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वाणिज्यिक विधि

बी.पी. मोइदीन सेवामंदिर एवं अन्य बनाम ए.एम. कुट्टी हसन (2008)

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 29-Oct-2024

परिचय

  • यह लोक अदालतों के कार्यप्रणाली को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों को प्रतिपादित करने वाला एक ऐतिहासिक निर्णय है।
  • यह निर्णय न्यायमूर्ति डी.के. जैन एवं न्यायमूर्ति आर.वी. रवींद्रन की दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया।

तथ्य

  • अपीलकर्त्ता घोषणा एवं अनिवार्य निषेधाज्ञा के लिये एक वाद में प्रतिवादी थे।
  • अपीलकर्त्ता ट्रायल कोर्ट एवं प्रथम अपीलीय न्यायालय में वाद हार गया।
  • दूसरी अपील उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई जिसे स्वीकार कर लिया गया तथा लंबित दूसरी अपील को केरल उच्च न्यायालय विधिक सेवा समिति द्वारा आयोजित लोक अदालत को भेज दिया गया।
  • लोक अदालत के समक्ष पक्षकारों ने एक अस्थायी समझौते पर पहुँच कर दो सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की लोक अदालत द्वारा एक निर्णय पारित किया।
  • अपीलकर्त्ताओं ने आरोप लगाया कि पक्षकार समझौते की शर्तों को अंतिम रूप नहीं दे सके तथा इसलिये इस संबंध में कोई समझौता विलेख तैयार नहीं किया गया।
  • इसलिये उच्च न्यायालय ने लोक अदालत को दूसरा संदर्भ दिया। इसके अतिरिक्त, वार्ता असफल रही तथा लोक अदालत ने विफलता की रिपोर्ट भेजी।
  • दूसरी अपील को विद्वान एकल न्यायाधीश के समक्ष 19 अगस्त 2008 को अंतिम सुनवाई के लिये सूचीबद्ध किया गया था।
  • अपीलकर्त्ता के अधिवक्ता द्वारा अनुरोध किया गया कि व्यक्तिगत असुविधा के कारण वह उपस्थित नहीं हो सकती, इसलिये मामले को अगली तिथि तक स्थगित कर दिया जाना चाहिये।
  • अगले दिन अधिवक्ता के शपथपत्र द्वारा समर्थित अपील की बहाली के लिये एक आवेदन दायर किया गया।
  • उपर्युक्त दोनों आदेशों को विशेष अनुमति द्वारा अपील में चुनौती दी गई।

शामिल मुद्दे

  • क्या वर्तमान मामले में अपील स्वीकार की जानी चाहिये?

टिप्पणी

  • न्यायालय ने माना कि विद्वान एकल न्यायाधीश ने लोक अदालतों के उद्देश्य एवं दायरे को अनदेखा कर दिया।
  • जब कोई मामला निपटान के लिये लोक अदालत को भेजा जाता है तो दो रास्ते उपलब्ध होते हैं:
    • यदि पक्षों के बीच कोई समझौता या निपटान हो जाता है, तो ऐसे समझौते या निपटान को शामिल करते हुए पंचाट बनाना।
    • यदि कोई समझौता या निपटान नहीं होता है, तो न्यायालय को विफलता की रिपोर्ट के साथ रिकॉर्ड वापस करना।
  • लोक अदालत द्वारा कोई ऐसा मिश्रित आदेश नहीं दिया जा सकता जिसमें अंतिम निर्णय के माध्यम से पक्षों को निर्देश दिये गए हों तथा पक्षों को विवाद के निपटान के लिये आगे निर्देश दिये गए हों।
  • न्यायालय ने कहा कि समझौता पंचाट से पहले होना चाहिये, न कि इसके विपरीत।
  • लोक अदालतों के कार्यप्रणाली के संबंध में न्यायालय की टिप्पणियाँ:
    • लोक अदालतों के सदस्य कभी-कभी न्यायाधीश के रूप में कार्य करते हैं तथा भूल जाते हैं कि वे केवल सांविधिक मध्यस्थ हैं तथा उनकी कोई न्यायिक भूमिका नहीं है।
    • चूंकि लोक अदालत का निर्णय एक निष्पादन योग्य डिक्री है, इसलिये लोक अदालतों के लिये एक समान प्रक्रिया, निर्धारित रजिस्टर एवं निर्णयों के मानकीकृत प्रारूप एवं निर्णयों का स्थायी रिकॉर्ड होना आवश्यक है, ताकि ADR प्रक्रिया का दुरुपयोग न हो।
    • न्यायालय ने सुझाव दिया कि शीर्ष निकाय के रूप में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण को लोक अदालतों के प्रभावी कार्यप्रणाली के लिये एक समान दिशा-निर्देश जारी करने चाहिये।
    • न्यायालय ने यह भी कहा कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A & C अधिनियम) के निम्नलिखित प्रावधानों में निहित सिद्धांतों को भी लोक अदालतों के सदस्यों के लिये दिशा-निर्देश के रूप में माना जा सकता है:
      • धारा 67 = मध्यस्थों की भूमिका से संबंधित
      • धारा 75 = गोपनीयता से संबंधित
      • धारा 86 = अन्य कार्यवाहियों में साक्ष्य की स्वीकार्यता से संबंधित
  • लोक अदालतों के संदर्भ में न्यायालयों की भूमिका के संबंध में न्यायालय की टिप्पणियाँ:
    • सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) की धारा 89 को ध्यान में रखते हुए न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि वह सुनिश्चित करे कि पक्षकारों के पास वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) का सहारा हो।
    • न्यायाधीशों को लोक अदालतों या अन्य ADR प्रक्रियाओं के लिये मामलों का चयन करने तथा उन्हें संदर्भित करने में कुछ प्रशिक्षण की भी आवश्यकता होती है।
    • ADR प्रक्रिया के अनुपयुक्त तरीके का यांत्रिक संदर्भ प्रतिकूल परिणाम दे सकता है।
    • एक प्रतिवादी के विरुद्ध छल एवं दस्तावेजों की कूटरचना का आरोप लगाने वाला वादी यह पूछ सकता है कि ADR प्रक्रिया के माध्यम से धोखेबाज या जालसाज के साथ उसका क्या समझौता हो सकता है, क्योंकि किसी भी समझौते का अर्थ छल या जालसाजी को स्वीकार करना या उसके आगे झुकना हो सकता है।
  • इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने माना कि न्यायालय को किसी विशेष वादी में दोष खोजने या वादी के आचरण का रिकॉर्ड बनाने से बचना चाहिये।
  • यह देखा गया कि न्यायालय को लोक अदालत के समक्ष वादी के अनुचित आचरण के कारण न्यायिक मन में किसी भी पूर्वाग्रह को आने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
  • उपरोक्त टिप्पणियों के कारण न्यायालय ने माना कि न्यायालय इस आधार पर अल्पकालिक समझौता देने से मना नहीं कर सकता तथा अपील को खारिज नहीं कर सकता कि वादी झगड़ालू एवं अनुचित था।
  • इसलिये न्यायालय ने इस मामले में उपरोक्त अपीलों को अनुमति दी।

निष्कर्ष

  • लोक अदालतें विवाद समाधान का एक महत्वपूर्ण वैकल्पिक तंत्र हैं। यह निर्णय लोक अदालतों के महत्व को दर्शाता है तथा लोक अदालतों में न्यायालयों की भूमिका को और अधिक स्पष्ट करता है।
  • यह एक महत्वपूर्ण सिद्धांत भी स्थापित करता है कि लोक अदालत के समक्ष किसी पक्ष का आचरण वर्तमान मामले में पूरी तरह अप्रासंगिक है।