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सांविधानिक विधि
ग्रसन का सिद्धांत
« »23-Jan-2024
परिचय:
ग्रसन का सिद्धांत भारत के संविधान, 1950 (Constitution of India- COI) के अनुच्छेद 13(1) में निहित है। यह सिद्धांत पूर्व-संवैधानिक विधियों या मौजूदा विधियों से संबंधित है।
ग्रसन का सिद्धांत क्या है?
- वह विधि जो अपनी स्थापना के समय वैध थी, लेकिन संविधान के भाग III में गारंटीकृत मूल अधिकारों के साथ असंगत होने के कारण संविधान के लागू होने पर अमान्य हो गई, उसे निष्क्रिय माना जाता है, लेकिन मृत नहीं और इसलिये यदि बाद में संविधान में संशोधन से वह विसंगति दूर हो जाएगी जिसने इसे असंवैधानिक बना दिया है तो विधि दुर्बलता से मुक्त होकर लागू करने योग्य हो जाएगी।
COI का अनुच्छेद 13(1) क्या है?
- अनुच्छेद 13 मूल अधिकारों से असंगत या उनका अनादर करने वाले कानूनों से संबंधित है।
- अनुच्छेद 13(1) में कहा गया है कि इस संविधान के प्रारंभ होने से ठीक पहले भारत के क्षेत्र में लागू सभी कानून, जहाँ तक वे इस भाग के प्रावधानों के साथ असंगत हैं, ऐसी असंगति की सीमा तक, शून्य होंगे।
ग्रसन के सिद्धांत के तत्त्व क्या हैं?
- यह एक पूर्व-संवैधानिक विधि होनी चाहिये।
- यह मूल अधिकारों के प्रतिकूल होना चाहिये।
- कानून मृतप्राय नहीं बल्कि निष्क्रिय हो जाता है।
- यदि भविष्य में मूल अधिकार में कोई संशोधन होता है तो यह स्वतः ही विवादित कानून को लागू कर देगा।
क्या ग्रसन का सिद्धांत संवैधानिक विधि के पश्चात् लागू होता है?
- यह माना गया है कि ग्रसन का सिद्धांत केवल पूर्व-संवैधानिक विधियों पर लागू होता है जो अनुच्छेद 13(1) द्वारा शासित होते हैं और यह अनुच्छेद 13(2) द्वारा शासित उत्तर-संवैधानिक विधियों पर लागू नहीं होगा।
- COI के अनुच्छेद 13(2) में कहा गया है कि राज्य ऐसा कोई कानून नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को सीमित या उनका हनन करता हो और इस खंड के उल्लंघन में बनाया गया कोई भी कानून, उल्लंघन की सीमा तक, शून्य होगा।
ग्रसन के सिद्धांत की ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?
- दीप चंद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1959):
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि COI के अनुच्छेद 13(2) के तहत बनाया गया संविधान के बाद का कानून, जो मूल अधिकार का उल्लंघन करता है, अपनी स्थापना से ही अमान्य है और एक मृत कानून है। यह प्रारंभ से ही शून्य है।
- गुजरात राज्य बनाम अम्बिका मिल्स (1962):
- उच्चतम न्यायालय ने दीप चंद मामले में व्यक्त अपने दृष्टिकोण को संशोधित किया और कहा कि एक संवैधानिक विधि जो मूल अधिकारों के साथ असंगत है, सभी मामलों में और सभी उद्देश्यों के लिये शून्य या अस्तित्त्वहीन नहीं है।