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सिविल कानून

सलेम एडवोकेट बार एसोसिएशन, टीएन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एआईआर 2005 SC 3353

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 14-Sep-2023

परिचय-

  • यह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1903 (CPC) के अंतर्गत एक ऐतिहासिक मामला है जहाँ न्यायालय ने वर्ष 1999 और वर्ष 2002 के संशोधन अधिनियमों द्वारा किये गए संशोधनों को बरकरार रखा
  • इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने संशोधनों के परिचालन के तौर-तरीकों पर सुझाव देने के लिये न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश और भारतीय विधि आयोग के अध्यक्ष (न्यायमूर्ति एम. जगन्नाध राव) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया।
  • मामले की सुनवाई करने वाले माननीय न्यायाधीश वाई.के. सभरवाल, डी.एम. धर्माधिकारी और तरुण चटर्जी थे।

तथ्य-

  • वर्ष 1999 और वर्ष 2002 के संशोधन अधिनियमों द्वारा CPC में किये गए संशोधनों की संवैधानिक वैधता को दी गई चुनौती को न्यायालय ने खारिज कर दिया
  • लेकिन निर्णय में यह देखा गया कि संहिता की धारा 89 और उस मामले के लिये, संशोधन के माध्यम से प्रस्तुत किये गए अन्य प्रावधानों को जिस तरह से संचालित किया जाना चाहिये, उसके लिये तौर-तरीके तैयार किये जाने चाहिये
  • समिति ने तीन भागों में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की:-
    रिपोर्ट 1- विभिन्न शिकायतों पर विचार( Consideration of various grievances)
    रिपोर्ट 2- ADR और मध्यस्थता के लिये मसौदा नियम (Draft Rules for ADR and mediation)
    रिपोर्ट 3- मामला प्रबंधन सम्मेलन (Case management conferences)

शामिल मुद्दे-

क्या सिविल प्रक्रिया संहिता, वर्ष 1908 में वर्ष 1999 और वर्ष 2002 के संशोधन संवैधानिक रूप से वैध थे?

रिपोर्ट 1

धारा 26 की उप-धारा (2) और आदेश VI नियम 15 के नियम 15(4) में किये गये संशोधन।

यह तर्क दिया गया कि संहिता की धारा 26(2) और आदेश VI, नियम 15(4) के अंतर्गत आवश्यक शपथपत्र अभिवचन में बताए गए तथ्यों की सच्चाई के बारे में अभिसाक्षी पर एक अतिरिक्त उत्तरदायित्व का निर्माण करता है

आदेश XVIII नियम 4 का संशोधन

  • पक्षों द्वारा दिया गया एक और तर्क यह था कि आदेश VIII, नियम 4 और आदेश XVIII, नियम 5 (A) और (B) के बीच विरोधाभास है
  • यहाँ विरोधाभास यह था कि आदेश XVIII, नियम 5, अपील योग्य मामलों में न्यायालय द्वारा स्वयं साक्ष्य दर्ज किये जाने का प्रावधान करता है।
  • हालाँकि, इसी आदेश के नियम 4 और 19 आयुक्त को किसी भी स्थिति के बावज़ूद, किसी भी मामले में साक्ष्य दर्ज करने में सक्षम बनाते हैं ।
  • आदेश XVIII नियम 4(4) के लिये आवश्यक है कि आयुक्त के समक्ष साक्ष्य दर्ज किये जाने के दौरान उठाई गई कोई भी आपत्ति उनके द्वारा दर्ज की जाएगी और बहस के चरण में न्यायालय द्वारा तय की जाएगी।
  • आदेश XVIII नियम 4(8) में कहा गया है कि आदेश XXVI के नियम 16, 16-A, 17 और 18 के प्रावधान, जहाँ तक वे लागू हैं, ऐसे मुद्दे, निष्पादन और वापसी पर लागू होंगे।
  • किसी साक्षी को पक्षद्रोही घोषित करने का विवेकाधिकार आयुक्त को नहीं दिया गया है

अतिरिक्त साक्ष्य

  • सेलम एडवोकेट्स बार एसोसिएशन के मामले में, यह स्पष्ट किया गया है कि आदेश XVIII नियम 17-A को हटाने पर, जो अतिरिक्त साक्ष्य पेश करने का प्रावधान करता है, संशोधन की शुरूआत से पहले मौजूद कानून बहाल हो जाएगा
    • इस नियम को वर्ष 2002 के संशोधन अधिनियम द्वारा हटा दिया गया था।
  • न्यायालय के पास पक्षों को ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत करने की अनुमति देने की अंतर्निहित शक्ति है जो उन्हें पहले से ज्ञात नहीं थे या जो उचित परिश्रम के बावज़ूद प्रस्तुत नहीं किये जा सके।
  • इसलिये, आदेश XVIII नियम 17-A को हटाने से बाद के चरण में साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है

आदेश XVIII नियम 1

  • वर्ष 1999 के अधिनियम 46 द्वारा संशोधित आदेश VIII नियम 1 में प्रावधान है कि प्रतिवादी , समन की तामील की तारीख से 30 दिनों के भीतर , अपने बचाव में एक लिखित बयान प्रस्तुत करेगा
  • करेगा' शब्द का उपयोग अपने आप में यह निर्धारित करने के लिये निर्णायक नहीं है कि प्रावधान अनिवार्य है या निदेशकारी
  • यह तर्क दिया गया कि प्रक्रिया के नियम न्याय के उद्देश्य को आगे बढ़ाने के लिये बनाए गए हैं, न कि उसे असफल करने के लिये।
  • ऐसे नियम या प्रक्रिया के निर्माण को प्राथमिकता देनी होगी जो न्याय को बढ़ावा दे और असफलता को रोके।
  • प्रक्रिया न्याय के अधीन है न कि उसकी स्वामी।

धारा 39

  • धारा 39 (4) गैर- प्राधिकृत न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर आज्ञप्ति निष्पादित करने का प्रावधान करती है
  • लेकिन यह उन प्रावधानों में निर्धारित शर्तों के अनुपालन में ऐसी शक्ति प्रदान करने वाले अन्य प्रावधानों को कमज़ोर नहीं करती है।
  • इस प्रकार, आदेश XXI, नियम 3, या नियम 48 अलग-अलग प्रावधान करते हैं, जो धारा 39 (4) से प्रभावित नहीं होते हैं।

धारा 64(2)

  • संहिता में धारा 64(2) को वर्ष 2002 के संशोधन अधिनियम, 22 द्वारा जोड़ा गया है ।
  • धारा 64, जैसा कि वह मूल रूप से थी, को धारा 64(1) के रूप में पुनः क्रमांकित किया गया है।
  • उप-धारा (2) उपरोक्त कृत्यों की रक्षा करती है, यदि यह ऐसे हस्तांतरण या प्रदायगी के लिये किसी अनुबंध के अनुसरण में किया गया हो, जो जोड़े जाने से पहले दर्ज और पंजीकृत किया गया हो।
  • पजीकरण की प्रक्रिया संशोधनों को विफल करने के उद्देश्य से किये जा रहे झूठे और क्षुद्र अनुबंधों को रोकने के लिये शुरू की गई है।
  • यदि अनुबंध पंजीकृत है और संशोधन बाद में किया जाता है, तो संशोधन के बाद निष्पादित कोई भी विक्रय पत्र वैध होगा, यदि यह अपंजीकृत है तो संशोधन के बाद की गई विक्रय वैध नहीं होगी। ऐसे विक्रय को संरक्षित नहीं किया जाएगा।
  • धारा 64 की उपधारा (2) में कोई भ्रम नहीं है।

लागत

  • मुकदमे के संबंध में पक्षों द्वारा दी गयी दलील में कहा गया है कि कई फर्जी पक्ष इस तथ्य का फायदा उठाते हैं, या तो लागत नहीं दी जाती है या असफल पक्ष को नाममात्र की लागत देनी होती है।
  • दुर्भाग्य से, पक्षों को अपनी लागत स्वयं वहन करने का निर्देश देना एक चलन बन गया है।
  • बड़ी संख्या में मामलों में, संहिता की धारा 35(2) के बावज़ूद ऐसा आदेश पारित किया जाता है।
  • इस तरह की प्रथा से छोटे मुकदमे दायर करने को भी बढ़ावा मिलता है।
  • इससे बचावों के न्यून तरीके अपनाने को भी बढ़ावा मिलता है।

धारा 80

  • यह तर्क दिया गया कि धारा 80 (1) के अनुसार मुकदमा दायर करने से पहले सरकार को दो महीने की पूर्व सूचना दिया जाना आवश्यक है, सिवाय इसके कि अंतरिम आदेश की तत्काल आवश्यकता हो।
  • दो महीने की अवधि इसलिये प्रदान की गई है ताकि सरकार नोटिस में किये गए दावे की जाँच कर सके और उसके पास उपयुक्त उत्तर भेजने के लिये पर्याप्त समय हो।
  • इसका अंतर्निहित उद्देश्य मुकदमेबाजी को कम करना है, लेकिन बड़ी संख्या में मामलों में या तो नोटिस का उत्तर नहीं दिया जाता है या उत्तर आम तौर पर अस्पष्ट और टालमटोल वाला होता है।

रिपोर्ट 2

  • CPC की धारा 89 में "करेगा" और "कर सकता है" दोनों शब्दों का उपयोग किया जाता है, जबकि आदेश X, नियम 1A में "करेगा" शब्द का उपयोग किया जाता है।
  • हालाँकि, जब इन प्रावधानों को एक साथ पढ़ा जाता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि धारा 89 में "कर सकता है" का उपयोग केवल संभावित समाधान की शर्तों को संशोधित करने और ADR के साधनों में से एक के संदर्भ में लागू होता है।
  • कोई विपक्ष नहीं है।
  • यह स्पष्ट है कि जिस असहमति को धारा 89 के अनुसार निष्पादित या संशोधित समाधान की शर्तों में संक्षेपित किया गया है, उसका वही अर्थ है जो ADR के साधनों में से किसी एक का संदर्भ है।

पी आनंद गजपति राजू बनाम पीवीजी राजू के मामले पर भरोसा करते हुए, यह तर्क दिया गया था कि यदि धारा 89 के अंतर्गत मध्यस्थता का संदर्भ दिया जाता है, तो मध्यस्थता अधिनियम संदर्भ के बाद के चरण से लागू होगा, उससे पहले नहीं

इसके अलावा, यह भी कहा गया कि यदि मध्यस्थता या कोई अन्य कार्यवाही सफल नहीं होती है, तो भी न्यायालय को बाद में मुकदमे की सुनवाई करने से नहीं रोका जाएगा

रिपोर्ट 3

  • केस प्रवाह प्रबंधन और आदर्श नियम रिपोर्ट संख्या 3 के विषय हैं। केस प्रबंधन नीति में समाधान किये गए मामलों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि करने की क्षमता है।
  • इसका उद्देश्य न्यायाधीश या किसी अन्य न्यायिक अधिकारी के लिये एक समयसीमा निर्धारित करना और मामले पर शुरू से अंत तक नज़र रखना है।
  • विचारण न्यायालय या ट्रायल कोर्ट, प्रथम अपीलीय अधीनस्थ न्यायालय और माननीय सर्वाच्च न्यायालय प्रत्येक के लिये आदर्श केस प्रवाह प्रबंधन विनियमों का एक अलग समूह निर्धारित है।
  • ये प्रस्तावित नियम मामले के प्रत्येक चरण को विस्तार से कवर करते हैं। मुकदमा दायर करने वाली जनता को निष्पक्ष, त्वरित और किफायती न्याय देने की दिशा में आगे बढ़ने के लिये, उच्च न्यायालय इन नियमों की समीक्षा कर सकते हैं, मुद्दे पर चर्चा कर सकते हैं और यह निर्णय ले सकते हैं कि निर्णय विधि प्रबंधन और मॉडल नियमों को बदलाव के साथ या बिना बदलाव के स्वीकार किया जाये या निर्धारित किया जाये।

निष्कर्ष-

  • सेलम एडवोकेट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ भारत के सर्वोच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक निर्णय है जिस पर 700 से अधिक निर्णयों में न्यायालयों और न्यायाधिकरणों द्वारा भरोसा किया गया है।
  • निर्णय मज़बूत विधियों का गठन करते हैं और आम तौर पर देखे जाने वाले निर्णयों से भिन्न होते हैं क्योंकि उनमें सभी न्यायाधीशों की व्यक्तिगत राय शामिल नहीं होती है, जैसा कि अधिकांश निर्णयों में आमतौर पर पाया जाता है ।

टिप्पणी-

न्यायमूर्ति वाई.के. सभरवाल ने प्रक्रियात्मक कानून के संबंध में व्याख्या के कुछ महत्त्वपूर्ण नियम दिये।

  • उन्होंने पुष्टि की कि "प्रक्रिया न्याय के अधीन है न कि उसकी स्वामी" जिसका अर्थ है कि यह न्याय है जो प्रक्रिया को नियंत्रित करता है।
  • यह भी देखा गया कि सत्यापन कोई शपथ नहीं है, केवल स्व-घोषणा है, शपथ पत्र एक शपथ है