जिसने अपीलकर्त्ता की आयु 15-16 वर्ष के बीच आंकी। 
  • आयु निर्धारण: स्कूल छोड़ने के प्रमाण पत्र और CBSE मार्कशीट के आधार पर, न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्त्ता की आयु 31 दिसंबर, 1998 को 16 वर्ष से कम थी, तथा जन्मतिथि 18 दिसंबर, 1983 दर्ज की गई थी। 

न्यायिक प्रक्रियाएँ: 

  • अपर सेशन न्यायाधीश ने कहा कि किशोर की स्थिति निर्धारित करने के लिये न्यायालय के समक्ष पेशी की तारीख सुसंगत है, न कि अपराध की तारीख। 
  • झारखंड उच्च न्यायालय ने इस दृष्टिकोण को बरकरार रखा। 
  • परस्पर विरोधी निर्णयों के कारण मामला संविधान पीठ को सौंप दिया गया। 

शामिल विवाद्यक 

उच्चतम न्यायालय ने दो प्राथमिक प्रश्नों की पहचान की जिनके लिये आधिकारिक निर्धारण की आवश्यकता है: 

  • विवाद्यक 1: क्या घटना की तारीख कथित अभियुक्त की किशोर अपराधी के रूप में आयु निर्धारित करने के लिये गणना तिथि होगी, या वह तिथि होगी जब उसे न्यायालय/सक्षम प्राधिकारी के समक्ष पेश किया जाएगा? 
  • विवाद्यक 2: क्या किशोर न्याय (देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2000 उन मामलों में लागू होगा, जिनमें कार्यवाही 1986 अधिनियम के अधीन शुरू की गई थी और 1 अप्रैल, 2001 से 2000 अधिनियम लागू होने तक लंबित थी? 

न्यायालय की टिप्पणियाँ 

विवाद्यक 1 पर: 

  • विधायी उद्देश्य और लाभकारी प्रकृति:न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि किशोर न्याय अधिनियम, 1986 एक लाभकारी विधि है जिसका उद्देश्य उपेक्षित या अभियुक्त किशोरों की देखरेख, संरक्षण, उपचार, विकास और पुनर्वास प्रदान करना है। ऐसी विधि का निर्वचन उसके सुरक्षात्मक उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये उदारतापूर्वक किया जाना चाहिये 
  • परिभाषाओं का विश्लेषण: 
    • 1986 के अधिनियम के अधीन, "किशोर अपराधी" का अर्थ ऐसा किशोर है जो अपराध करता पाया गया हो। 
    • वर्ष 2000 के अधिनियम में "विधि का उल्लंघन करने वाले किशोर" की परिभाषा ऐसे किशोर के रूप में की गई है जिस पर कोई अपराध करने का अभिकथन है। 
    • न्यायालय ने कहा कि 1986 के अधिनियम में जो निहित था, उसे 2000 के अधिनियम में स्पष्ट कर दिया गया। 
  • सांविधिक निर्वचन:न्यायालय ने 1986 अधिनियम की धारा 3, 18, 26 और 32 सहित विभिन्न प्रावधानों का विश्लेषण किया, तथा निष्कर्ष निकाला कि विधायी योजना स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि अपराध की तारीख ही आयु निर्धारण के लिये सुसंगत तारीख है। 

विवाद्यक 2 पर: 

  • निरसन और व्यावृत्ति खण्ड:न्यायालय ने 2000 अधिनियम की धारा 69 की जांच की, जो 1986 अधिनियम को निरस्त करती है, किंतु इसमें एक व्यावृत्ति खण्ड सम्मिलित है, जिसमें कहा गया है कि 1986 अधिनियम के अधीन किया गया कोई भी कार्य 2000 अधिनियम के संगत प्रावधानों के अधीन किया गया माना जाएगा। 
  • लंबित मामलों के लिये विशेष प्रावधान: 2000 के अधिनियम की धारा 20 लंबित मामलों से संबंधित है और इसकी शुरुआत एक अधिशासी खण्ड (non-obstante clause) से होती है। न्यायालय ने इस प्रावधान की व्याख्या अधिनियम की लाभकारी प्रकृति के संदर्भ में की। 
  • नियम 62 का विश्लेषण:न्यायालय ने केंद्र सरकार द्वारा तैयार नियम 62 पर विचार किया, जिसमें स्पष्ट किया गया है कि किसी भी किशोर को अधिनियम के लाभों से वंचित नहीं किया जाएगा, जिसमें वे भी सम्मिलित हैं जो कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान किशोर नहीं रहे। 
  • आयु सीमा में वृद्धि:न्यायालय ने 1986 के अधिनियम (लड़कों के लिये 16 वर्ष, लड़कियों के लिये 18 वर्ष) से ​​2000 के अधिनियम (लिंग की परवाह किये बिना सभी बालकों के लिये 18 वर्ष) में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन का उल्लेख किया। 

निष्कर्ष 

इस निर्णय ने किशोर न्याय न्यायशास्त्र में एक महत्त्वपूर्ण विवाद का समाधान किया और यह सुनिश्चित किया कि: 

  • किशोर न्याय विधि की लाभकारी प्रकृति संरक्षित है।  
  • प्रक्रियागत तकनीकीताओं या न्याय प्रणाली में विलंब के कारण किसी भी बालक को सुरक्षा से वंचित नहीं किया जाएगा।  
  • 2000 अधिनियम के अधीन संवर्धित संरक्षण (18 वर्ष की एक समान आयु सीमा) योग्य मामलों तक बढ़ाया गया है 

इस निर्णय ने इस सिद्धांत को पुष्ट किया कि किशोर न्याय विधि का निर्वचन युवा अपराधियों के कल्याण और पुनर्वास के लिये उदारतापूर्वक किया जाना चाहिये, तथा ऐसी विधि में अंतर्निहित सुरक्षात्मक दर्शन के अनुसार दण्ड की अपेक्षा सुधार पर अधिक जोर दिया जाना चाहिये