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सांविधानिक विधि

प्रसादपर्यंत का सिद्धांत

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 13-Feb-2024

परिचय:

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत का अंगीकरण ब्रिटिश विधिक प्रणाली से किया गया है। इसे भारत में प्रचलित सामाजिक संरचना के अनुसार भारतीय संदर्भ के अनुरूप संशोधित किया गया है।

प्रसादपर्यंत का सिद्धांत क्या है?

  • प्रसाद के सिद्धांत का अर्थ है कि क्राउन के पास किसी सिविल सेवक को नोटिस दिये बिना उसकी सेवाओं को किसी भी समय समाप्त करने की शक्ति होती है तथा इस प्रकार एक सिविल सेवक क्राउन के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है।
  • यह सिद्धांत लोक नीति पर आधारित है।

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत से संबंधित सांविधानिक उपबंध क्या हैं?  

  • भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 155 के अनुसार किसी राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है।
  • COI के अनुच्छेद 310 के अनुसार सिविल सेवक (रक्षा सेवाओं, सिविल सेवाओं, अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्य अथवा केंद्र/राज्य के तहत सैन्य पदों अथवा नागरिक पदों पर नियुक्त कर्मी) राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं।

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत से संबंधित क्या निर्बंधन हैं?

  • भारत के संविधान में इस सिद्धांत के अभ्यास पर निम्नलिखित निर्बंधन अधिकथित हैं:
    • राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल का प्रसादपर्यंत COI के अनुच्छेद 311 के उपबंधों द्वारा नियंत्रित होता है, अतः अनुच्छेद 311 द्वारा कवर किये गये क्षेत्र को इस सिद्धांत के संचालन से बाहर रखा गया है।
    • उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, मुख्य निर्वाचन आयुक्त की कार्यावधि राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल के प्रसादपर्यंत निर्भर नहीं है। इन पदों को प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के संचालन से बाहर रखा गया है।
    • यह सिद्धांत मौलिक अधिकारों के अधीन है।
    • COI का अनुच्छेद 311 सिविल सेवकों को उनके पदों से किसी भी मनमाने ढंग से पदच्युत करने के विरुद्ध निम्नलिखित रक्षोपाय प्रदान करता है:
      • यह एक सिविल सेवक को पद्चुयुत करने पर निर्बंधन लगाता है।
      • यह सिविल सेवकों को उनके खिलाफ अधिरोपित आरोपों पर सुनवाई के लिये उचित अवसर दिये जाने का प्रावधान करता है।

प्रसादपर्यंत के सिद्धांत से संबंधित ऐतिहासिक मामले क्या हैं?

  • बिहार राज्य बनाम अब्दुल माजिद (1954):
    • उच्चतम न्यायालय ने प्रसादपर्यंत के सिद्धांत के संबंध में निर्णय किया कि अंग्रेज़ी निर्णयज विधि को इसकी संपूर्णता में तथा इसके सभी कठोर निहितार्थों के साथ नहीं अपनाया गया है।
  • भारत संघ बनाम तुलसीराम पटेल (1985):
    • उच्चतम न्यायालय ने निर्णय किया कि प्रसादपर्यंत का सिद्धांत न तो सामंती युग का पुरावशेष था और न ही यह ब्रिटिश क्राउन के किसी विशेष विशेषाधिकार पर आधारित था, बल्कि यह लोक नीति पर आधारित था।