जारकर्म को अपराध के रूप में पुनः स्थापित करना
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आपराधिक कानून

जारकर्म को अपराध के रूप में पुनः स्थापित करना

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 20-Nov-2023

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

परिचय:

जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018) के मामले के माध्यम से भारत में जारकर्म को अपराध की श्रेणी से हटा दिया गया है। हालाँकि 10 नवंबर, 2023 को एक संसदीय समिति की 350 पृष्ठ की रिपोर्ट में भारतीय न्याय संहिता, 2023, जो मौजूदा भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के स्थान पर प्रस्तावित कानून है, में जारकर्म को एक अपराध के रूप में पुनः स्थापित करने की सिफारिश की गई।

जारकर्म के अपराधीकरण पर संसदीय समिति के क्या प्रतिविरोध हैं?

  • पक्ष में:
    • यह अनुशंसा की गई कि "विवाह जैसे संबंधों की रक्षा के लिये, इस धारा को लिंग निरपेक्ष बनाकर संहिता में स्थिर रखा जाना चाहिये"।
    • IPC की धारा 497 को हटाया जाना भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन है।
    • समिति ने आगे कहा कि "यह धारा केवल विवाहित पुरुष को दंडित करती है और विवाहित महिला को उसके पति की संपत्ति के समान या उसके अधिकार में मानती है"।
    • समिति का मानना है कि भारतीय समाज में विवाह को पवित्र माना जाता है और इसकी पवित्रता की रक्षा करने की आवश्यकता है।
  • विरोध में:
    • विपक्ष ने कहा कि ''जारकर्म अपराध नहीं होना चाहिये। यह विवाह, जो दो व्यक्तियों के बीच एक समझौता होता है, के विरुद्ध एक अपराध है; यदि समझौता बाधित हो जाता है तो पीड़ित पति या पत्नी तलाक या नागरिक क्षति के लिये मुकदमा कर सकते हैं।
    • इसमें कहा गया है कि “विवाह को एक संस्कार के स्तर तक मानना पुरानी प्रथा है। किसी भी स्थिति में विवाह का संबंध बड़े पैमाने पर समाज से न होकर केवल दो व्यक्तियों से होता है।''
    • राज्य को उनके जीवन में प्रवेश करने और कथित तौर पर गलत कार्य करने वाले को दंडित करने का कोई अधिकार नहीं है।

वह ऐतिहासिक मामला जिसने जारकर्म को अपराध माना, क्या है?

  • भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई वी. चंद्रचूड़ ने सौमित्री विष्णु बनाम भारत संघ (1985) के मामले में जारकर्म के कृत्य को अपराध के रूप में बरकरार रखा।
  • न्यायालय ने कहा कि “समाज के हितों की दृष्टि से यह बेहतर है कि कम-से-कम एक सीमित वर्ग के जारकर्म संबंधों को कानून द्वारा दंड दिया जाता है। विवाहों की स्थिरता एक मूल्यवान आदर्श है जिसका तिरस्कार नहीं किया जाना चाहिये।”
  • न्यायालय ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 198(2) को अमान्य कर दिया क्योंकि इसका संबंध IPC की धारा 497 में निर्दिष्ट जारकर्म अपराध से है।
  • CrPC की धारा 198(2) के अनुसार, विशिष्ट मामलों में न्यायालय किसी मामले पर केवल तभी विचार कर सकते हैं जब मामला पीड़ित पक्ष द्वारा न्यायालय में लाया गया हो।
    • जारकर्म के संदर्भ में प्रावधान केवल पति को "पीड़ित" पक्ष के रूप में नामित करता है।

विधायिका उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विपरीत कानून कैसे बना सकती है?

  • संसद सीधे तौर पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध कोई कानून पारित नहीं कर सकती है, हालाँकि वह उस निर्णय के आधार में संशोधन करते हुए पूर्वव्यापी या संभावित प्रभाव वाला कानून पारित कर सकती है।
  • मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2021) मामले में जस्टिस एल. नागेश्वर राव, जस्टिस हेमंत गुप्ता और एस. रवींद्र भट की पीठ ने कहा: "एक वैध कानून की वैधता निर्धारित करने के लिये परीक्षण यह है कि, यदि वैध कानून द्वारा लाई जाने वाली बदली हुई स्थिति उसके निर्णय के समय न्यायालय के समक्ष मौजूद होती तो दोष को इंगित करने वाला निर्णय पारित नहीं किया गया होता। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि बताए गए दोष को इस तरह ठीक किया जाना चाहिये था कि दोष को इंगित करने वाले निर्णय का आधार हटा दिया जाए।''

निष्कर्ष:

भारत में जारकर्म को अपराध बनाने की चर्चा में कानूनी, सामाजिक और संवैधानिक तत्त्वों का एक जटिल मिश्रण शामिल है। भारतीय न्याय संहिता, 2023 के संभावित प्रभाव और जारकर्म पर इसकी स्थिति से अधिक चर्चा शुरू होने की उम्मीद है, जिससे विवाह के संदर्भ में व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं सामाजिक मानदंडों के बीच सावधानीपूर्वक संतुलन बनाने की आवश्यकता होगी।